इतिहास के पन्नों में गोवा

स्कंद पुराण के अंतर्गत सहयाद्री खंड में गोवा के लिए गोराष्ट्र तथा गोमांत शब्द का उल्लेख किया गया है, वहीं नए पाषाण युग की मानव बस्तियों के अवशेष भी गोवा में मिले हैं। गोवा का इतिहास बहुत विस्तृत है। डालते है उसपर एक नजर।

प्राचीन काल में गोवा गोमांत नाम से पहचाना जाता था। इस गोमांत प्रदेश का उल्लेख महाभारत में है। इतिहासकारों ने महाभारत के हरिवंश के आधार पर ऐसा निष्कर्ष निकाला है कि, गोमांत ही आज का गोवा है। कंस वध के कारण क्रोधित हुए जरासंध ने, श्री कृष्ण से 17 बार युद्ध किया और प्रत्येक बार पराजित हुआ। 18वीं बार जरासंध तथा कालयवन का गठबंधन हुआ और उन्होंने मथुरा पर चढ़ाई की। उस समय श्री कृष्ण-बलराम दक्षिण में आश्रय के लिए आए थे। वह करवीर से सीधे गोमांत पर्वत पर आए और इस पर्वत पर जरासंध- कालयवन के साथ कृष्ण-बलराम का युद्ध हुआ। ऐसी एक कथा हरिवंश में है।

आजकल गोमांतक नाम मराठी, कोंकणी और कुछ मात्रा में अन्य भारतीय भाषाओं में लेखन के लिए उपयोग में लाया जाता है। इसी तरह गोवा का उल्लेख कोंकणी भाषा में ‘गोंय’ और मराठी में ‘गोवा’ अथवा ‘गोवे’ किया जाता है।

‘गोवा’ या ‘गोवे’ शब्द गोमांतक जितना ही भारतीय और ही पुराना है। स्कंद पुराण के अंतर्गत सहयाद्री खंड में गोवा के लिए गोराष्ट्र तथा गोमांत शब्द उल्लेख किया गया है। इस गोराष्ट्र का ही गोवा हुआ होगा। 11वीं शताब्दी में कदम्ब राजा ने गोवे शब्द का ही प्रयोग किया है। गोवा को परशुराम भूमि भी कहते हैं। परशुराम ने पृथ्वी दान करने के बाद त्रिहोत्र से गौड सारस्वत ब्राह्मणों को यहां लाकर यज्ञ किया। उस भूमि के पास के गोमांचल पर्वत के नाम से इस भूमि को नाम गोमांतक पड़ा। गो अर्थात बाण जिसे परशुराम जी ने मारा। उस बाण का जहां गिरकर अंत हुआ वह गोमांत। इसका अपभ्रंश गोमांतक है। गोवा के बारे में ऐसा विवेचन बा. वा. सावर्डेकर ने किया है। गोवा मे मनुष्य का आगमन कब और कहां हुआ? इसके बारे में प्रमाण नहीं मिलते। भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो, गोवा में अच्छे जल संसाधन और हरे भरे जंगल हैं। जो मनुष्यों की बस्ती के लिए पूरक है। मनुष्यों की बस्ती के प्रमाण ढूंढते समय, जब मनुष्य मुख्यतः शिकारी था, भारतीय पुरातत्व विभाग को झुवारी और मांडवी नदी की घाटियों में पुराने पाषाण युग के कई उपकरण और हथियार तथा औजार मिले हैं। इसी तरह नए पाषाण युग की मानव बस्तियों के अवशेष भी गोवा में मिले हैं। केपे तहसील की कुशावती नदी के तल की चट्टानों पर, पाषाण युगकालीन मनुष्यों द्वारा उकेरे गए चित्र देखकर इस बात की पुष्टि होती है कि, गोवा में मनुष्यों की बस्ती थी। कुछ लोगों का मानना है कि, सिंधु घाटी की सभ्यता की तुलना में कुशावती सभ्यता बहुत कम संशोधित थी।

