नवरसप्रधान नृत्य

मनुष्य का सम्पूर्ण जीवन नवरसों की यात्रा है। इन नवरसों को नृत्य या अभिनय के माध्यम से प्रस्तुत करके दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ उनमें भी इन रसों की उत्पत्ति की जाती है। नृत्य में ये कार्य विशिष्ट भाव-भंगिमाओं के माध्यम से किए जाते हैं। यह आलेख उन्हीं भाव-भंगिमाओं का संक्षेप में वर्णन कर रहा है।

काव्य नाटय और नृत्य कलाओं के दर्शन, श्रवण आदि के द्वारा जिस अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है उसे सामान्यत: ‘रस’ कहते हैैं। नाट्य का तो सबसे प्रमुख तत्व ही रस माना गया है, नृत्य की बात करें तो भारतीय शास्त्रीय नृत्य दो भागो में विभाजित है। एक है शुद्ध नर्तन जिसके तीन भेद माने गये है नृत्त, नृत्य और नाट्य। नाट्य अर्थात अभिनय के द्वारा नर्तक अनेक रसों का निर्माण करता है। इसीलिये रस के बिना कोई भी नृत्य पूर्ण नहीं हो सकता।

जिस प्रकार मनुष्य अनेक व्यंजनों का भोजन करके उनके रसों का आस्वादन कर प्रसन्न होते हैं, वैसे ही नर्तक द्वारा निर्माण किये गये रसों का अनुभव करके दर्शक आनंदित होते हैं।

रस का सामान्य अर्थ है कोई तरल पदार्थ- जैसे फलों को निचोडकर बनाया गया रस अथवा कोई स्वाद जैसे शक्कर का मीठापन। परंतु नृत्य कला में नर्तक अपना नृत्य प्रस्तुत करते समय जो भाव रस निर्माण करता है वही अगर दर्शकों के मन में भी निर्माण होता है तो वही रस की निष्पत्ति है। रस का आनंद भौतिक नहीं दैवीय या अमूर्त स्वरूप का होता है।

विभाव, अनुभाव और संचारी भाव से निकल कर जो स्थायी भाव निर्माण होता है वही रस है। नौ स्थायी भावों से नवरसों का निर्माण होता है। नवरसों का परिचय:-

1) श्रृंगार रस

भरतमुनी के मतानुसार सम्पूर्ण विश्व में जो-जो पवित्र, सुंदर, उत्तम अथवा दर्शनीय है जिसके द्वारा दर्शकों के मन मे ‘रतिभाव’ निर्माण होता हो उस रस को ‘श्रृंगार रस’ कहते है। श्रृंगार रस को रसों का राजा कहते हैं। इस रस के देवता श्री कृष्ण भगवान माने जाते है। कहते है पृथ्वी पर नृत्य की रचना कृष्ण भगवान से ही हुई थी। इसीलिये भारत के प्रत्येक शास्त्रीय नृत्य में कृष्ण भगवान दिखाए जाते है और उनकी लीलाओं से श्रृंगार रस निर्माण किया जाता है। श्रृंगार रस के दो भेद हैं :- संयोग श्रृंगार, वियोग श्रृंगार।

भावमुद्रा- ‘श्रृंग’ का अर्थ है काम या प्रेम की उत्पत्ति और ‘आर’ का अर्थ है प्राप्त होना। जब नर्तक अथवा नर्तकी अपने नृत्य द्वारा नायक और नायिका के प्रेम का भाव दर्शाते हैं तब..

