अपरांत की उपमा से अभिलेखित पालघर जिले के सूत्र भगवान परशुराम के साथ जुड़ते हैं। इसके अलावा महाभारत काल और अशोक के शासन का उल्लेख भी यहां पर प्राप्त होता है। बाद में चिमाजी अप्पा ने इसे पुर्तगालियों के चंगुल से छुड़ाकर स्वराज्य की गोद में सुरक्षित किया।
1 अगस्त 2014 को ठाणे जिले का विभाजन होकर पालघर जिले का जन्म हुआ। ठाणे-पालघर जिला यानी उत्तर कोंकण जिसे पहले ‘अपरांत’ भी कहा जाता था। ‘अपरांत’ शब्द के बारे में डॉक्टर अरुण चंद्र पाठक का कहना है- ‘परा’ अर्थात पूर्व दिशा तथा अपरांत अर्थात जहां सूर्य का राज्य खत्म होता है, उस पश्चिम दिशा का छोर। महाभारत में कहा गया है कि सह्याद्रि की तलहटी में स्थित इस संकरे तटीय प्रदेश कोंकण की भूमि को भगवान परशुराम ने बाण मारकर, समुद्र को पीछे हटा कर निर्मित किया था। इस संदर्भ में म. स. पारखे का कहना है, “परशुराम द्वारा सागर से अर्जित भूमि को ‘अपरांत’ कहा जाता है।” यह तटीय प्रदेश सह्याद्रि के पश्चिम में स्थित भरूच से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हुआ है। परशुराम ‘अपरांत’ के स्वामी नहीं अपितु निर्माता हैं। यह भूमि युद्ध में जीती हुई नहीं बल्कि सागर से अर्जित की गई है, अतः यह नया भू-प्रदेश है।
महाभारत में अपरांत को ही ‘शूर्पारक’ नाम दिया गया है। इसे दर्शाने वाला शांति पर्व का श्लोक निम्नलिखित है-
तत: शूर्पारकं देशं सागरस्तस्य निर्ममे ॥।66॥
सहसा जामदग्नस्य सोडपरांत महीतलय ॥1/2॥
अतः समुद्र ने जमदग्नि कुमार परशुराम जी के लिए, सहसा जगह खाली करके शूर्पारक देश का निर्माण किया जिसे अपरांत भूमि भी कहते हैं।
भारताचार्य चिंतामण बैस का कहना है- ‘शूर्पारक’ क्षेत्र अर्थात अपरांत। प्राचीन काल में शूर्पारक अथवा सोपारा बड़ा व्यापारिक बंदरगाह था। सोपारा के पूर्व में स्थित पर्वत और वज्रेश्वरी के पार्श्व में अभी भी वैतरणी नदी तथा परशुराम क्षेत्र स्थित हैं।
रविंद्र लाड कहते हैं- 230 ई. पू. से कोंकण पर सम्राट अशोक मौर्य की सत्ता थी। उन्होंने आगे लिखा है, महाभारत के युद्ध के पश्चात भारत भर में कई जनपद स्थानांतरित हुए। इनमें से यादवों के 18 कुल पांचाल, मालव, शाकत, सौधेय, मौर्य, कोलीय, लिच्छवी, मल्ल, भोज, रट्टीम आदि में से मुख्यतः मौर्य, कोलीम (कोली), रट्टीम (राष्ट्रीक-रथिक), यदु, भोज आदि अपरांत कोंकण के तटीय प्रदेश में बस गए। बौद्ध कालखंड यानी 500 ई. पू. एवं सम्राट अशोक की राजाज्ञा से लिखित शिलालेख के साक्ष्य के अनुसार इतिहास का प्रारम्भ होता है।
इस संशोधन से इतना तो निश्चित किया जा सकता है कि कोंकण तटीय प्रदेश में पहले गौतम बुद्ध नालासोपारा यानी शूर्पारक बंदरगाह में आए थे। सम्राट अशोक मौर्य का कालखंड 300-250 ई. पू. तक का माना जाता है। उनकी राजाज्ञा का शिलालेख सोपारा में प्राप्त हुआ है।
अशोक द्वारा दिए गए आज्ञा पत्र के संदर्भ में वा. कृ. भावे लिखते हैं- सांची की तुलना में, महाराष्ट्र के अत्यंत निकट का शिलालेख सोपारा का है- वसई के निकट सोपारा एक छोटा सा गांव है जिस का संस्कृत नाम शूर्पारक है। दो पर्वत-श्रृंखलाओं के बीच में स्थित होने तथा तीसरी ओर खाड़ी से घिरा होने के कारण, इस प्रदेश का आकार सूप जैसा हो गया है। हाल ही में यहां पुरातत्व विभाग ने एक अशोककालीन स्तूप खोदकर निकाला है जिसका घेरा 275 फुट तथा ऊंचाई 100 फुट है। मुंबई क्षेत्र में इतने विस्तृत घेरे वाला यह पहला स्तूप है।
उस प्राचीन समय में सोपारा, बौद्ध धर्म के वैश्विक प्रचार केंद्र के रूप में उभरा था। सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए दक्षिण-पूर्व एशिया में भेजे गए भिक्खुओं में उसका अपना बेटा महेंद्र भी शामिल था। उसने सिंहल यानी श्रीलंका देश की दिशा में जिस यात्रा की शुरुआत की थी, उसका आरम्भ शूर्पारक से ही हुआ था।
