आगामी लोकसभा चुनावों के परिणाम यह तय करेंगे कि भारत की अमृत काल में प्रगति की दिशा क्या होगी। यह तो भविष्य के गर्भ में है कि भारत की जनता अपने भविष्य की बागडोर किसके हाथों में देना चाहती है, परंतु यह अवश्य समझ लेना चाहिए कि अल्पकालीन विषयों या चुनावी झांसों में न फंसते हुए दूरदृष्टि रखकर अपने मताधिकारों का प्रयोग करना होगा।
जिस ब्रिटिश संसदीय प्रणाली को भारत ने अपनी शासन व्यवस्था के लिए चुना है, उसकी विशेषताएं तो कई हैं, लेकिन कुछ कमियां भी हैं। शासक का चुनाव करते समय इस प्रणाली में आम जनता या मतदाता दीर्घकालिक महत्व के संदर्भ से अक्सर किनारा करके तात्कालिक मुद्दों से ज्यादा प्रभावित हो जाता है। भारतीय संविधान में कहीं भी शासन चलाने या चुनाव लड़ने के लिए राजनीतिक दल का जिक्र नहीं है। लेकिन यह स्थापित धारणा है कि राजनीतिक दल ही चुनाव लड़ते हैं और चुनावी विजय के पश्चात शासक वही बनते हैं। चूंकि मतदाता तात्कालिक चर्चित विषयों और मुद्दों के आधार पर ही राय बनाकर किसी दल विशेष या प्रत्याशी विशेष को अपना मत देता है। इसलिए राजनीतिक दल भी अक्सर उन्हीं मुद्दों को हवा देते हैं, जिनसे उस दल विशेष के पक्ष में मतदाता अपनी राय बना सके और उसे एवं उसके ही प्रत्याशियों को अपना वोट दे सके। मुद्दे उभारते समय देश, समाज और व्यवस्था को दीर्घकालिक महत्व प्रदान करने या फिर उन्हें बनाए-बचाए रखने वाले विषयों को राजनीतिक दल नजरंदाज कर देते हैं। वे ऐसे तात्कालिक मुद्दे उठाते हैं, जिनसे वोटरों को भावनाओं के ज्वार में डुबाया जा सके और उसके जरिए अपने पक्ष में वोटों की मजबूत फसल काटी जा सके। भले ही उन तत्कालिक मुद्दों से देश, समाज और व्यवस्था को कुछ दिनों, महीनों या साल बाद नुकसान क्यों ना उठाना पड़े।
अगली यानी 18वीं लोकसभा के चुनावों में अब कुछ ही महीने बाकी रह गए हैं। एक तरह से कहें तो आम चुनावों की उलटी गिनती शुरू हो गई है। कुछ ही महीने पहले आजादी का अमृत काल बीता है। आजादी की पचहत्तर साल की यात्रा पूरी हुई है। हालांकि अमृतकाल की ठंडी छांव अब भी हमारे समाज, हमारे मनोमस्तिष्क और राष्ट्रीय सोच पर प्रभावी है। इसलिए माना जा रहा है कि अगला आम चुनाव अमृतकाल का चुनाव होगा। चाहे व्यक्ति हो या राष्ट्र, उसके जीवन काल में अमृतकाल सही मायने में उत्साह का समय होता है, गरिमापूर्ण यात्रा को सहेजने और पलट-पलटकर उसे देखने-समझने और उसकी बुनियाद पर आगे की राहों के आशंकित कांटों को दूर करने या उनसे बचने का वक्त होता है। इसलिए अगले आम चुनावों को लेकर यह उम्मीद भी बेमानी नहीं है कि आम भारतीय मतदाता वोटिंग केंद्रों पर जाने के बाद राष्ट्र और स्वाधीन समाज की अमृत यात्रा की उपलब्धियों को जरूर ध्यान में रखेगा। लेकिन आशंका की वजह यह है कि मतदाता कई बार तात्कालिक मुद्दों में ही खो जाता है। बेशक उसके आधार पर वोटिंग के किंचित बाद ही वह पछताने लगता है।
अमृतकाल के चुनाव के दौरान देश हित चाहने वाली राजनीतिक विचारधारा के सामने सबसे बड़ी यही चुनौती होगी कि वह मतदाताओं को तात्कालिक मुद्दों के भ्रमजाल, राजनीतिक दलों की संकीर्ण मानसिकता के दुष्प्रभावों से कितना दूर रख पाता है। इसकी वजह अभी महज पंद्रह साल पहले 2004 में हुए चुनावों के नतीजे हैं। तत्कालीन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर देश को नए सिरे से खड़ा करने की कोशिश की, देश में सड़कों का जाल बिछाना शुरू किया, संचार क्रांति के मोर्चे पर बड़े काम किए, पोखरण के परमाणु परीक्षण के जरिए राष्ट्रीय विश्वास और गर्व को नए सिरे से स्थापित किया, स्वाधीन भारत में जम्मू-कश्मीर राज्य में पहला निष्पक्ष चुनाव कराया, पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का नए सिरे से हाथ बढ़ाया, बेशक पाकिस्तान की संकीर्ण मानसिकता ने उसका बेजा इस्तेमाल किया और करगिल रूपी विश्वासघात किया। वाजपेयी सरकार ने उस विश्वासघात का मुंहतोड़ जवाब दिया। अव्वल तो ऐसे में होना यह चाहिए था कि देश की जनता वाजपेयी के लिए उठ खड़ी होती, 2004 के आम चुनावों में वोटरों को वोटिंग मशीनों में सिर्फ वाजपेयी धुन ही गानी चाहिए थी, लेकिन हुआ ठीक उलट। इतिहास की ऐसी घटनाएं चौंकाती भी हैं, तो सचेत करने का जरिया भी बनती हैं। राष्ट्र का भला चाहने वाली ताकतों को इतिहास की ऐसी घटनाओं से सदा चौकन्ना रहना चाहिए। 