भारत में स्कूली शिक्षकों की नितांत कमी है। ऐसे में निजी विद्यालयों के प्रबंधक कम मानक के शिक्षकों को रखकर, शिक्षा की गुणवत्ता की बजाय अपनी तिजोरी भरने की भावना के तहत कार्य कर रहे हैं। इस पर रोक लगाना आवश्यक है।
भारत के लिए यूनेस्को की हालिया शिक्षा रिपोर्ट 2020 में पाया गया कि भारत में निजी और सरकारी क्षेत्रों में 42 प्रतिशत शिक्षक बिना अनुबंध के काम कर रहे थे और प्रति माह 10,000 रुपये से कम कमा रहे थे। कई सर्वेक्षण रिपोर्टों ने सुझाव दिया है कि शिक्षक किसी भी अन्य सामान्य कार्यबल की तुलना में अत्यधिक तनाव का अनुभव कर रहे हैं। कई शिक्षकों ने खुले तौर पर स्वीकार किया है कि निजी स्कूलों के प्रबंधकों की मनमानी एवं शोषण के कारण उनका मानसिक स्वास्थ्य अच्छा नहीं है। जब आप भावनात्मक रूप से फिट नहीं होते हैं तो दबाव में काम करना परेशानी बढ़ा सकता है। इसी कारण शिक्षक अपने पेशे को छोड़कर दूसरे क्षेत्रों में पलायन कर रहे हैं। आज उन्नत, परिपक्व एवं कार्यदक्ष शिक्षकों की कमी का बड़ा कारण शिक्षकों को उचित वेतन एवं परिपूर्ण वेतन न मिलना है।
एक शिक्षक बनना उन लोगों के लिए सबसे सुखद भूमिकाओं में से एक हो सकता है जो इसे पूरे जुनून के साथ प्यार करते हैं। दिल से सिखाना भूमिका में सर्वश्रेष्ठ देने की कुंजी है। लेकिन एक बार जब आप इसे एक और करियर या 8 घंटे की नौकरी के रूप में देखना शुरू करते हैं, तो सामान्य दिनचर्या की बोरियत आपको परेशान करने वाली है। यह एक प्रमुख कारण है कि शिक्षक अपनी नौकरी बीच में ही छोड़ रहे हैं। प्रशासनिक कार्यों का अम्बार, कम भुगतान किए जाने, कम महत्व दिए जाने और अनादर की भावना उनके मन और शरीर पर भारी पड़ सकती है।
कुछ प्राइवेट स्कूलों के द्वारा लंच के समय भी टीचरों को परेशान करने की व्यवस्था बनाई गई है। वह मनमाने ढंग से टीचरों को लंच टाइम में तमाम ऐसे काम सौंप देते हैं जिसको करने के कारण सही समय पर शिक्षक को खाना भी नसीब नहीं हो पाता। प्राइवेट स्कूलों में काम कर रहे अधिकांश शिक्षकों को ना तो महंगाई भत्ता मिलता है और ना ही किसी भी प्रकार के चिकित्सा और पीएफ जैसी अन्य सुविधा न्यूनतम वेतन दिए जाने जैसे नियमों को भी ताक पर रखकर तमाम तरीके से प्राइवेट संस्थानों और स्कूलों में काम कर रहे शिक्षकों का शोषण किया जाता है।
किसी भी बात पर बिना कारण बताये शिक्षक को बीच सेशन में ही स्कूल से निकाल दिया जाता है। कुछ जगह स्कूल मैनेजमेंट और प्रिंसिपल के रिश्तेदार और चमचों को कम योग्यता होने के बावजूद भी बड़ी-बड़ी क्लासों में शिक्षा का कार्यभार दे दिया जाता है जबकि योग्य और अनुभवी शिक्षकों से छोटी-छोटी एल.के.जी. और यू.के.जी. जैसी क्लासें पढ़वाई जाती हैं ताकि उस अनुभवी और योग्य शिक्षक को कम सैलरी दी जा सके और उसके आत्मबल को तोड़कर उसे हमेशा के लिए उस प्राइवेट स्कूल में गुलाम बनाकर रखा जा सके।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू होने एवं तरह-तरह के कानूनों के प्रावधानों के बावजूद आजादी का अमृत महोत्सव मना चुके राष्ट्र के शिक्षा-मंदिर बच्चों का सर्वांगीण विकास करने की बजाय उन्हें कमाऊ-धन कमाने की मशीन बना रहे हैं। स्कूल बच्चों को संस्कारी बनाने की बजाय उन पर हिंसा करने, पिटने, सजा देने के अखाड़े बने हुए हैं, जहां शिक्षक अपनी मानसिक दुर्बलता एवं कुंठा की वजह से बच्चों के प्रति बर्बरता की हदें लांघ रहे हैं, वहीं निजी शिक्षण संस्थाएं इन शिक्षकों का तरह-तरह से शोषण करके उन्हें कुंठित बना रही हैं।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित होने के बावजूद शिक्षा की विसंगतियां एवं विडम्बनाएं दूर होती हुई दिखाई नहीं दे रही हैं। आज के निजी विद्यालय अपने शिक्षकों को उचित वेतन एवं प्रोत्साहन नहीं देते। अपने आर्थिक लाभ के लिये निजी स्कूल शिक्षकों को वास्तविक वेतन कुछ और देते हैं और पूरे वेतन के वाउचर पर हस्ताक्षर लेते हैं, यह शिक्षा के मंदिरों से जुड़ी अनैतिकता का बड़ा उदाहरण है। दूसरी ओर अपने निजी लाभ के लिये शिक्षक छात्रों के परीक्षा परिणामों से छेड़छाड़ करने, कक्षाओं में छात्रों के साथ भेदभाव करने, उनको बेवजह सजा देने का दुस्साहस भी करते हैं ताकि छात्र उन शिक्षकों से ट्यूशन लेने को विवश हो सकें।
