फोंडा को हर संभव सहायता करने का नियोजन कर, अनाज से भरे हुए 10 पात्रों तथा कुछ लोगों को फोंडा की ओर भेजा किंतु मराठाओं ने उन्हें राह में ही पकड़ लिया। फोंडा के किले की घेराबंदी में शिवाजी महाराज ने 2,000 घुड़सवारों तथा 7,000 पैदल सैनिकों को सम्मिलित किया था।
पुर्तगालियों के शासनकाल में गोवा के नागरिक दुख से व्यथित हो चुके थे। धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आदि सभी स्तरों पर उनका शोषण जारी था। विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद तो पुर्तगालियों के लिए मानो मैदान साफ हो गया। हिंदू जनता का कोई संरक्षक न रहा। ऐसे समय में छत्रपति शिवाजी महाराज ने गोवा के हिंदुओं का संरक्षण किया। तिसवाड़ी, बार्देश एवं साष्टी जैसे तीन पुराने प्रांतों में उत्पात मचाने के बाद पुर्तगालियों का प्रयास नए प्रांतों (फोड़े, डिचोली, सांगे) में भी ऐसा ही उत्पात मचाए रखने का था। हालांकि छत्रपति शिवाजी महाराज की गोवा के प्रति सजगता एवं समय-समय पर उनके एवं संभाजी महाराज द्वारा किए गए युद्धों के कारण, पुर्तगोलियों उपद्रव के प्रयास असफल हो गए। शिवाजी महाराज की धाक के कारण नए बने प्रांतों में, पुर्तगाली पादरियों द्वारा छलपूर्वक हिंदू जनता का धर्म परिवर्तन कराने का षड्यंत्र सफल नहीं हो पाया। छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा गोवा के आदिदेव श्री सप्तकोटीश्वर के मंदिर के निर्माण के कारण हिंदू समाज का स्वाभिमान जागृत हो गया।
शिवाजी महाराज द्वारा गोवा के कार्यों से संबंधित तथा पुर्तगालियों से हुए उनके विजयी संघर्षों से संम्बंधित कुछ ऐतिहासिक स्मृतियां निम्नलिखित हैं। छत्रपति शिवाजी महाराज एवं उनके मावलों (सिपाहियों) द्वारा, हिंदू संस्कृति की रक्षा के लिए दर्शाए गए साहस एवं प्रयासों को जानकर किसी का भी सिर गर्व से ऊंचा हो जाएगा।
निम्न सभी प्रसंग, डॉ. पांडुरंग पिसुर्लेकर द्वारा लिखित ‘पोर्तुगीज-मराठे संबंध’ नामक मराठी पुस्तक से उद्धृत किए गए हैं।
छ. शिवाजी महाराज ने नवंबर 1674 ई. को नाव नामक ग्राम में, सप्तकोटीश्वर मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। मंदिर के महाद्वार पर इससे संबंधित शिलालेख उपस्थित है। पहले यह मंदिर दिवाड़ी द्वीप पर था जिसे 1540 ई. में मिगेल वाज नामक पुर्तगाली धर्माधिकारी ने गोवा द्वीप के अन्य मंदिरों के साथ ध्वस्त कर दिया था। अतः 1558 ई. के पहले दिवाड़ी के दूसरे छोर पर उस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया गया।
निश्चलपुरी द्वारा लिखित ‘श्री शिवराज्याभिषेक कल्पतरु’ नामक संस्कृत ग्रंथ में, छ. शिवाजी महाराज द्वारा नारवे (नार्वे) के श्री सप्तकोटीश्वर मंदिर का उल्लेख मिलता है। ऐसी आख्यायिका है कि छ. शिवाजी महाराज को श्री सप्तकोटीश्वर मंदिर के दर्शन करने पर उस मंदिर का जीर्णोद्धार करने की प्रेरणा मिली।