2024 के चुनाव में राष्ट्रीयता की अलख जगाने वाली ताकतें अतीत के उदाहरणों के चलते चौकन्ना होंगी हीं, फिर भी उन्हें और सचेत रहना होगा। क्योंकि कोई ऐसा कारण नहीं दिख रहा कि अमृतकाल के चुनाव में राजनीतिक गलियारों से मतदाताओं को भ्रमित करने की कोशिशें नहीं होंगी। ये कोशिशें दिखने भी लगी हैं। अतीत में कम से कम दो मौकों, जम्मू-कश्मीर के लिए निर्धारित संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने की सफल कोशिश हो या फिर नागरिकता संशोधन कानून में बदलाव लाना हो, देश के बड़े वर्ग को कुछ राजनीतिक ताकतें भ्रमित करने में कामयाब रहीं। राजधानी दिल्ली कई दिनों तक जलती रही। भ्रमित करने की कोशिश तो देश में विकसित कोरोना वैक्सीन को लेकर भी हुई। यह बात और है कि आम लोगों ने भ्रम की बजाय कोरोना की महामारी के मद्देनजर खुद और अपने परिजनों की सेहत को लेकर वास्तविकता पर ज्यादा भरोसा किया अत: वह भ्रम टूट गया।
शासन चाहे जिसका भी हो, वह संपूर्ण रूप से रामराज नहीं होता। कुछ ऊंच-नीच हर बार संभव होते हैं। लेकिन अगर बड़ी गड़बड़ियां न हों, भ्रष्टाचार की बड़ी कहानियां ना हों तो वह शासन बेहतर ही माना जाता है। मौजूदा केंद्र सरकार इन अर्थों में पूर्व की कई सरकारों की तुलना में ज्यादा स्वच्छ, ज्यादा बेदाग और ज्यादा बेहतर है। यही वजह है कि अमृतकाल के चुनाव को लेकर उम्मीद की जा रही है कि जनता राष्ट्रीय धारा को एक मौका और देगी। मोटे तौर पर राष्ट्रीय परिदृश्य वैसा ही दिख रहा है, इसलिए उम्मीद तो की ही जा सकती है।
मौजूदा सरकार के खाते में भी कई उपलब्धियां हैं। वह कोरोना की विश्वव्यापी समस्या के बीच करीब एक अरब चालीस करोड़ की जनसंख्या को बचाने में कामयाब रही। आर्थिक मोर्चे पर देश को खड़ा रखने में सफल रही। महामारी के चलते विश्वव्यापी बंदी के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था को दुनिया की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने में भी सफल रही। भ्रष्टाचार के मोर्चे पर बड़ी कहानियां सामने नहीं आईं। इसलिए उसके लिए उम्मीद तो बनती है। नई संसद का बनना और उसका स्वाधीन देश के गौरव के रूप में स्थापित होना, लोकसभा और विधानसभा में महिला आरक्षण की व्यवस्था की ओर ठोस कानूनी कदम बढ़ाना इस सरकार की उपलब्धियां हैं। इन्हीं दिनों वैभवशाली राममंदिर का निर्माण, वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे और उसमें हिंदू प्रतीकों के मिलने की कहानियां भी हुई हैं। इसी दौर में चंद्रयान का चंद्रमा पर सफलतापूर्वक उतरना, देश का वैश्विक अंतरिक्ष ताकत बनना, दुनिया में भारतीय विदेश नीति का सम्मान बढ़ना, ढेरों उपलब्धियां हैं। हां, कह सकते हैं कि मौजूदा केंद्र सत्ताधारी दल में स्थानीय स्तर पर चमत्कारी नेतृत्व कम दिख रहे हैं। कई बार मतदाता का अपने स्थानीय नेतृत्व पर भी कुछ संदर्भों में ज्यादा भरोसा होता है।
मौजूदा सत्ताधारी दल के लिए चुनावों में इस कमी की वजह से उपजने वाली समस्या के निदान के लिए भी उपाय ढूंढ़ना होगा। वैसे तो हर बार चुनावी मुद्दे सत्ताधारी दल और उसके कार्यक्रम तय करते हैं तो कई बार विपक्षी दल अपने मुद्दों से उसे दरकिनार कर देते हैं। लेकिन आम चुनावों को लेकर अब तक की राजनीतिक गतिविधियों की गति यही नजर आ रही है कि वह सत्ताधारी दल द्वारा तय मुद्दों पर ही चल रही है। हां, जाति जनगणना के विपक्षी मुद्दे ने इन दिनों अपनी धमक जरूर बनाई है। इसलिए यह कहना बेमानी होगा कि उसका असर नहीं पड़ेगा। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि अमृत काल के चुनाव के नतीजे महिला आरक्षण, जाति जनगणना, भ्रष्टाचार मुक्त शासन, तिरंगे की बढ़ती वैश्विक शान के मुद्दों पर निर्भर करेंगे। यह हमारा दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि अमृत काल तक की यात्रा में हमारा राजनीतिक विमर्श और चिंतन जाति और धर्म की धारा से बाहर नहीं निकल पाया है। इन अर्थों में कहें तो आगामी चुनावों पर इन मुद्दों का भी असर स्पष्ट रूप से नजर आएगा
– उमेश चतुर्वेदी