रामायण कालीन तथा महाभारत कालीन प्रमाण, नाम और गांव गोवा में मिलते हैं। इसी तरह बौद्ध कालीन अवशेष भी मिले हैं। बौद्धों के हीनयान सम्प्रदाय के पुरातत्व अवशेष भग्नावस्था में रीवण, लामगांव, हरवले, लोटली और प्रियोल में है। इसी तरह नागेशी में जैन बस्ती के अवशेष भी है। गोवा के इतिहास को पूरी तरह समझने के लिए प्राचीन काल की गोवा तथा कोंकण क्षेत्र की सीमाओं को पूर्णतया ध्यान में रखा जाना चाहिए। प्राचीन साहित्य में कोंकण प्रदेश को अपरांत नाम दिया गया है। इस समय उत्तर कोंकण, वनवासी तथा गोमांतक प्रदेश इन सभी का अपरांत में समावेश होता था। इसका अर्थ है कि ईसवी सन के बाद कोंकण नाम प्रचारित हुआ होगा, ऐसा इतिहासकारों का मानना है। उत्तर में दमणगंगा और दक्षिण में गंगावली नदियों में अंतर्भूत होने वाले अरब सागर और सहयाद्री पर्वतों के बीच के पूरे क्षेत्र या संपूर्ण पट्टी को कोंकण कहते हैं। आजकल का कोलाबा जिला जिसमें कुंडलीका नदी बहती है, के दो भाग होने के कारण उसे उत्तर कोंकण और दक्षिण कोंकण कहते थे। उत्तर में शूरपारक् अर्थात आज का सुपारे (वसई के पास) और दक्षिण में गोवा के नाम से इन दोनों भागों को पहचाना जाता था। उत्तर कोंकण में 1900 गांवों और दक्षिण कोंकण में 900 गांवों का प्रदेश था। इसीलिए आज के लघु गोमांतक का इतिहास यानी केवल पुर्तगालियों के परिग्रहण के बाद का और उसके पहले का इतिहास है। अर्थात ऊपर दिए गए विस्तृत प्रदेश का इतिहास है, यह ध्यान में रखा जाना चाहिए।

प्राचीन काल में जब शासनकर्ताओं ने दक्षिण में और कोंकण पर राज्य किया, तब सभी राज्यों का गोवा एक भाग था। केवल गोवा के शीलाहार और गोवा के कदंब राजा छोड़कर किसी भी राजा ने गोवा में रहकर गोवा पर राज नहीं किया। एक तो वे दक्षिण के राजा थे या दक्षिण के राजाओं के मांडलिक थे। इसीलिए कदंब राजा का महत्व और भी बढ़ जाता है। भले ही गोवा में कदंबो ने पहले यादव और बाद में चालुक्यों के सामंत के रूप में राज्य किया था, फिर भी उनके कुछ राजाओं ने गुलामी छोड़कर और कोंकण चक्रवर्ती की पदवी लेकर स्वतंत्र रूप से राज्य करने का प्रयत्न किया। इसमें जयकेशी द्वितीय तथा शिवचित्त परमाडीदेव का समावेश था। गोवा का प्राचीन इतिहास मौर्य काल से मिलता है। सम्राट अशोक के एक शिलालेख में भोज राजा का उल्लेख मिलता है, जो मौर्यो के मांडलिक थे। भोज राजा ने गोवा पर राज्य किए जाने का उल्लेख उनके गोवा में मिले हुए ताम्रपट से मिलता है। इसके बाद गोवा पर सातवाहन, अभीर, त्रीकुटक, कलाचूर, कोंकणमौर्य, बदामी के चालुक्य, राष्ट्रकूट, कल्याणी के चालुक्य, शीलाहार और कादंबों ने राज्य किया था। ऐसा शिलालेख तथा ताम्रपट के प्रमाणों से पता चलता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि, केवल कदंबों ने गोवा में रहकर, स्वतंत्र रूप से गोवा पर राज्य किया। इसलिए कदंब काल गोवा का स्वर्ण काल माना जाता है। क्योंकि कदंबों ने गोवा को भौगोलिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक इतिहास दिया। सार्वभौमिक पहचान दी। जैसा इस काल में गोवा का सार्वभौमिक उत्कर्ष हुआ था, वैसा पहले के समय में या बाद के समय में कभी नहीं हुआ। कदंब वंश के तीन घराने हुए। इसमें सबसे पुराना घराना, कर्नाटक के वनवासी में था। इसके बाद हंगल और गोवा में थे। वनवासी के कदंब साम्राज्य का विनाश होने के बाद भी उनका एक छोटा सा संस्थान गोमांतक चंद्रपुर में था। कंटकाचार्य, नागवमी, गुहलदेव प्रथम, चतुर्भुज उर्फ षष्टदेव प्रथम आदि इन वंशावलियों के पहले चार नाम है। इसके बाद गूहलदेव द्वितीय (ई. सन. 180 -1008) हुए। इन्हें गोवा के कदम्ब राजवंश का संस्थापक माना जाता है। इस समय चंद्रपुर छोड़कर गोमांतक के अन्य भागों पर दक्षिण शिलाहारों का शासन चल रहा था। यह स्थिति षष्टदेव द्वितीय (1008 से 1050) के काल में बदल गई। उसने दक्षिण तथा उत्तर शीलाहार के झगड़ों का फायदा लेकर, पूरा कोंकण (900) गांव अपने शासन के अधीन किया। ऐसा उल्लेख ताम्रपट में दिखाई देता है। ताम्रपट भले ही स्पष्ट रूप से ना बताता हो, फिर भी उसने अपनी प्रजा के साथ प्रेम पूर्वक व्यवहार किया इस बात के प्रमाण है। उसने अपने राज्य में कपूर का भाव बहुत कम रखा था। इससे पता चलता है कि वह ईश्वर भक्त रहा होगा।