मुंबई ‘सकाल’ के अपने लेख में संदीप पंडित ने लिखा है कि, शालिवाहन से सम्राट अशोक मौर्य, सातवाहन, शक, सेमप, नहापण, मैकूटक, वाकाटक, कलचुरी, कोंकणी मौर्य, चालुक्य, राष्ट्रकूट, शिलाहार, यादव जैसे घरानों के सम्राटों ने वसई नगरी यानी अपरांत/कोंकण पर राज्य किया था।
जयंत धुलप ने कहा है कि इसके अतिरिक्त बहामनी, गुजरात के सुल्तान, अहमदनगर के निजाम, पुर्तगालियों, सऊदी, मराठों, मुगलों, तथा अंग्रेजों ने भी यहां राज किया है।
इस भूमि पर 220 ई. पू. के मध्य में ‘सिमुक’ के राज्यारोहण से लेकर अंतिम 30 वें राजा पुलावामी के शासनकाल तक 172-188 ई. अथवा 210-218 ई. तक लगभग 400 से भी अधिक वर्षों तक सातवाहन वंश का शासन था।
गौतमीपुत्र श्रीमश शातकर्णी के शिलालेख और उनके ताम्बे के सिक्के, ठाणे जिले (वर्तमान पालघर जिला) के सोपारा तथा काठियावाड़ के अमरेली में पाए गए हैं।
सातवाहन युग में भरूच, भृगकच्छ, कल्याण-कलियान, सोपारा-शूर्पारक जैसे बंदरगाहों से बड़ी मात्रा में व्यापारिक लेनदेन होता था।
दक्षिण में कृष्णा नदी से लेकर उत्तर में मालवा एवं काठियावाड़ तक तथा पूर्व में वर्हाड़ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर, गौतमीपुत्र (सातकर्णी) का राज्य था।
डॉ. दाऊद दलवी कहते हैं – सातवाहन काल में कोंकण में कई बंदरगाह विकसित हुए जिनमें से शूर्पारक (सोपारा), कालीअण (कल्याण), वस्य (वसई), चेमुला (चोल), मादोड़ एवं वैजयंता बंदरगाहों से ग्रीक, रोम, मिस्र, अफ्रीका, पूर्वी एवं उत्तरी तटों के बंदरगाहों से व्यापार होता था।
शिलाहार के शासन के बाद बिम्ब राजवंश ने मुंबई एवं उसके आसपास के क्षेत्र यानी कोंकण पर राज्य किया। इसका वृत्तांत महिकावती के दरबार में हुआ है। गुजरात के चम्पानेर के राजा प्रतापबिम्ब ने केलवे, माहिम, मरोल, मुंबई द्वीप पर राज्य स्थापित किया। इसके अतिरिक्त पैठण नगरी के कई सोमवंशी क्षत्रिय परिवार, व्यापारी, सामवेदीय ब्राह्मण आचार्यों के परिवारों ने स्थलांतरण किया।
1533 ई. तक ठाणे और उसके आसपास के क्षेत्र गुजरात के बहादुरशाह के अधिकार में थे। बहादुर शाह ने पुर्तगालियों द्वारा मालिक तू धान को पराजित करने तथा उत्तर दिशा से हुमायूं के हमले के डर से मुंबई, वसई, शीव तथा चौल पुर्तगालियों को दे दिया। 1533-1537 ई. की 200 वर्षों की अवधि में, पुर्तगालियों द्वारा धर्म प्रसार के नाम पर किए जा रहे अराजकतापूर्ण शासन के कारण ठाणे (यानी उसके आसपास का क्षेत्र) का अस्तित्व तो लगभग समाप्त हो गया था।
पुर्तगालियों ने कोंकण यानी ठाणे-पालघर जिले की हिंदू प्रजा पर जोर-जबरदस्ती कर बहुत जुल्म ढाए। भीषण कर लादकर उनका आर्थिक शोषण भी किया गया। धर्म परिवर्तन के लिए जोर जबरदस्ती की गई। इससे हिंदू जनता त्रस्त हो गई। बाजीराव प्रथम ने उन्हें अत्याचारों से मुक्त कराने तथा पुर्तगालियों को पराजित करने अपने भाई चिमाजी अप्पा को भेजा। 1738/39 में चिमाजी अप्पा ने वसई के किले पर विजय प्राप्त कर ली। चिमाजी अप्पा के इस अभियान में अन्य कई महत्वपूर्ण किले भी मराठाओं के अधिकार में आ गए। इनमें से 9 जनवरी 1738/1739 को माहिम किला, 11-15 जनवरी 1738/1739 को शिरगांव किला, 1738/1739 में केलवे तथा डहाणू किला, 24 जनवरी 1738/1739 को तारापुर किला, 28 जनवरी 1737 को मनोर किला, 1737 में तांदुलवाड़ी किला यानी इनमें से कई किले 1738/1739 के पूर्व ही स्वराज्य में सम्मिलित हो गए थे। इस तरह ठाणे-पालघर जिलों में पुर्तगालियों की सत्ता दमन हो गया।
– लक्ष्मण राव टोपले
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