नायिका आंखो में अत्यंत प्रेम भाव और लज्जा दिखाते हुए नीचे की ओर देखती है। एक हाथ से कपित्य मुद्रा बनाकर घूंघट ओढने के भाव दिखाती है। वहीं नायक नायक प्रेम विमोर आंखों से नायिका को देखता है और दोनो हाथों की पताका मुद्रा बनाकर आलिंगन से नायिका के कांधे पर हाथ रखता है।

2) हास्य रस

जब किसी विचित्र पात्र, दृश्य अथवा क्रियाओं को देखकर हंसी आ जाती है उस रस भाव को ‘हास्य रस’ कहते हैं। शास्त्रीय नृत्य द्वारा यह रस निर्माण करना बहुत ही कठिन होता है। नाट्य में इसे शब्दों द्वारा या वेशभूषा द्वारा यह हास्य रस दिखाना फिर भी आसान है परंतु नृत्य द्वारा दिखाना अत्यंत कठिन है। हास्य रस के कुल 6 प्रकार है :1) स्मित हास्य 2) हसित 4) अवलसित 3) विकसित 4) अपलमित 6) अतिहसित। इस रस का ‘हंसना’ स्थायी भाव है।

भावमुद्रा:- हास्य रस की भावमुद्रा जब नर्तक बनाते हैं तब हास्य दिखाते हुए वह अपनी आंखे छोटी कर लेते हैं तथा कंधे ऊपर चढ़ा लेते हैं और होंठ फैलाकर दात दिखाकर हंसते है जिससे हास्य रस का भाव निर्मित होता है।

3) करुण रस

अपने इष्ट, प्रिय, वस्तु, ऐश्वर्य के विरह से या नष्ट होने से हृदय में जो भावना निर्माण होती है उसे ‘करुण रस’ कहते हैं। शोकाकुल होना इस रस का स्थायी भाव है, जैसे हरण के बाद सीता माता को कुटिया में ना देखकर प्रभु श्रीराम शोकाकुल हो गये थे।

बहुत अभ्यास करके नर्तक यह करुण रस की निर्मिती करते हैं। जैसे हनुमान जी द्वारा भेजी गई मुद्रिका को देखकर सीता मैय्या भावविभोर हो जाती हैं। इस दृष्य को अपने अभिनय द्वारा दर्शकों तक पहुंचा कर नर्तक करुण रस की निर्मिति करते हैं।

भावमुद्रा:- करुण रस दिखाते समय नृत्य कलाकार दुःख में डूबी हुई अपनी आंखे छोटी कर लेते है। पेट अंदर खींच लेते हैं। पताका

हस्त मुद्रा से आंखे पोछने का भाव दिखाते है तो कभी मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिरने का भाव दिखाकर करुण रस निर्माण करते हैं।

4) रौद्र रस

जहां प्रबल और भयंकर क्रोध की निर्मिति होती है वहा ‘रौद्र रस’ होता है। क्रोध से आग बबूला होना रौद्र रस का परिचायक है। मनुष्य, ऋषि-मुनी, राक्षस आदि सभी रौद्र रस के आश्रय स्थान हो सकते है क्योंकि इन सभी में कहीं न कहीं भयंकर क़्रोध होता है।

भगवान शंकर की पत्नी सती का अपने पिता के घर में अपमान होता है और उसके पति की अवहेलना होती है। इससे दुःखी होकर वह स्वयं को समाप्त कर देती है। इस घटना से भगवान शिवशंकर इतने दुःखी होते हैं कि उनका यह दुःख भयंकर क्रोध में परिवर्तित होता जाता है। वे उस स्थान पर पहुंचकर जो प्रचंड प्रलय निर्माण करते हैं, उससे जो भाव निर्माण होते है वो ‘रौद्र रस’ है।

भाव मुद्रा:- रौद्र रस में क्रोध भावना इतनी प्रबल होती है कि चेहरा भयंकर बन जाता है। आंखें बड़ी होती हैं और भृकुटियां ऊपर चढ जाती हैं। होठों को दबाकर गुस्से से देखा जाता है, गाल थरथराने लगते हैं। पैर जमीन पर पटक कर यह रौद्र रस निर्माण किया जाता है।