उसकी उदारता के कारण कदंबों की समृद्धि बढ़ गई। विदेशी व्यापारी उनकी राजधानी में आते थे। इसलिए उनकी राजधानी प्रसिद्ध और अमीर थी। इनका पुत्र जयकेशी प्रथम (1050 से 1080) अपने घराने की तरह पराक्रमी और कर्तव्यदक्ष राजा के रूप में जाना जाता था। इसने अपनी राजधानी चंद्रपुर से गोपिकापट्टन जैसे पश्चिमी तट पर एक बंदरगाह पर स्थानांतरित कर दी। उसने गोपीकापट्टन बंदरगाह में आने जाने वाले जहाजों पर कर लगाया। उसने इस आय का उपयोग गरीबों के लिए धर्मार्थ अस्पताल बनाने के लिए किया। ऐसा कहा जाता है कि, इस बंदरगाह से प्रतिदिन एक ही समय में 100 जहाज निकलते थे। इस बंदरगाह के भग्नावशेष अभी भी आगशी गांव (इसे थोरले गोवे भी कहते हैं) में झुवारी नदी के तीर पर मिलते हैं। इस काल में सिलोन, झांझिंबार, गुजरात, काठियावाड़, केरल आदि स्थानों से जहाज बंदरगाह में आते- जाते थे। उस काल के अनेक शिलालेखों से इस शहर की बड़ी-बड़ी इमारतों, सुंदर बगीचों, संपन्न बाजारों भीड़भाड़ से भरे हुए रास्तों, इन रास्तों से दिखने वाली पंडितों की पालखियां आदि का वर्णन मिलता है। कदंब की सुव्यवस्था के कारण गोवा की इतनी प्रगति हुई कि, उसकी तुलना इंद्रपुरी से की जाने लगी ऐसा देगामावे शिलालेख में दर्ज किया गया है। गोवा बंदरगाह का नाम पूरे एशिया के पश्चिम तट के व्यापार केंद्र के रूप में प्रसिद्ध था। राजा जेयकेशी की प्रमुख उपलब्धि थी, उनके द्वारा बनाया गया शक्तिशाली कवच। इतिहास लेखक स. आ. जोगलेकर कहते हैं कि उनका नाम पश्चिमी तट के पहले कवच निर्माता के रूप में इतिहास में अमर रहेगा। इसके पश्चात कदंब राजा अर्थात परमार्डी देव उर्फ शिवचित्त कदंब (1147/ 48 से 1181) हुए। इस समय चालुक्यों की शक्ति कम हो गई थी। देवगिरी के यादवों का उदय हो रहा था। उन्होंने चालुक्यों का नाश किया। जिसके कारण अपने आप ही कदंब गोवा में संप्रभु हो गए। परमार्डी देव ने कोंकण चक्रवर्ती की पदवी धारण की थी। उसकी पटरानी का नाम कमला देवी था। देगामावे ताम्रपट में कहा गया है कि उसकी पत्नी ही उसका प्रेम, सर्वस्व और आदर्श स्थान थी। राजा की सभी रानियों में कमला देवी उसे अधिक प्रिय थी। कमला देवी गुणी, उदारमना, प्रजा से प्रेम करने वाली और धार्मिक प्रवृत्ति की थी। परमार्डी देव की सहायता से उसने काफी दान धर्म किया। राज्य में सर्वत्र शिक्षा के प्रसार के लिए उसने अग्रहार और ब्रह्मपुरी की स्थापना की। जयकेसी तृतीय (1187 1212 /13) ने स्वयं के लिए कोंकण चक्रवर्ती और कोंकण सम्राट पदवियां ली। मानगुंडी लेख में कहा गया है कि जयकेसी की पृथ्वी पर स्तुति की जाती थी। उसने अपने दाएं कंधे पर पृथ्वी का भार उठाया। प्राचीनकाल में किसी भी राजा ने पृथ्वी की इस तरह रक्षा नहीं की थी। लेख में बताये अनुसार वह सचमुच एक यशस्वी राजा था। उसे अपने पिता से कमजोर सत्ता की विरासत मिली थी, परंतु उसने स्वयं की बहादुरी से राज्य को बनाए रखा। राज्य का विस्तार करना उसे संभव नहीं हुआ परंतु राज्य को बनाए रखने के लिए उसे बहुत संघर्ष करना पड़ा। जयकेशी का दूसरा पुत्र त्रिभुवनमल्ल उर्फ सोविदेव (1212-1246) गद्दी पर बैठा तब महाराष्ट्र, कोंकण, कर्नाटक की राजनीतिक स्थिति अनिश्चित ही थी। यादव तथा होलसाल के बीच युद्ध चल रहा था। परंतु इस परिस्थिति में भी सोवीदेव ने अपने छोटे से राज्य की रक्षा की और राजकाज सुनियंत्रित तरीके से चलाया। उसने सोने के सिक्के भी निकाले। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उसके राज्य में आर्थिक स्थिति बहुत उत्तम थी।

