गोमांतकीय संगीत की उत्पत्ति और वृद्धि प्रमुख रूप से देवस्थानों के परिसरों में ही हुई। गोमांतकीय उत्तम गायक-गायिका, नर्तक-नर्तिका तथा वादक मंदिर परिसर में ही निर्माण हुए। अनेक कलाकारों ने अपने संगीत का बीजारोपण गोवा से किया।
गोवा के अनुपम और प्राकृतिक सौंदर्य से जिन कलाओं का आविष्कार हुआ है उनमें से एक महत्वपूर्ण कला है, नाटक। साहित्य, संगीत, चित्र, शिल्प और नृत्य इन पांचों कलाओं के रस से नाटक पुष्पित और पल्लवित होता है। इस कला को गोमांतक में अग्रसर स्थान प्राप्त है।
सन 1818 में धारगल में श्री शांतादुर्गा के मंदिर में म्हाप्सा के रघुनाथ सेठ सावंत और वेंकटेश रघुनाथ सावंत पिता-पुत्रों द्वारा लिखे हुए नाटक का प्रयोग हुआ था। गोमांतकीय नाटक शोधकर्ता सीताराम गणपति मणेरीकर ने नाटक की मुद्रित प्रति होने की पुष्टि की। सावंत पिता-पुत्र के इस नाटक के संवाद और पद्य लिखित रूप में थे। आधुनिक नाटकों की भांति इन नाटकों का भी एक निश्चित स्वरूप होता है। हरदास -विदूषक, संकसूर-विदूषक तथा कंस-चाणूर नामक तीन अध्याय इस नाटक में थे।
गोमांतकीयों के लिए तब एक गर्व की घटना घटी थी जब हीराबाई पेडणेकर को आद्य महाराष्ट्रीयन नाटक लेखिका होने का सम्मान मिला। उन्होंने जयद्रथ विडंबन, दामिनी और पद्मिनी नाटक लिखे। संतश्रेष्ठ कृष्णमभट बांदकर ने शुकरंभा संवाद, लोपामुद्रा संवाद नटसुभद्रा विलास तथा अहिल्योद्धार नामक चार नाटक लिखे थे।
सन 1870 में स्वर्गीय अण्णासाहेब किर्लोस्कर नमक के व्यापार हेतु गोवा में आए थे। उस समय उन्होंने बांदकर महाराज की ख्याति सुनी और वे डोंगरी नामक गांव में आए। रामनवमी के उत्सव के उपलक्ष्य में ‘शुकरंभा संवाद’ नाटक चल रहा था। उस नाटक को देखकर वह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने बांदकर महाराज से लिखित संहिता की मांग की। परंतु इतने प्रभावशाली प्रस्तुतीकरण के बावजूद इस कलाकृति की हस्तलिखित संहिता नहीं थी।
बांदकर महाराज से श्रीरामजी का प्रसाद लेकर अण्णासाहेब किर्लोस्कर तृप्त हृदय से मुंबई वापस चले गए। इसके बाद सन 1880 में अण्णासाहेब अपना पहला संगीत नाटक रंगमंच पर लाया।
‘मांड’ गोमांतकीय रंगमंच का उगम स्त्रोत है, ऐसा कहना गलत नहीं होगा। ‘मांड’ अर्थात जहां लोग एकत्रित होकर अपनी कला प्रस्तुत करते हैं वह स्थान। ‘मांड’ अर्थात एक निश्चित उत्सव दिन पर उस गांव के विशिष्ट स्थान पर लोग सर्वप्रथम दीप प्रज्वलित करते हैं, और उस जगह ईश्वर का अंश है इस भावना से प्रस्तुतीकरण करते हैं।
लोकगीत, कुछ निश्चित भागों में प्रचलित कथागायन, रास, गोफ, धालो जैसे लोकनृत्य गायन एवं रंगपंचमी के समय होने वाले रोमटे को गोवा के रंगमंच की विचार की प्रवर्तक बातें कहा जा सकता है। ‘मांड’ स्थान पर पहले ‘जगराता’, ‘त्राटिका’, ‘वीरभद्र’, ‘पूतना’, ‘रणमाले’, ‘ललित’, ‘कठपुतलियों का खेल’ और ‘काले’ जैसे लोकनाट्यों के प्रकार प्रस्तुत होते थे। इन लोकनाट्यों के रूप और शैली से ‘दशावतारी’ अथवा ‘ताकडधोम’ नाटकों का विकास हुआ।
नाटकों का जैसे विकास हुआ वैसे ही कुछ स्थानों पर ‘मांड’ का हुआ। उन्हें ‘देवळी’ का स्वरूप प्राप्त हुआ। ‘देवळी’ अर्थात छोटा मंदिर।
