पोथी तुम कितनी गुणवती हो

साहित्य में अब पाठकों की रुचि नहीं रही यह मानकर अच्छा साहित्य लिखा जाना बंद नहीं हो जाना चाहिए। पाठकों की रुचि और उनके दिशादर्शन का ध्यान रखकर साहित्य का निर्माण करना साहित्यकारों का दायित्व है और साहित्यकारों की रचनाओं को उचित प्रतिसाद देना पाठकों का।

मार्गों को प्रमुखता प्राप्त है। ज्ञानी, विद्वान, अनुभवी और श्रेष्ठ जनों को सुनना पहला और उन्हें आत्मसात कर लेना सामान्य मार्ग है। दूसरा है स्वाध्याय का मार्ग। ग्रन्थों का अध्ययन करना और उसमें दी गयी ज्ञानराशि को धारण कर लेना। तीसरा मार्ग है स्वयं के अनुभव से ज्ञान प्राप्त करना। जीवन भर नित नवीन अनुभव प्राप्त होते रहते हैं। मनुष्य इन अनुभवों से सीखता रहता है। विद्वानों की संगति करके और अपने जीवन के अनुभव से ज्ञान प्राप्त करने का क्षेत्र बहुत सीमित है। जबकि पुस्तकों में संग्रहित विपुल ज्ञान सम्पदा अपार है, अनन्त है। विद्वानों ने पुरा काल से लेकर आज तक इतने ग्रंथ दिये हैं कि उनका अध्ययन करने में ही जीवन पूरा हो जायेगा। भारत वर्ष ऋषियों-मुनियों-तपस्वियों की भूमि है। कई हजार वर्षों से चली आ रही ज्ञान परम्परा की समृद्ध थाती हमें उनसे प्राप्त हुई है। यह थाती ग्रन्थों के रूप में है।

भारत वर्ष की अनेक अन्य भाषाओं की तरह हिन्दी में भी ऐसे ज्ञानकोश हैं, जिन्हें वर्षों पहले विद्वानों ने समाज को दिया। वे ग्रन्थों के रूप में हैं। सदियों से यह समाज इन ग्रन्थों से मार्गदर्शन प्राप्त करता चला आ रहा है। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित ‘रामायण’ कई हजार वर्षों से भारतीय मानस का पथ प्रदर्शक बना हुआ है। प्रभु श्रीराम के सम्पूर्ण जीवन और उनकी राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति, सामरिक नीति, राष्ट्रनीति और सबसे महत्वपूर्ण मानवीय मूल्यों की नीति का सूक्ष्म विश्लेषण करने वाला ऐसा ग्रन्थ उसके बाद नहीं रचा गया। भगवान श्रीराम के चरित्र का वर्णन प्रायः सभी भाषाओं और बोलियों में हुआ है, परन्तु जैसी प्रसिद्धि और लोकप्रियता तुलसीदास कृत ‘रामचरित मानस’ को मिली, वह सबके लिए दुर्लभ है। सम्पूर्ण हिन्दी भाषी भू-भाग में यह ग्रन्थ पवित्र पोथी के रूप में सिरजी गयी है। इसका नित्य पाठ होता है। सम्पूर्ण समाज इससे प्रेरणा प्राप्त करके धन्यता का अनुभव करता है।

रामायण और रामचरित मानस जैसा ही ग्रन्थ महर्षि वेदव्यास रचित ‘महाभारत’ है। यह भारत के शौर्य का शास्त्र है। तत्कालीन समाजजीवन का अद्वितीय ग्रन्थ है। इसी का एक अंश ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है, जो भगवान श्रीकृष्ण के श्रीमुख से प्रकट हुआ। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने भक्ति योग, ज्ञानयोग और कर्मयोग की ऐसी त्रिवेणी प्रवाहित की है, जिसमें अवगाहन करके मनुष्य देवत्व की ओर अग्रसर हो जाता है। वह देवतुल्य हो जाता है। राजनीति शास्त्र के रूप में सबसे ऊंची प्रतिष्ठित ‘विदुरनीति’ भी महाभारत का ही एक भाग है। एक आदर्श राजा कैसा होना चाहिए, यह विदुर नीति बताती है। समाज जीवन का सर्वश्रेष्ठ यह ग्रंथ महाभारत कई हजार वर्ष बीतने के बाद भी सार्थक बना हुआ है। आज भी सर्वश्रेष्ठ ग्रंथों की गणना में यह कनिष्ठिका पर ही आता है। यह सार्वकालिक और अद्वितीय ग्रंथ है।

