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आदर्श लोक तंत्र को समर्पित श्रीराम

आदर्श लोक तंत्र को समर्पित श्रीराम

by अमोल पेडणेकर
in अध्यात्म, ट्रेंडींग, पर्यटन, राम मंदिर विशेषांक जनवरी २०२४, विशेष, संस्कृति, सामाजिक
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श्रीराम आदर्श हैं तो रामायण हमारी संस्कृति है। जीवन के पथ पर इनके आदर्शों का अनुकरण ही हमारा मार्गदर्शन करते हैं जो बताते हैं कि एक पिता, पति, भाई, सखा और राजा के रुप में मानवीय आचरण और व्यवहार कैसा होना चाहिए। रामायण के पन्नों को पलट कर देखें तो राजा होने के पश्चात भी राम मन-वचन-कर्म से लोकतांत्रिक थे।  

आदर्श श्रीरामकथा की गूंज सदियों से केवल कश्मीर से कन्याकुमारी तक ही नहीं तो हिमालय के उस पार के कई देशों एवं यूरोप अमेरिका में भी सुनाई देती है। श्रीरामकथा में जो इतिहास है जिसके जीवंत प्रमाण आज भी श्रीलंका से लेकर अयोध्या तक मिलते है। भारत और श्रीलंका को जोड़ने वाला श्रीराम सेतु आज भी है और सरयू नदी का वह तट आज भी है, जहां श्रीराम का जन्म हुआ था। जहां से श्रीराम, सीता और लक्ष्मण ने वनवास की यात्रा प्रारंभ की थी और आसुरी रावण का वध करके चौदह वर्ष बाद इसी तट पर पुष्पक विमान से वापस लौटे थे। इतिहास और पुराण-कथाएं किसी भी देश अथवा जाति के संस्कृति के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। वह मानव जाति की संस्कृति के विकास का मूल स्रोत हैं। काल की लम्बी यात्रा में राष्ट्र अपने-अपने राष्ट्रीय आदर्शों को ऐतिहासिक चरित्रों में विकसित करते हैं और इस प्रकार सम्पूर्ण अतीत से रिश्ता जोड़ लेते हैं।

समय के बहते प्रवाह में हमारे इतिहास-बोध पर विस्मृति का आवरण च़ढ़ने लगता है और धीरे-धीरे वह आवरण घना होता चला जाता है। परन्तु कुछ इतिहास-बोध हजारों वर्षों तक लोगों के मन में निरंतर प्रभावित रहते है और समय-समय पर प्रेरणा के रूप में और अधिक प्रखर होकर जीवित होते चले जाते हैं। रामायण इसी तरह का ग्रंथ हैं। ये मात्र ग्रंथ न होकर हमारी संस्कृति के कोश हैं, जो भारतीय अस्मिता का प्रतीक हैं।

ऐतिहासिक एवं वर्तमान संदर्भ से देखा जाए तो हमारी न जाने कितनी स्मृतियां रामायण के ताने-बाने में बुनी हुई हैं। श्रीराम हमारे इतिहास के नायक हैं। अखिल मानव जाति के श्रीराम प्रेरणादायक शक्तियों के रूप में सामने आते हैं। जब-जब समाज अत्यधिक संकट में रहा है तब-तब वह श्रीराम की ओर आकृष्ट हुआ है। राम भारतीय पुरुषार्थ के जीवन्त प्रतीक हैं। पुरुषार्थ का विविधरुपी प्रतिपादन ही रामायण और उसके नायक श्रीराम के चरित्र-वर्णन का प्रमुख उद्देश्य रहा है। हमारे प्राचीन साहित्य में  राम का चरित्र सर्वाधिक प्रभावशाली है।