5) वीर रस

उत्साह की पूर्ण जागृत आवस्था से वीर रस उत्पन्न होता है। अहंकार से अलिप्त ऐसी शौर्यमय क्रियाएं जिससे मन में पराक्रम की रोशनी भर जाये वहां ‘वीर रस’ का जन्म होता है। वीर रस का स्थायी भाव उत्साह है। शत्रु, दुर्गम जगह, असाध्य कार्य अर्थात जो सहजता से  नहीं हो सकता, ऐसा कार्य, रणभूमि, कर्मभूमि, शत्रु की ललकार ये सारी बातें इसमें महत्वपूर्ण होती हैं। प्रभु श्रीरामचन्द्र को इस वीर रस का उदाहरण माना जाता है। रावण जैसे राक्षस के कैद से सीता माता को छुड़ाकर तथा रावण का वध करके प्रभु श्रीराम ने वीर रस की निर्मिती की। यह प्रसंग अनेक नृत्य कलाकार अपने एकल नृत्य द्वारा अथवा नृत्य नाटिका द्वारा दिखाकर दर्शकों के मन में वीर रस की निर्माण करते हैं। वीर रस के प्रचार प्रकार हैं- युद्धवीर, धर्मवीर, दयावीर, दानवीर।

भावमुद्रा- कोई साहसपूर्ण कठिन कार्य करते समय और वह कार्य पूर्ण करने के पश्चात चेहरे पर एक अलौकिक भाव प्रकट करते हुए आंखो में चमक लाना, कंधे तान कर खड़े रहना, भृकुटी को तानकर सामने देखना इन भाव मुद्राओं से वीर रस निर्मित होता है। इस रस में गर्व कम और हर्ष अर्थात आनंद अधिक दिखाई देता है।

6) भयानक रस

जब भय की भावना से तन-मन पूरी तरह से ग्रासित हो जाता है तो ‘भयानक रस’ की निर्मिति होती है। इसका स्थायी भाव ‘भय’ है। अनेक प्रकारों से मन में भयानक रस निर्माण होता है जैसे- निर्जन वन, स्मशान, भयंकर आवाजें इत्यादि। अपने ऊपर आने वाले संकट का एहसास होने से भी यह रस निर्माण होता है। वेष बदलकर आये हुए रावण ने जब अपना असली रूप दिखाया और माता सीता  का हरण किया तो माता सीता के मन में जो डर निर्माण हुआ, वहां भयानक रस की निर्मिती हुई। जब नर्तक प्रसंग दिखाते हैं तो रावण का भयानक रूप और सीता माता का भयभीत होना दर्शकों के मन में ‘भयानक रस’ की निर्मिति करता है।

भावमुद्रा:- कोई भयानक प्रसंग या वस्तु देखकर जो डर लगता है वह भाव चेहरे पर लाने के लिये मस्तक पर सिलवटें लाना,

आंखें डर से इधर-उधर घुमाना, गर्दन से कंपन दिखाना, कांधों को झुका लेना, पेट अंदर खींचना, हाथ थरथराते हुए गालों पर रखना इन भावमुद्राओं का प्रयोग कर भयानक रस निर्मित होता है।

7) वीभत्स रस

जहां घृणा और ग्लानि के भावों की पुष्टि होती है वहा ‘वीभत्स’ रस होता है। गंदी वस्तुओं को देखकर, गलिच्छ स्थानों को देखकर, घृणास्पद प्रसंगों को देखकर मन में जो भाव निर्माण होते हैं, उसे ‘विभित्स’ रस कहते हैं। जुगुप्सा इसका स्थायी भाव है।

सड़ी-गली दुर्गंध युक्त वस्तु, रुधिर, विष्ठा, घिनौनी वस्तु देखना,  गन्दगी का वर्णन सुनना, कचरे पर पडे कीटक, छिपकली देखना इन सबके विचार से ही मन मे जो भाव निर्माण होते है वो ‘विभित्स’ रस है। इस रस को दर्शाने के लिये गाढा अभ्यास करना पडता है।

भावमुद्रा- जब घृणित वस्तुओं को देखते हैं तब चेहरे पर जो विचित्र भाव आ जाते है जैसे नाक, भौंहें, गाल को सिकोडना, आंख छोटी करना, एक आंख छोटी करना, होटों को फैलाकर, जीभ बाहर निकालना, कंधे सिकोडना इन भावमुद्राओं से नर्तक प्रगल्भता से विभत्स रस दर्शकों तक पहुंचाते हैं।

