भारतीय उपमहाद्वीप में संस्कृति के चिन्ह

विश्वभर में जहां-जहां खनन का कार्य होता है, वहां-वहां भारतीय सभ्यता के प्रसार और विस्तार के चिन्ह मिलते हैं। भारतीय सभ्यता की प्राचीनता को जब वर्तमान से जोड़कर देखा जाता है तो हमें ज्ञात होता है कि विश्व के समस्त मानवों का उद्भव भारत से ही हुआ है।

भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी संस्कृति और शिल्पकला के प्रमाण समूचे एशिया महाद्वीप के अलावा अन्य द्वीपों में भी मिलते हैं। वेदों में भारत से बाहर स्थलों का उल्लेख कम होने के कारण ऐसी धारणा बना ली गई है, कि आर्य भारत में बाहर से आए और उन्होंने भारत पर राज किया। परंतु महाप्रलय की जो कथा हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलती है, वही गाथा भारत से बाहर लगभग सभी देशों में प्रचलित है। भारत में इस जल प्रलय के नायक मनु हैं। इसलिए ऐसा भी जान पड़ता है कि जिस कालख्ंड में यह प्रलय आया था, उन दिनों सभी लोगों के पूर्वज और प्राचीन आर्य एक ही स्थान पर रहते थे? देवासुर संग्राम की जो कथा हम पुराण व अन्य ग्रंथों में पढ़ते हैं, उसकी सच्चाई को जानने पर पता चलता है कि अंततः देव और असुर मूलतः भारत के ही थे और उन्हीं के बीच देवासुर संग्राम जैसा युद्ध हुआ था। उस समय भारत दक्षिण रूस से लेकर ईरान और अफगानिस्तान तक फैला हुआ था। इसीलिए पुराणों में वर्णित अनेक घटनाएं जो भगवान विष्णु की लीलाओं के रूप में प्रचलित हैं, वह इस पूरे भू-भाग में फैली दिखाई देती हैं। इसीलिए पृथ्वी के जिस भाग को आज हम एशिया कहते हैं, वह नाम ज्यादा पुराना नहीं है। भारतीयों के अतीत के इतिहास की प्रामाणिकता सिद्ध करने वाले वाल्मीकि रामायण और महाभारत में उल्लेखित है कि स्वयंभू मनु के पुत्र प्रियव्रत ने समग्र पृथ्वी को सात भागों में विभाजित कर दिया था, जिसे जम्बूद्वीप नाम दिया। इन सात भूखंडों को जम्बूद्वीप, प्लावश, पुष्कर, क्रोंच, शक, शाल्मली तथा कुश नाम दिए। जम्बूद्वीप अन्य द्वीप के केंद्र् में था और बड़ा भी था, इसलिए इस समूचे भूभाग को जम्बूद्वीप कहा जाने लगा। वर्तमान में यही एशिया है। एशिया नाम इस भूखंड को यूनानी नाविकों ने दिया। ग्रीक धातु ‘अशु’ का अर्थ होता है ‘सूर्योदय’। इन यूनानियों ने जम्बूद्वीप अर्थात वृहत्तर भारत वर्ष को पूर्व अर्थात सूर्योदय होने वाली दिशा में पाया और एशिया कहकर पुकारने लगे।

संपूर्ण एशिया अपने में एक इकाई है। इसके प्रायः सभी देशों के आचार, विचार, रहन-सहन, पूजा-पद्धतियां और धर्म में बहुत कुछ समानता है। धर्म इस युग में आचरण का पर्याय था। इसका आदि स्रोत भारत और यहां से गए वे लोग हैं, जो जम्बूद्वीप में जाकर बस गए थे। यही मूल भारतीय आर्य थे, जो न केवल एशिया बल्कि यूरोप भी पहुंचे थे। स्वामी दयानंद सरस्वती ने उस कालखंड के इस यूरोप को ‘हरिदेश’ कहा है। इन्हीं लोगों ने यहां भारतीय सभ्यता और संस्कृति के मूल्य स्थापित किए। ऐसा इसलिए भी हुआ, क्योंकि एक समय भारत की जनसंख्या बहुत अधिक बढ़ गई थी, इसलिए जो मूल भारतीय आर्य पलायन कर यहां पहुंचे थे, उन्होंने उपनिवेश स्थापित कर अपनी सत्ता भी स्थापित की। यहां बसने वाली सभी संतानें मनु-शतरूपा और ऋषी कश्यप और उनकी दो पत्नियों दिति एवं अदिति की थीं। इनमें अदिति की कोख से उत्पन्न संतानें देव कहलाईं जबकि दिति से पैदा संतानें असुर कहलाईं।