इसी समय यादवों ने कदंबों का राज्य जीता और उन्हें थोड़े समय के लिए बेघर कर दिया। परंतु सोवीदेव के पुत्र षष्टदेव तृतीय ने अपने पिता का हारा हुआ राज्य फिर से जीता और राजा बन गया। ई. सन. 1262 के बंदोडे में मिले हुए ताम्रपट में, षष्ठदेव को पश्चिमी समुद्राधीश के नाम से संबोधित किया गया है। इससे यह अर्थ निकाला जा सकता है कि शुरू से लेकर अंत तक कदंब राजा की सत्ता, नाविक सत्ता थी। ऐसा प्रतिपादन बा. द. संतोस्कर ने अपने गोमांतक प्रकृति और संस्कृति नामक ग्रंथ में किया है। कदंबों का अंतिम राजा कामदेव था। जो 1263-64 के बाद किसी समय गद्दी पर बैठा होगा। 1310 में यादवों का दूसरी बार नाश कर मलिक कफूर दक्षिण से गोवा की ओर बढ़ा और उसने कदंबों की राजधानी गोपकापट्टन का सर्वनाश कर दिया। इसके बाद के कदम्ब राजा अपनी राजधानी वापस चंद्रपुर ले गए। परंतु मोहम्मद तुगलक के सैनिकों ने चंद्रपुर में आक्रमण और लूटपाट कर कदंबों का राज्य नष्ट कर दिया। तब से गोवा मुसलमानों के हाथों में चला गया और हिंदुओं का शासन और गोवा का स्वर्ण काल डूब गया।

 

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