शिक्षक का पेशा पवित्रतम एवं आदर्श माना जाता है। यह इसलिए भी कि शिक्षक के माध्यम से ही बच्चों के भविष्य की नींव तैयार होती है। यह नींव ही उनके भविष्य को मजबूत बनाने एवं राष्ट्र को उन्नत नागरिक देने का काम करती है। लेकिन जब इस पवित्र पेशे की गरिमा को आघात पहुंचाने का काम लोभी प्रवृत्ति के शिक्षण-संस्थान करते हैं तो शिक्षा की संवेदनशीलता, जिम्मेदारी एवं समर्पण के गायब होते भाव पर चिंता होना स्वाभाविक है। शिक्षा को नफा-नुकसान के नजरिए से देखने के मामले नये नहीं हैं।
देश भर में निजी स्कूलों के शिक्षकों का काफी शोषण किया जाता है। शोचनीय यह है कि जिन अध्यापकों की वजह से ये स्कूल चलते हैं, उन्हें वेतन काफी कम मिलता है, जबकि वे अपनी पूरी जिंदगी उस स्कूल को संवारने में लगा देते हैं। खासतौर से शिक्षिकाओं की मजबूरी का खूब फायदा उठाया जाता है। शहर में संचालित छोटे-बड़े निजी स्कूल प्रबंधन द्वारा अपनी उन्नति व सुख सुविधा के लिए शिक्षा को व्यवसायिक रूप दिया जा रहा है। जिस कारण निजी विद्यालय दिन प्रतिदिन शिक्षक व अभिभावकों के आर्थिक शोषण का केंद्र बन गया है।
सरकारी विद्यालयों की चरमराती शैक्षणिक व्यवस्था से आहत अभिभावकों के सामने अपने बच्चों को बेहतर तालीम देने की समस्या खड़ी होती जा रही है। वहीं निजी स्कूल प्रबंधन अपनी व्यवस्था की चमक-दमक से अभिभावकों को अपनी ओर आकर्षित करने में लगा है। ऐसे स्कूलों में बच्चों के नामांकन के बाद अभिभावक परेशान है। कई पीड़ित अभिभावकों ने कहा कि नामांकन के समय जो स्कूल प्रबंधन द्वारा सब्जबाग दिखाया जाता है, उस हिसाब से न तो शैक्षणिक व्यवस्था है और सुविधा। प्रतिवर्ष मनमाने ढंग से विविध शुल्कों में वृद्धि कर दी जाती है। अभिभावकों की शिकायत को प्रबंधन द्वारा नहीं सुनी जाती है उल्टे बच्चे को स्कूल से बाहर कर दिए जाने का अल्टीमेटम दे दिया जाता है।
एक अभिभावक ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा कि, शुल्क वृद्धि के बाद भी स्कूलों की व्यवस्था में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं देता है। ऐसे छोटे-बड़े निजी स्कूलों में कार्यरत शिक्षक व अन्य कर्मियों ने दबी जुबान में कहा कि बच्चों का शुल्क तो प्रतिवर्ष बढ़ा दिया जाता है पर हम लोगों के पगार में मामूली वृद्धि भी नहीं की जाती है। समाज के संवेदनशील लोगों की मानेें तो निजी शिक्षण संस्थान धीरे-धीरे अपने मकसद से भटकते जा रहे हैं। उनके विकास को लेकर प्रबंधन को कोई चिंता नहीं है।
यह सुनिश्चित करना भी जरूरी होगा कि स्कूलों में पढ़ाई पूरी व गुणवत्तापूर्ण हो, प्रभावी एवं सहज हो ताकि लोभ, ट्यूशन, शोषण, बर्बरता एवं हिंसक व्यवहार की जरूरत न हो। सरकारी व निजी स्कूलों के आर्थिक प्रलोभनों, शिक्षकों में ट्यूशन की दुष्प्रवृत्ति एवं सजा देने पर अंकुश भी रखना होगा। छात्रों से ज्यादा जरूरी है शिक्षकों का चरित्र विकास और शिक्षण-संस्थानों को भारतीयाता के सांचे में ढालने की। तभी नये भारत एवं सशक्त भारत की ओर बढ़ते देश की शिक्षा अधिक कारगर एवं प्रभावी होगी। उसके लिये शिक्षा-क्रांति से ज्यादा शिक्षक-क्रांति एवं व्यावसायिक होती शिक्षा को नियंत्रित करने की जरूरत है।
ललित गर्ग