जब भी ओजपूर्ण साहित्य की चर्चा होती है, तो ‘परमाल रासो’ का नाम बोलियों के महाकाव्य में सबसे पहले आता है। जगनिक ने इसकी रचना वीरगाथा काल में की थी। बुन्देलखण्डी बोली में लिखे गये इस महाकाव्य का एक अंश ‘आल्हखंड’ है। इसमें आल्हा-ऊदल नाम के दो भाइयों की वीरता और साहस एवं चतुराई का वर्णन बावन युद्धों के प्रसंग में किया गया है। बरसात के मौसम में जब पूरा भारतीय समाज चातुर्मास के कारण यात्राओं पर जाना स्थगित कर देता है, तब उत्तर भारत के गांवों की चौपालों में आल्हा का गायन होता है। वीरता भरे इस काव्य की लोकप्रियता बोली में लिखे गये सभी महाकाव्यों से ऊपर है। इसे पढ़ने से अधिक आनन्द सुनने में आता है। हिन्दी के कालजयी उपन्यासों में ‘चन्द्रकान्ता’ का उल्लेख सर्वप्रथम किया जाता है। देवकीनन्दन खत्री ने रहस्य, रोमांच और बुद्धिमत्ता, जादूगरी, ऐयारी का ऐसा सुन्दर ताना-बाना बुना है कि इसे पढ़ने के लिए लोग हिन्दी सीखते थे। इस समय इस ऐतिहासिक ग्रंथ का अनुवाद प्राय: सभी भाषाओं में उपलब्ध है। इसकी लोकप्रियता इसी से समझी जा सकती है कि सदियां बीत जाने पर भी पाठकों की संख्या और पुस्तक की बिक्री लगातार बढ़ती जा रही है।