मनुष्य हमेशा नई-नई चीजों की खोज में होता है। उसी के कारण उत्सवी रंगमंच का गोवा में विकास हुआ। उत्सवी रंगमंच अर्थात गांव-गांव में स्थानीय देवताओं के उत्सव के उपलक्ष्य में प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक।
गोवा के विभिन्न भागों में वर्ष भर में विभिन्न उत्सवों के उपलक्ष्य में कुल डेढ से दो हज़ार नाटक होते हैं। रंगमंच का स्वरूप अधिकतर शौकिया होता है। कलाकारों में एक अलग तरह का चैतन्य और उत्साह रंगमंच पर दिखाई देता है। गांव के कुछ समाज अथवा नाटक मंडल एकत्रित होकर नाटक प्रस्तुत करते हैं। शौकिया होने के कारण नाटक का स्वरूप कच्चा होता है, लेकिन दर्शक इसका भी आनंद लेते हैं। यह मनोरंजनात्मक तथा भावनात्मक ही होता है परंतु अब इसमें काफी परिवर्तन हो रहा है, प्रगति हो रही है।
उत्सवी रंगमंच के बाद गोवा में प्रतिस्पर्धी रंगमंच आता है। रंगमंच के शौकिया कलाकार तथा अन्य कुछ कलाकार मंडल अथवा संस्था स्थापित कर, गोवा राज्यस्तर पर आयोजित की जाने वाली मराठी तथा कोकणी प्रतियोगिताओं में अपनी कला प्रस्तुत करते हैं। अब इस रंगमंच का स्वतंत्र अस्तित्व प्रस्थापित हो गया है। अनेक एकांकिका प्रतियोगिताएं गोवा में आयोजित की जाती हैं।
गोमांतकीय व्यक्ति फिर वह हिंदू हो या ईसाई उसे जन्मजात संगीत का जुनून होता है। भारत के अन्य प्रदेशों की तुलना में यहां की संगीत के प्रति रुचि और ज्ञान सराहनीय है। उनके सुर और लय दर्शकों के मन जीत लेते हैं। गोमांतकीय संगीत की उत्पत्ति और वृद्धि प्रमुख रूप से देवस्थानों के परिसरों में ही हुई। गोमांतकीय उत्तम गायक-गायिका, नर्तक-नर्तिका तथा वादक मंदिर परिसर में ही निर्माण हुए। अनेक कलाकारों ने अपने संगीत का बीजारोपण गोवा से किया। हालांकि भारतीय संगीतकारों या कलाकारों को जिस प्रकार का आश्रय रामपुर, जयपुर, लखनऊ, ग्वालियर जैसी जगहों पर मिलता था वैसा गोमांतकीय कलाकारों को गोवा में नहीं मिला। जिसके कारण गोमांतकीय कलाकारों को गोवा छोड़कर अन्य स्थानों पर जाना पड़ा।
मोरारबा पेडणेकर ने लखनऊ जाकर गायन के साथ-साथ अनेक वाद्य यंत्रों पर महारत हासिल की। उन्होंने स्वर शृंगार नामक वाद्य का निर्माण किया। उन्होंने संगीत संजीवनी नामक ग्रंथ भी लिखा। सन 1772 में गोवा की मोहना पालकर पेशवा के दरबार में राजगायिका तथा राजनर्तकी बनी। कुतुब शाह के दरबार में नागलीबाई मांद्रेकर और उनकी कन्या भागमती दरबार गायिका थीं। शास्त्रीय संगीत सीखने वाली प्रथम स्त्री गायिका सरस्वती बांदोडकर थी।
बाबली बाई सालगांवकर, खडी आवाज और अपनी बुद्धिमत्ता तथा गायन कुशलता के कारण भावनगर संस्थान की राजगायिका बनीं। सरस्वती बाई वेलिंगकर, सरस्वती जांबावलीकर, बापू तारा, वेलिंगकर बहनें, बालाबाई बांदोडकर उर्फ बालाबाई काले, ताराबाई शिरोडकर, विलासिनी कपिलेश्वर जैसे अनेक गोमांतकीय संगीत रत्नों ने अपनी साधना से सुनने वालों के हृदय में जगह बनाई। कुछ दशकों की लंबी साधना के बाद सुरश्री केसरबाई केरकर तथा अंजनीबाई मालपेकर ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में प्रवीणता हासिल की और पूरे देश में प्रसिद्ध हुई।
