भारतीय संस्कृति में शक्ति के साथ आचरण की सम्पन्नता पर भी विशेष जोर दिया जाता है। इसीलिए भारतीय संस्कृति सम्पूर्ण विश्व में अनुपम एवं बेजोड़ है। वर्तमान भारत सम्पूर्ण विश्व को मानवता का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार है तथा विश्वगुरु बनने की राह पर है।
विजय की कामना मनुष्य मन का स्वाभाविक लक्षण है। मनुष्य जीवन का इतिहास उसकी छोटी-बड़ी विजयों की कहानियों से ही बनता है। युद्धभूमि में शत्रु सेना को परास्त कर जो विजय प्राप्त की जाती है, वह विजय का सबसे चटख रंग है। लेकिन अपने दैनंदिन जीवन में हम प्रत्येक कर्म का मनचाहा फल प्राप्त कर जो आत्मिक संतोष और आनंद पाते हैं उसमें भी हमें विजय की अनुभूति होती है।
विजय छोटी हो या बड़ी, दोनों के लिए शक्ति और शौर्य की आवश्यकता होती है। विजय, वस्तुतः शक्ति और शौर्य का परिणाम है। जीवन में हमें केवल बाहरी शत्रुओं से ही नहीं लड़ना पड़ता है, बल्कि अपने मन में छिपे ईर्ष्या, द्वेष, हिंसा, झूठ, पाखंड जैसे आतंरिक शत्रुओं पर भी विजय प्राप्त करनी पड़ती है। बाहरी शत्रुओं से अस्त्र-शस्त्रों से लड़ा जा सकता है, जबकि आतंरिक शत्रुओं से लड़ने के लिए आत्मिक बल की आवश्यकता होती है। इसीलिए, भारत में केवल रणवीर ही नहीं, धर्मवीर, दानवीर, और कर्मवीर भी होते हैं।
शौर्य भारतीय आत्मा का स्थायी भाव और बाहरी तथा भीतरी शत्रुओं पर निरंतर विजय प्राप्त करते हुए जीवन को उच्चतम स्तर पर स्थापित करना चरम पुरुषार्थ है। भारतीयता के इसी भाव और पुरुषार्थ का प्रतीक है ‘विजय-दशमी’ का त्यौहार। विजय दशमी का त्यौहार राक्षसराज रावण पर प्रभु श्रीराम की विजय के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। लेकिन, भारतीय जनमानस इसे बुराई पर भलाई की जीत के रूप में देखता है। उदात्त चरित्रों व घटनाओं को भाव रूप में परिणत कर, अंतस में सदा-सदा के लिए धारण कर लेना और अपने तीज-त्यौहारों में उनका प्राकट्य करते रहना, यह भारतीय जीवन की विलक्षण परम्परा है।
विजय दशमी पर विजया नाम की देवी और शस्त्र पूजा का विधान है। जैसे, प्रत्येक पूजा का एक शास्त्रीय नियम है, वैसे ही शस्त्र पूजा का एक निश्चित मुहूर्त, मंत्र, संकल्प, विधि और उपचार है। हमारे शास्त्रों का निर्देश है कि तप से प्राप्त दैवीय शक्तियों का उपयोग विश्व के कल्याण के लिए किया जाना चाहिए। शस्त्रों में भी देवी शक्ति का वास माना गया है। अतः उनका प्रयोग भी आत्म और पर-रक्षा के इतर वर्जित है। यह भारतीय ऋषि का अनूठा चिंतन है जो विश्व में अन्यत्र दुर्लभ है।
शास्त्र और शस्त्र की शक्ति को विश्व कल्याण में नियोजित करने का यह दर्शन हमारे मिथहास की एक गाथा में सुरक्षित है। कहते हैं, राजतिलक के दिन गुरु वशिष्ठ ने राम को अपने पास बुलाकर कहा, राम! राज सिंहासन पर बैठने से पूर्व तुम्हें विष्णु बनने का संकल्प लेना होगा। राम ने वशिष्ठ से पूछा इसके लिए मुझे क्या करना होगा तो वशिष्ठ ने कहा, तुम्हें विष्णु के चारों प्रतीकों को अपनी आत्मा में धारण करना होगा। विष्णु के हाथों में चार प्रतीक हैं – पद्म (कमल के फूल के आकर का एक अस्त्र) अर्थात