ऐसा ही एक ग्रन्थ ‘पंचतन्त्र’ है। पंडित विष्णु शर्मा ने सामाजिक और पारिवारिक विषयों को पशु-पक्षियों की आपसी बातचीत और व्यवहार के माध्यम से सुलझाने हेतु गहरी सीख दी है। पंचतन्त्र की कहानियां किसी ने पढ़ी हों या न पढ़ी हों, परन्तु उसे दस-बीस कहानियां ज्ञात अवश्य होंगी। ऐसी लोकप्रियता इसे प्राप्त है। स्वतन्त्रता संग्राम के समय भारतीयों में ओज और उत्साह भरने के लिए मैथिलीशरण गुप्त जी ने भारत-भारती महाकाव्य की रचना की। इसमें उन्होंने देश के अतीत का गौरवशाली पक्ष, अंग्रेजी काल की दुर्दशा और भविष्य की उन्नति का सुन्दर चित्रण किया है। यह पुस्तक इतनी लोकप्रिय हुई कि अंग्रेजी शासकों ने इस पर प्रतिबन्ध लगाने का मन बना लिया। सभी पुस्तकों को खोज करके जब्त कर लिया गया। प्रशासनिक कार्यवाही शुरू हो गयी। परन्तु अंग्रेजों के कदम का विरोध होने लगा। इससे प्रतिबन्ध लगाने का विचार तो छोड़ना पड़ा, लेकिन दूसरा संस्करण स्वतन्त्रता मिलने पर छापा जा सका। आज भी इस ग्रन्थ को पाठकों और साहित्य प्रेमियों में बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसके साथ ही नील दर्पण (दीनबन्धु), ‘कीचक वध’ (कृ. प. खाडिलकर), ‘सोजे वतन’ (मुंशी प्रेमचन्द), ‘भारत में अंग्रेजीराज’ (पं सुन्दरलाल), ‘देशेर कथा’ (सखाराम देउसकर), ‘अग्निवीणा’ (काजी नजरूल इस्लाम), भगत सिंह (भवान सिंह राणा), ‘1857 का स्वतन्त्रता संग्राम’ (स्वा. सावरकर) आदि इतने लोकप्रिय ग्रंथ थे, जिन पर प्रतिबन्ध लगाया गया था। फिर भी लोग चोरी-छिपे खरीदकर अथवा किसी से मांग करके पढ़ते थे। मुंशी प्रेमचन्द का ‘गोदान’, जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’, धर्मवीर भारती का ‘गुनाहों का देवता, वृन्दावन लाल वर्मा का ‘मृगनयनी’, आचार्य चतुरसेन शास्त्री का ‘गढ़कुंडार’, ‘वैशाली की नगरवधु’, ‘वयं रक्षामः’ जैनेन्द्र की ‘दिव्या’, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की ‘संस्कृति के चार अध्याय’, पं. विद्यानिवास मिश्र की ‘मेरे राम का मुकुट भीग रहा है’, श्याम नारायण पाण्डेय की ‘हल्दीघाटी’, ‘जोहर’ इत्यादि शताधिक पुस्तकें हैं, जिनको अपार प्रशंसा और लोकप्रियता प्राप्त हुई। आगे भी मिलती रहेगी। ये कालजयी हैं। इन्हें हर कालखण्ड में लोकप्रियता मिलेगी ही।

भारत को स्वतंत्रता प्राप्त होने के साथ ही साहित्य में गहराई तक धंसी हुई औपनिवेशिक मानसिकता का उच्चाटन अत्यन्त आवश्यक था। सात-आठ सौ वर्षों के पराधीन और अवसादग्रस्त विचारों को जड़मूल से उखाड़ फेंककर नवीन, उत्साहजनक और प्रेरणा प्रदान करने वाला साहित्य समाज को देना चाहिए था। कारण कई थे, जिससे ऐसा पूरी तरह से नहीं हो सका। अत: सभी भाषाओं में ऐसा साहित्य लिखा जाने लगा जो भारत और भारतीयता से बहुत दूर था। उसमें भारतीय लोकमन की झलक तक नहीं थी। जो अध्यात्म भारत की आत्मा है, उसे साहित्य में कोई स्थान नहीं मिला। भारत की लोक संस्कृति की सउद्देश्य उपेक्षा और अनदेखी की गयी। ऐसी कहानियां, कविताएं, निबंध, उपन्यास और रिपोर्ताज लिखे गये, जिनमें भारतीय संस्कृति और इसके श्रेष्ठ जीवन मूल्यों को तिरस्कृत और कालवाह्य बताकर भौतिक भोगवादी और उन्मुक्त जीवन को प्रश्रेय देने वाली रचनाओं को बढ़ावा दिया गया। राष्ट्रवाद और संस्कृति जैसे विषय अप्रासंगिक और अनुपयोगी बताये गये। यह सब तीन-चार दशक तक चला। धीरे-धीरे गैर भारतीय विचार के साहित्य की वास्तविकता पाठकों की समझ में आने लगी और एक समय ऐसा भी आया, जब वर्ग विभाजक और भोगवादी साहित्य को पाठकों ने सिरे से नकारना शुरू कर दिया। उन्हें पढ़ना बन्द कर दिया। विदेशी धन पर पलने वाले साहित्यकारों की रचनाएं केवल सरकारी खरीदारी तक ही सीमित रह गयीं। पुस्तकालयों में रखी धूल फांकने लगीं। तब वे लेखक सारा दोषारोपण पाठकों पर ही करने लगे कि लोग अब पुस्तकें खरीदते और पढ़ते ही नहीं हैं। यह दोषारोपण सर्वथा अनुचित एवं असत्य था।