किंतु समय परिवर्तन और जलवायु की भिन्नता के चलते इन दूरांचलों में बसने वाले लोगों के वर्णों तथा शरीरजन्य कद-काठी में बदलाव आते गए। यातायात की कमियों के चलते इन लोगों का भारत आना कम हो गया। अंततः भारत के ये मूल निवासी उसी परिवेश की जलवायु में ढलते चले गए। रहन-सहन और वाणी में परिवर्तन आ जाने से ये प्रवासी भारतीय विदेशी माने जाने लगे। क्रिया लोप हो जाने से ही पौण्ड्र, औण्ड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, वल्लभ, किरात, दरद, खस आदि जातियां बन गईं। इन्हीं में से जो ज्यादा पथ-भृष्ट हो गए, उन्हें म्लेंच्छ कहा जाने लगा। किंतु इतिहास साक्षी है कि तत्पश्चात भी इन देशों से हमारे कौटुम्बिक और सांस्कृतिक संबंध बहुत लंबे समय तक बने रहे। इसीलिए वर्तमान में हम देख रहे हैं, जहां भी पुरातात्विक उत्खनन होते हैं, वहां हिंदू संस्कृति और सभ्यता के चिन्हों के साथ हिंदू देवी-देवताओं के मंदिरों के अवशेष भी मिल जाते हैं। अतएव हम कह सकते हैं कि जिन देशों के आज जो वर्तमान नाम हैं, उन्हीं के प्राचीन नाम संस्कृतनिष्ठ हैं। जैसे बर्मा ‘ब्रह्मदेश’, थाईलैंड ‘श्यामदेश’, इंडोचाइना ‘चंपा’, कम्बोडिया ‘कंबुज’। वर्तमान कंबोडिया वही देश है, जहां दुनिया का सबसे बड़ा हिंदू मंदिर अंगोरवाट है। मलाया ‘मलय’, जावा ‘यवद्वीप’, सुमात्रा ‘सुवर्णद्वीप’, बोर्निया ‘वरुणद्वीप’, बाली ‘बाली’, अफगानिस्तान ‘गांधार’, ईरान ‘आर्याना’, ईराक ‘सुमेरू’, टर्की ‘कपीदेश’, अरब ‘और्ब’ और सीलोन ’श्रीलंका’ हैं।

12 से 14 हजार वर्ष पहले देव व दानव प्राचीन आर्यावर्त में समन्वयपूर्वक साथ-साथ रहते थे। लेकिन राक्षसराज बलि से देवों का संघर्ष हुआ। जिसमें अंततः देव पराजित हुए। समूचे जम्बूद्वीप पर इस समय बलि का साम्राज्य स्थापित हो गया था। वामन विष्णु ने बड़ी चतुराई से बलि से देवों के लिए तीन डग भूमि दान में मांगकर उसके संपूर्ण राज्य को अपने नियंत्रण में ले लिया। आखिर में बलि को पाताल लोक अर्थात रसातल में रहने को वनचबद्धता के चलते विवश कर दिया। जबकि बलि के गुरु शुक्राचार्य ने वामन (विष्णु) को कोई भी वचन देने के लिए मना किया था। परंतु बलि ने वचन का पालन किया और बलि के साथ अनेक दानवों ने तो जम्बूद्वीप से पलायन किया ही शुक्राचार्य भी कर गए। शुक्राचार्य भृगवंशी थे, किंतु दानवों के गुरू होने के कारण उनके पुत्र असुर कहलाए।