स्वयं की शक्ति, स्वयं का व्यक्तित्व और स्वयं का आचरण। यह प्रतीक राजा के आचरण का भी होता है और प्रजा के आचरण का भी होता है। गदा- यह शस्त्र बहादुरी का प्रतीक है। सिर्फ शारीरिक बल का नहीं, आत्मिक बल का भी। इसी शस्त्र से बाहर के शत्रु को भी पराजित करना होता है और भीतर के झूठ, जुर्म और हर तरह की हिंसा जैसे शत्रु को भी मात देनी होती है। चक्र- सभ्यता, संस्कृति जिसमें हर तरह की कला सम्मिलित होती है। खेती-बाड़ी और व्यापार का कौशल भी, नए आविष्कार की विद्या भी और अपने आचरण का, सदाचार का ज्ञान भी। शंख – यह चिंतन की आवाज है, अंतरात्मा की ध्वनि है। यह इसलिए बजाया जाता है कि हमारी आत्मा का सूक्ष्म संगीत चारों दिशाओं में फैल जाए। इसकी आवाज में राजा की आवाज भी शामिल होनी चाहिए और प्रजा की भी।
इस गाथा में अस्त्र-शस्त्रों के उपयोग में लोक-सम्मति पर बार-बार जोर दिया गया है। प्रजा भी राजा से, केवल अहं की तुष्टि के लिए शस्त्र-बल का अनुचित और अकारण प्रयोग करने की मांग न करे इसलिए राजा का कर्तव्य है कि वह प्रजा के विचार और आचरण की शुद्धता के लिए अपने राज्य में समुचित व्यवस्था रखे।
रावण ने अपनी सोने की लंका में सब तरह की उन्नति कर ली तो उसने कुक्कुट मुनि को लंका की समृद्धि और उपलब्धियां देखने के लिए आमंत्रित किया। रावण के अत्यधिक आग्रह पर कुक्कुट मुनि लंका पधारने को राजी हो गये। रावण ने कुक्कुट मुनि को पहले दिन लंका की विशाल आयुधशाला दिखाई जहां बड़े-बड़े घातक हत्यारों का निर्माण किया जा रहा था। दूसरे दिन रावण ने मुनि को अपनी प्रयोगशाला दिखाई जहां पवन, वायु, आकाश, जल, अग्नि और पृथ्वी के देवताओं को बंधक बनकर रखा गया था और उन तत्वों पर विविध प्रयोग और अन्वेषण किए जा रहे थे। तीसरे दिन रावण मुनि को लंका की मल्लशाला दिखाने ले गया जहां हजारों विशालकाय राक्षस वीर शारीरिक बल बढ़ाने के लिए बहुत प्रकार के व्यायाम कर रहे थे। चौथे दिन रावण ने लंका की औषधिशाला दिखाई जहां राक्षस सेना के लिए विभिन्न बल-वर्धक औषधियां बनाई जा रही थीं। यह सब देखते हुए कुक्कुट मुनि प्रायः मौन ही रहे तो पांचवे दिन रावण ने लंका की उपलब्धियों पर कुक्कुट मुनि की सम्मति चाही। कुक्कुट मुनि ने रावण से कहा कि तुम्हारी लंका अपनी सभी शालाओं सहित बहुत शीघ्र नष्ट हो जाएगी क्योंकि तुमने लंका में कोई आचरणशाला नहीं बनाई है।
समय के गहरे अंधेरे के बावजूद शक्ति संचय और उसके उपयोग का कुक्कुट मुनि का यह रहस्य भारतीय चिंतन ने अभी तक संजोकर रखा है, और उसी चिंतन को भारत आज जिस लगन और निष्ठा से दुनिया को देना चाहता है उसका साक्षात्कार अभी-अभी नई दिल्ली में सम्पन्न हुए विश्व के सबसे धनी और शक्तिसम्पन्न बीस देशों के सम्मेलन जी-20 में हुआ है। ‘अर्थ-केंद्रित’ विश्व को ‘मानव-केंदित’ विचार दिशा में मोड़ देने का कार्य भारत ही कर सकता था। ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास और सबका प्रयास’ का उद्घोष विश्व मंच से करने का आत्मबल और साहस भारतीय चिंतन ही दे सकता है। विश्व-मित्र बनने का आवाहन करने वाले भारत को भला विश्वगुरु बनने से कौन रोक सकता है!