8) अदभुत रस

कोई अचरज भरी अथवा अलौकिक घटना या दृष्य को देखने या सुनने से ‘अद्भुत’ रस की निर्मिती होती है। विस्मय इसका स्थायी भाव है। विचित्र वस्तु देखना, अलौकिक चरित्र, आश्चर्य में डालने वाली क्रिया, इच्छित वस्तु की अचानक प्राप्ति इत्यादी भावनाओं से ‘अदभुत’ रस की निर्मिती होती है।

इस रस की निर्मिती करने का उदाहरण भी कृष्ण भगवान को ही माना जा सकता है। बचपन से उन्होंने कई लीलाएं करके उद्भुत रस का निर्माण किया है। जैसे मैया को मुख में ब्रम्हांड दिखाना, पूतना वध करना, गोवर्धन पर्वत को छोटीसी उंगली पर उठाना, इत्यादि। ये सारी लीलाएं नर्तक अपने नृत्य द्वारा प्रस्तुत करके दर्शकों के मन में अद्भुत रस की निर्मिती करते हैं।

भावमुद्रा- जहां विस्मय है, वहां अद्भुत रस है। कोई अद्भुत प्रसंग देखकर आंखे बड़ी करके नीचे से उपर तक देखते जाना, भौंहों को धीरे धीरे फैलाते जाना, मुंह खोलना, इत्यादि भाव मुद्रा करके अद्भुत रस प्रकट करना नृत्य कलाकारों की विशेषता है।

9) शांत रस

सांसारिक राग-द्वेष, भौतिक लाभ-हानि आदि विचारों से दूर होकर मन जब शांत स्थिति में आता है तब ‘शांत रस’ की निर्मिती होती है। राम, निर्वेद इसका स्थायी भाव माना जाता है।

देवताओं की मूर्ति, गुरू, आत्म ज्ञान, सत्संग, पवित्र आश्रम, तीर्थ क्षेत्र इनको देखकर ‘शांत रस’ निर्माण होता है। आनंदाश्रु, बंद आंखें, प्रसन्न मुख, हर्ष, स्मरण, दया, प्रेम, यह सब इस रस की पहचान है। इसका उदाहरण भगवान बुद्ध को माना जाता है। राजा सिद्धार्थ जब पहली बार अपने महल से बाहर की दुनिया में आए तो उन्होंने पीड़ा देनेवाली ऐसी घटनाएं तथा दृष्य देखे, जिससे उन्हें जीवन का कटु सत्य समझ आया। मन पीडित हो उठा और वे संसार त्याग कर मानसिक शांती की खोज में निकल पड़े। कुछ समय पश्चात वे संन्यास लेकर लौटे और उन्होंने लोगों को शांती का मार्ग दिखाया और शांत रस निर्माण किया। यह प्रसंग नर्तक अपने नृत्य अभिनय द्वारा दर्शकों को दिखाकर एक शांत वातावरण निर्माण करते हैं।

भावमुद्रा- जहां मन में विरक्ति भाव उत्पन्न होते हैं, वहा शांत रस निर्माण होता है। जमीन पर सीधे बैठकर दोनों हाथों से अराल हस्तमुद्रा करके अपने पेट के पास रखकर, चेहरे पर शांत भाव लाकर आंखे बंद कर लेने से शांत रस की निर्मिति होती है।

नाट्य शास्त्र के अनुसार नाट्य कलाकारों को नवरस की शिक्षा लेना आवश्यक है ही, साथ ही नृत्य कलाकारों को भी अपने नृत्य को परिपूर्ण बनाने हेतु नवरसों का संपूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है।

इन नवरसों का अधिक अभ्यास और अथक प्रयत्न करने के पश्चात शास्त्रीय नृत्य कलाकार अपने अभिनय के द्वारा ये नवरस दर्शकों के मन में निर्माण कर सकते हैं।

          भावना लेले 

 

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