छ. शिवाजी महाराज ने अपने राज्याभिषेक के अगले वर्ष (15 अप्रैल 1675 ई.) फोंडा के किले की घेराबंदी की। वहां के किलेदार का नाम महम्मद खान था। गोवा के पुर्तगालियों ने पिछली बार की घेराबंदी के समय (1666 ई.) फोंडा की सहायता की थी जिसके कारण, किले के लिए कई दिनों तक युद्ध जारी रहा। इस बार पुनः ऐसी घटना से बचने के लिए छ. शिवाजी महाराज ने, पुर्तगालियों द्वारा इस मुद्दे पर तटस्थ रहने का वचन लेकर, विजरई कौंद द आल्वोर के पास अपना प्रतिनिधि रखा था। इसके बावजूद पुर्तगालियों ने फोंडा को हर संभव सहायता करने का नियोजन कर, अनाज से भरे हुए 10 पात्रों तथा कुछ लोगों को फोंडा की ओर भेजा किंतु मराठाओं ने उन्हें राह में ही पकड़ लिया।
फोंडा के किले की घेराबंदी में शिवाजी महाराज ने 2,000 घुड़सवारों तथा 7,000 पैदल सैनिकों को सम्मिलित किया था। उन्होंने 16 मई के लगभग इस किले पर विजय प्राप्त कर ली। फोंडा के किले पर आधिपत्य हो जाने से, अंत्रूज, अष्टागार, हेमाड़बार्से, बाली, चंद्रवाड़ी तथा काकोड़े यानी संप्रति फोंडे, केपे, सांगे तथा काणकोण महल मराठाओं के अधीन हो गए। शिवाजी महाराज ने त्र्यंबक पंडित को फोंडा किले का सूबेदार नियुक्त किया।
विजरई ने मराठाओं को चौल के किले की घेराबंदी हटाने पर विवश करने के लिए, फोंडा पर चढ़ाई करना सुनिश्चित किया। इसके अनुसार उसने 27 अक्तूबर 1683 ई. को आगशी में, अपने सैनिकों के साथ डेरा डाला। वह 28 अक्तूबर को अपनी सेना को लेकर, जहाज से दुर्भाट बंदरगाह पर उतरा।
दुर्भाट, संभाजी के फोंडे महल का एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था। फोंडा का देसाई दुलबा नाईक, विश्वासघाती था जो दुर्भाट जाकर, विजरई से मिल गया। विजरई के सैनिकों ने 1 नवंबर के तड़के दुर्भाट से फोंडा के लिए प्रस्थान किया। राह में उनकी लगभग 300 मराठा सैनिकों से झड़प हुई। फोंडा पहुंचते ही पुर्तगालियों ने तत्काल किले की ओर तोपें दागनी शुरू कर दीं। किले में मराठाओं के 600 सैनिक थे। इसके अतिरिक्त जंगलों में 200 मराठा, उचित अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे। तोपों द्वारा किले में सुराख होने पर भी, मराठा साहसपूर्वक लड़ रहे थे।
9 नवंबर को जब पुर्तगालियों के सैनिक, किले पर अंतिम आक्रमण करने की तैयारी में थे तब राजा संभाजी, राजापूर से तत्काल फोंडा की ओर गए तथा उन्होंने पुर्तगालियों के सामने ही, लगभग 800 घुड़सवारों के संरक्षण में अपने 600 सिपाही किले में प्रविष्ट करा दिए। इस परिस्थिति में विजरई ने यह विचार करके कि मराठे उनका पीछा कर, उनके लौटने की राह बंद कर देंगे, घेराबंदी उठा ली तथा गोवा वापस जाने का निश्चय किया। इससे पुर्तगाली सैनिक भयभीत हो गए तथा उनमें से कई लोग दुर्भाट बंदरगाह की दिशा में भागने लगे। फोंडा की लड़ाई में, सरदार येसाजी कंक ने उत्कृष्ट पराक्रम दर्शाया।