गायनाचार्य पंडित रामकृष्णबुवा वझे ने अपनी विद्वता और मैत्रीपूर्ण रवैये से उन स्थानों पर जहां गाना सीखना निषिद्ध माना जाता था, संगीत के विषय में जागृति पैदा की। इस प्रकार गोमांतकीय समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन आया। नारोबुवा भिड़े एवं मा. दीनानाथ मंगेशकर वझे के शिष्य थे।
संगीत क्षेत्र के लय-ताल के चमत्कार के रूप में खाप्रूजी पर्वतकर तथा गीततपस्विनी मोगूबाई कुर्डिकर जैसे प्रसिद्ध कलाकारों ने अपने मेहनत के बल पर गोमांतकीय संगीत में अपना नाम अमर कर दिया है। भारत सरकार द्वारा मोगूबाई कुर्डिकर को उनके संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मभूषण तथा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यही सम्मान उन संगीत क्षेत्र के लय -ताल के चमत्कार के रूप में खाप्रूजी पर्वतकर तथा गीततपस्विनी मोगूबाई कुर्डिकर जैसे प्रसिद्ध कलाकारों ने अपने मेहनत के बल पर गोमांतकीय संगीत में अपना नाम अमर कर दिया है। भारत सरकार द्वारा मोगूबाई कुर्डिकर को उनके संगीत के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मभूषण तथा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। यही सम्मान उनकी शिष्य और गायिका कन्या किशोरी आमोणकर को प्राप्त हुआ है। इस प्रकार का सम्मान माता-कन्या को प्राप्त होना भारत की संस्कृति के इतिहास में एकमात्र उदाहरण है।
मा. दीनानाथ ने अपनी गायकी का एक स्वतंत्र रूप निर्माण किया। उनके गायन शैली में मधुरता और आक्रामकता का सुरीला संगम था। उनकी संगीत साधना की विरासत को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाने की जिम्मेदारी उनके वंशजों लता, आशा, मीना, उषा तथा हृदयनाथ मंगेशकर ने स्वीकार की। उन्होंने संगीत क्षेत्र के अपने दैदीप्यमान योगदान से भारतीय संस्कृति को समृद्ध किया। ऐसा कहा जा सकता है कि आज हमारा देश लता मंगेशकर के गले से अर्थात गोमांत कन्या के गले से गीत गाता है।
रंगमंच पर गायन का इतिहास बनाने वाले ज्योत्सना भोले उर्फ दुर्गा केलेकर, गोविंदराव अम्मी, महफिल के लोकप्रिय गायक सुरेश हलदणकर कुछ उल्लेखनीय नाम है। भारत के
सर्वोच्च श्रेणी के गायक माने जाने वाले पंडित जितेंद्र अभिषेकी कल्पनाशील कलाकार और संगीत निर्देशक के रूप में प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। भारत सरकार की ओर से उन्हें पद्मश्री तथा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला है।
गोमांतीय संगीत परंपरा को अलग-अलग पीढ़ियों से जोड़ने के लिए एक महत्वपूर्ण प्रतियोगिता कला अकादमी की ओर से आयोजित की जाती है, वह है, भजन प्रतियोगिता। इस भजन प्रतियोगिता में प्रतिवर्ष लगभग डेढ़ हजार संगीत कलाकार भाग लेते हैं और अपनी कला प्रस्तुत करते हैं। कला अकादमी की ओर से चलाए जाने वाले संगीत विद्यालय तथा गोवा संगीत विद्यालय का इन संगीत कलाकारों को सुरीला बनाने में महत्वपूर्ण योगदान है।
देखा जाए तो भारत के नक्शे में बिंदु जैसा दिखने वाला छोटा सा प्रदेश है गोवा, परंतु इस छोटे से प्रदेश का कला क्षेत्र में कार्य उल्लेखनीय है। भारत की सांस्कृतिक परंपरा से गोवा के भावनात्मक संबंध जोड़ने का कार्य गोमांतकीय कलाकारों ने किया है। सांस्कृतिक क्षेत्र की यह विरासत इसी तरह आगे बढ़ती रहे यही अभिलाषा है।
स्निग्धा अवतंस