जिस समय गैर भारतीय विचारों के साहित्य को किनारे किया जा रहा था, उसी समय देश के पाठकों ने राष्ट्रवादी और जीवनमूल्यों की स्थापना करने वाली पुस्तकों को हाथों-हाथ लिया। जैनेन्द्र कुमार, सोहनलाल द्विवेदी, बांके बिहारी भटनागर, अक्षय कुमार जैन, रमानाथ त्रिपाठी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, गुरुदत्त, दयाकृष्ण विजयवर्गीय, जगदीश गुप्त, निर्मल वर्मा, फतह सिंह, कमल किशोर गोयनका, देवेन्द्र दीपक अज्ञेय, महादेवी वर्मा, जयशंकर प्रसाद, निराला, पंत, दिनकर, उमाशंकर जोशी, श्रीराम परिहार, नरेन्द्र कोहली, विद्याबिन्दु सिंह, मृदुला सिन्हा, शैवाल सत्यार्थी, नीरजा माधव, क्षमा कौल, जीत सिंह जीत, श्रीधर पराडकर, मालती जोशी इत्यादि शताधिक साहित्यकार भी थे, जिन्होंने न केवल अपने साहित्य से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया, अपितु सांस्कृतिक राष्ट्रवादी साहित्य को शिखर पर पहुंचाने में जुटे थे।

वर्तमान समय में भी जब वामपंथी लेखकों की पुस्तकों के दो सौ की संख्या वाले संस्करण निकलते हैं और पाठकों द्वारा बड़ी कोशिश के बाद दर्जन भर से अधिक नहीं खरीदी जातीं, उसी समय एल. एल. भैरप्पा का ‘आवरण’ क्षमा कौल का ‘दर्दपुर का सन्त’, ध्रुवदत्त भट्ट का ‘अकूपार’, मृदुला सिन्हा का ‘सीता पुनि बोली’; ‘नरेन्द्र कोहली का ‘महासमर’ और ‘अभ्युदय’, श्रीधर पराडकर का ‘ज्योति जला निज प्राण की’, नीरजा माधव का ‘तेभ्यः स्वधा’ इत्यादि ऐसे अनेक ग्रन्थ हैं, जिनके कई संस्करण निकले और अन्य भाषाओं में अनुवाद भी किए गए। इन ग्रन्थों की समाज द्वारा स्वीकृति और लोकप्रियता इस बात का प्रमाण है कि आज भी पुस्तकें पढ़ी जा रही हैं। पाठक को उसके लिए उपयोगी ग्रंथ मिलना चाहिए। इसी अप्रैल माह में पुनरुत्थान विद्यापीठ ने एक साथ एक हजार इक्यावन ग्रन्थों का प्रकाशन किया है। पिछले वर्ष दिल्ली के प्रभात प्रकाशन द्वारा चार सौ नये शीर्षकों की पुस्तकें प्रकाशित की गयीं। जिस तरह से साहित्यिक वातावरण तेजी से बदल रहा है, पुस्तक मेलों में पाठकों-खरीदारों की भीड़ रही है, उसे देखते हुए यह कहना सर्वथा उचित है कि हिन्दी ही नहीं सभी भाषाओं का पाठक पुस्तकें खरीदकर पढ़ना चाहता है। साहित्यकारों का यह दायित्व है कि भारतीय ज्ञान परम्परा, लोकजीवन, अध्यात्म, राष्ट्रीयता, समरसता, देश प्रेम इत्यादि को समृद्ध करने वाला साहित्य पाठकों को उपलब्ध कराएं। ग्रन्थों को भारतीय लोकमन द्वारा बड़ा सम्मान और प्रतिष्ठा प्राप्त है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि भविष्य में भी यह प्रतिष्ठा बनी रहेगी।

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