अंततः 10 नवंबर 1683 ई. को विरजई घेराबंदी उठाकर पीछे हट गया। वह दूसरे दिन अपनी सेना के साथ दुर्भाट पहुंचा। मराठाओं ने ‘खाड़ीवरी’ नामक टेकड़ी के निकट, पुर्तगालियों पर आक्रमण कर उन्हें धूल चटा दी। येसाजी कंक इस युद्ध में गंभीर रूप से घायल हो गए। कितने ही पुर्तगाली एवं उनकी ओर से गोवा निवासी ईसाई सैनिक भी, प्राण हथेली पर रखकर लड़े। मराठाओं की सेना में 800 घुड़सवार तथा 2,000 पैदल सैनिक थे। पुर्तगालियों का मुखिया विजरई, दो बार काल का ग्रास बनने से बच गया किंतु घायल तो वह भी हुआ ही। इस युद्ध में पुर्तगालियों के पैदल सैनिकों की टुकड़ी के लगभग सभी सैनिक मार दिए गए। पुर्तगाली सेना में, गोवा निवासी ईसाइयों के घायलों एवं मृतकों की संख्या 200 से भी अधिक थी।
विरजई का विचार था कि संभाजी पुर्तगालियों के विरुद्ध बिना कोई कार्रवाई किए, फोंडा से ही पन्हाला निकल जाएंगे किंतु उसका यह विचार गलत सिद्ध हुआ।
24 नवंबर 1683 की रात 8 बजे समुद्र में भाटे के समय, संभाजी महाराज के कुछ लोगों ने पुर्तगालियों के आधिपत्य वालेजुवें नामक द्वीप पर जाकर वहां के किले पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस द्वीप को पुर्तगालियों ने सांतु इस्तेव्व नाम दिया था। यह द्वीप, तिसवाड़ी के धावजी नमक गांव के दूसरे छोर पर है तथा उस द्वीप से समुद्र में आए भाटे के समय, पगडंडी से होकर गोवा/गोवे शहर में सहज ही आया-जाया जा सकता है। इस पगडंडी की रक्षा करने के लिए पुर्तगालियों ने जुवें नामक द्वीप के पर्वत पर किला बनाया था और धावजी की ओर नदी किनारे पर बुर्ज बनाकर, वहां कड़ी सुरक्षा का बंदोबस्त किया था।
जुवें द्वीप के एक ओर भतग्राम एवं फोंडे नदी के इस ओर संभाजी का प्रदेश तथा दूसरी ओर मांडवी नदी के पार गोवा शहर का तट था। जब गोवा शहर में रात के 10 बजे घंटा बजाकर संकट की सूचना दी गई तब समुद्र में मिलने वाली मांडवी नदी में, ज्वार का पानी चढ़ रहा था। पुर्तगाली सशस्त्र पादरी, नदी के किनारे शहर की ओर के तट की ओर रवाना हुए तथा धावजी की ओर से शत्रु के आक्रमण की संभावना को देखते हुए विरजई पूरी रात सेना के साथ जाकर वहां रहा। दूसरे दिन यानी 25 नवंबर को सुबह 7-8 बजे विरजई ने उचित सावधानी बरतते हुए, 400 सैनिकों को लेकर जुवें द्वीप की ओर कूच किया। वहां संभाजी की सुसज्जित सेना तैयार ही थी।
किले के निकट पुर्तगालियों का मराठाओं से युद्ध हुआ। मराठाओं की घुडसेना से भयभीत होकर, पुर्तगालियों के कई सैनिक प्राण बचाने के लिए विजरई को छोड़कर नीचे नदी के किनारे की ओर भाग गए। विजरई का भाग्य अच्छा था जो वह मराठाओं के हाथ नहीं लग पाया। तब तक नदी में ज्वार का पानी चढ़ आया। जुवें द्वीप पर मराठाओं का आधिपत्य हो जाने के बाद, पुर्तगालियों ने गोवा शहर की ओर नदी से सटी कृषि-भूमि के बांध तोड़ दिए। इसके फलस्वरुप वहां के खेतों में पानी भर गया जिससे नदी का पाट और चौड़ा हो गया।
तैरकर नदी पार कर रहे कितने ही पुर्तगाली लोग, उसमें डूबकर मर गए। कहा जाता है कि इस अवसर पर संभाजी ने गोवा नगर पर आक्रमण करने की योजना बनाई थी जो नदी में ज्वार का पानी भरने पर संभव नहीं हो सका। खंडो बल्लाल चिटनीस ने ‘त्रोटक हकिकत’ नामक अपने लेख में निम्नलिखित उल्लेख किया है, उस दिन गोवा पर विजय प्राप्त करनी ही थी किंतु समुद्र ने फिरंगियों के भाग्य की रक्षा की।