शुक्राचार्य के पुत्रों के नाम शण्ड, मक्र और वरुत्री हैं। आज जिसे  डेनमार्क के नाम से जानते हैं, उसका प्राचीन नाम ‘दानवमक्र’ है। इसे मक्र ने बसाया था। शण्ड दानव ने स्केंडनीविया को बसाया। राजा बलि को पाताल लोक अर्थात रसातल भेजने का उल्लेख संस्कृत ग्रंथों में है। प्राचीन भारत में समुद्रतटीय जलमग्न दलदली भूमि को रसातलीय भूमि कहते थे। रसातल में जो ‘स’ शब्द है, उसका भी एक अर्थ जल होता है। पुराणों में अतल, सुतल, वितल, महातल, श्रीतल और पाताल नामों का देशों व क्षेत्रों के रूप में उल्लेख है। प्राचीन काल में यही देश पश्चिम एशिया, अरब, अफ्रीका और अमेरिका थे। अरबों की एक जाति उत्तरी मिश्र के ‘तल’ अमर्रान नामक स्थान में रहती थी। कालांतर में इसी तल क्षेत्र में तेल की बहुलता देखने में आई। ‘तेल’ तल शब्द का ही अपभ्रंश है। तुर्की में अनातोलिया, इजराइल और तेल अवीव तेल या तल के पर्यायवाची हैं। इन क्षेत्रों के अरब प्राचीन असुर व गंधर्व हैं। यही रसातलीय भूमि हिरण्याक्ष के भी आधिपत्य में रही है। विष्णु के दशावतारों में विष्णु के अवतार वराह के हाथों इसकी मृत्यु दिखाई हुई बताई है। हिरण्यकश्यप के पुत्रों में प्रहलाद भी पाताल, वितल लीबिया का अधिपति रहा है। प्रहलाद का अनुज अनुहलाद तारक और त्रिशिरा का शासक था। अफ्रीेका के त्रिपोली क्षेत्र में आज भी इन राजवंशों के अवशेष खुदाई में मिल जाते हैं।

मय दानवों के साक्ष्य कुछ वर्ष पहले मैक्सिको के होंडूरास  के वन में मिले हैं। पुराणों में मय दानवों को शुक्राचार्य का पुत्र बताया है। ये रसातल अर्थात पाताल के शासक थे। ‘सूर्य सिद्धांत’ पुस्तक में उल्लेख है कि कृतयुग के अंत में मय दानव ने शाल्मलि द्वीप में कठिन तपस्या की थी। इससे प्रसन्न होकर विवस्वान सूर्य ने मय को ग्रह-नक्षत्रों का ज्ञान दिया। यही ज्ञान मय दानवों के लिए ज्योतिष विज्ञान में दक्षता प्राप्त कर लेने का आधार बना। मय की बहन सरण्यू सूर्य की पत्नी थी। मय सभ्यता दुनिया की प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है। अमेरिका को इन्हीं मय दानवों ने बसाया था। मय दानवों को ही वास्तु कला का विषेशज्ञ विश्वकर्मा माना जाता है। रामायणकालीन लंका और महाभारत कालीन इंद्रप्रस्थ का निर्माण इन्हीं मय दानवों ने किया था। लंका सम्राट रावण आर्य ब्राह्मण ऋषि विश्रवा और अनार्य दैत्यवंशी कैकसी का वर्णसंकर पुत्र है। मय दनु की पुत्री मंदोदरी से रावण का विवाह हुआ था। अमेरिकी इतिहासकार मानते हैं कि पूर्वोत्तर होंडूरस के घने वनप्रांतर में मस्कीटिया क्षेत्र में हजारों साल पहले एक गुप्त शहर सियूदाद ब्लांका था। यहां के लोग एक विशाल वानर मूर्ति की पूजा करते थे। इस मूर्ति के हाथ में गदा थी। यहां एक फलती-फूलती सभ्यता प्रचलन में थी, किंतु यकायक सिंधु घाटी की मोहन-जोदड़ों सभ्यता की तरह विलोपित हो गई।

मस्कीटिया का यह ऐतिहासिक स्थल एक समय वैश्विक इतिहास में चर्चा का विषय रहा है। दरअसल इस स्थल की जैसी सरंचना देखने में आई है, उसका मानचित्र रामायण के एक प्रसंग की प्रतिलिपि जैसा है। इससे पता चलता है कि भारत और श्रीलंका की भूमि के नीचे पातालपुरी है, जहां पूरी एक बस्ती आबाद है। इस पुरी का उल्लेख लंकाकांड के रावण पुत्र अहिरावण द्वारा सोते में राम-लक्ष्मण के अपहरण प्रसंग से जुड़ा है। इस हरण की सूचना मिलने पर हनुमान राम-लक्ष्मण की मुक्ति के लिए एक सुरंग में चलकर पातालपुरी पहुंचते हैं और अहिरावण का वध करके राम-लक्षमण को मुक्त कराते हैं। इस मुक्ति के बाद राम ने पाताल लोक की सत्ता का स्वामी मकरध्वज को बना दिया था। तत्पश्चात यहां हनुमान के रूप में वानर मूर्ति की अर्चना होने लगी। इस पुरी की खोज की जानकारी अमेरिकी शोधार्थी शियोडोर ने एक पत्रिका में लेख लिखकर दी थी।

विवस्वान सूर्य और उनकी पत्नी सरण्यु से यम व यमी नामक जुड़वां संताने पैदा हुई थीं। यही यम मनु वैवस्त का अनुज है। सरण्यु दैत्य त्वष्ट्र विश्वकर्मा की पुत्री है। सवर्णा यम की सौतेली मां थी। सवर्णा ने एक दिन यम को पीट दिया। इस सौतेले बर्ताव के चलते यम भागकर अपने काका वरुण के पास मृत्युलोक चले गए। वरुण के कारण ही यही यम, यमराज कहलाया और मृत्युलोक का स्वामी बन गया। प्रलय के पहले इसी मृत्युलोक में वरुण ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी और सुषापुरी को राजधानी बनाया था। इसी मृत्युलोक को मृत्युसागर अर्थात अंग्रेजी में ‘डेड-सी’ कहा गया है। यही नरक माना जाता है।

विष्णु के दशावतारों में जिस वराह का उल्लेख है, उसने पृथ्वी को जल से उबारने में ब्रह्मा से मदद ली थी। वराह केतुमाल द्वीप के स्वामी थे, जो कोला पैनिन्सुला में था। यही कोला वराहवंशी हैं। केतुमाल द्वीप में आज भी वराह मूर्ति की पूजा होती है। मत्स्य पुराण में इसी वराह द्वारा पृथ्वी को दो भागों में बांटने का उल्लेख है।

अनेक शक क्षत्रप वराह की पूजा करते थे। इंग्लैंड, स्वीडन, नार्वे और स्केंडीनीविया में वराह वंश के अवशेष आज भी मिलते हैं। यूरोप के उत्तरी क्षेत्र में मिला कोला प्रदेश ही संस्कृत ग्रंथों में केतुमाल द्वीप है। अब यही कोला पैनिन्सुला कहलाता है। यह स्थान वेत सागर के ठीक ऊपर है। इसके नीचे की ओर कश्यप सागर के उत्तर पश्चिम में भूमि जल सतह से मामूली ऊंचाई पर है। इसका उत्तर-पूर्वी छोर बाल्टिक सागर को छू रहा है। यह भूमि समुद्र की सतह से मात्र छह सौ फीट ऊपर है। यहीं वराहों का राज्य रहा है। आज भी यहां पिग, बोर, हयो आदि वराहवाची शब्दों की भरमार है। अतएव दुनिया में जहां-जहां संस्कृति विस्तृत हुई, वहां-वहां आज भी इस संस्कृति को मूर्त रूप देने वाले चिन्ह अवशेषों के रूप में मिल जाते हैं।

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