श्रीराम का जीवन-चरित्र संपूर्ण आदर्श लोकनायकत्व का है। उनके मर्यादा पुरुषोत्तम तथा लोकनायक, इन दोनों स्वरूपों में से प्रत्येक से सम्बंधित साहित्य का निर्माण बड़ी मात्रा में हुआ है। यह साहित्य इस देश की समस्त भाषाओं से लेकर विदेशी भाषाओं में भी बड़ी संख्या में रचा गया हैं। यह साहित्य अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। प्रथम- इसमें श्रीराम के जीवन के प्रसंगों, घटनाओं और कार्यों का विशद विवरण संजोया गया है। दूसरी बात यह है कि परिवार तथा रिश्तों के प्रति समर्पण तथा निष्ठा के गंभीर भाव की अनुभूति होती है। तीसरी श्रीराम के ब्रह्म-स्वरूप के प्रति उपासना के विविध पक्ष, प्रवृत्तियां और धाराएं भी देखने को मिलती हैं। चौथी और सर्वाधिक महत्वपूर्ण-मानवीय-संबंध, मानवीय-आचरण और मानवीय व्यवहार का विविध तरंगों के रूप का जीवंत दर्शन कराता है। इन मानवीय-संबंधों में स्वयं को ढालकर देखने से श्रीराम का चरित्र एक विलक्षण प्रेरणा और सम्पन्नता से युक्त हो जाता है।

वैश्विक समाज युगों-युगों से, श्रीराम को लोक-भाव से परिपूर्ण लोकमंगलकारी, लोकरक्षक, लोकनायक के रूप में श्रद्धा-भाव से स्वीकार करता रहा है। श्रीराम ऐसे ही लोकसंग्रही लोकनायक हैं। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भारतीय अस्मिता के शीर्ष मानबिन्दु हैं। सनातनकाल से निरन्तनकाल तक वे निरन्तर भारतीय अवधारणा के मार्गदर्शक रहेंगे।

वे गांव की झोपड़ी से महानगरीय जीवन तक अमीर-गरीब सभी मानवों के हृदय में विद्यमान है। श्रीराम का संपूर्ण जीवन कार्य इसी लोक के लिए समर्पित था। उनके ऐसे ही लौकिक कार्यों के कारण समस्त लोगों ने उन्हें अलौकिक बना दिया। वह केवल मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में ही नहीं स्वीकार किए गए, नर से नारायण तक की यात्रा के पश्चात् वे ईश्वर से साक्षात् अवतार के रूप में मान्य हुए।

श्रीराम मानव के लिए परिपूर्ण अनुकरणीय आदर्श थे। उनकी माता-पिता के प्रति भक्ति, भाइयों के प्रति स्नेह, पत्नी के प्रति एकनिष्ठा प्रेम और प्रजा के प्रति पुत्रवत वात्सल्य-भाव सबके प्रेम का विषय बन गया। दुर्गम कठिनाइयों से वे पार निकले। माता-पिता तथा बाद में अर्धांगिनी के वियोग का दुःख सहन किया और अंत में पाप एवं अधर्म की शक्तियों पर विजय प्राप्त की। मनुष्यों के नायक के जीवन का एक पक्ष और भी है, अपने समाज के प्रति कर्तव्य, जिसका वह स्वयं भी एक घटक है। जनता की इच्छा का पालन उस नायक की सबसे बड़ी प्राथमिकता है, जो नायक को लोकरक्षक, लोकसंग्रही, लोकमंगलकारी लोकतांत्रिक आदि भूमिकाओं में दृढ़ता से खड़ा रखती है।

कोई भी लोकनायक, जो एक राज्य-तंत्र का अधिष्ठाता भी है, अपने आश्रित जनों के लिए एक आदर्श व्यवस्था की स्थापना करता है। उसकी व्यवस्था में सर्व जन के योग-क्षेम की चिंता की जाती है। वहां सभी निर्भय, स्वस्थ, धर्म कार्य और सर्वोदय के आकांक्षी होते हैं। आदर्श राजा न केवल यह व्यवस्था करता है, अपितु अपने आचरण से आदर्श भी स्थापित करता है। इस दृष्टि से इतिहास के साक्ष्यानुसार श्रीरामराज्य आदर्श राज्य-व्यवस्था और कल्याणकारी राज्य के रूप में उसे आज भी स्मरण किया जाता है। श्रीराम एक बड़े राज्य के स्वामी थे। बाद में तो उन्होंने अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न कर चक्रवर्ती होने का गौरव अर्जित कर लिया था। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि राजतंत्र में राजा ही सर्वशक्तिमान होता है। उनकी इच्छा सर्वोपरि होती है। उसके आदेश अथवा निर्णय पर कोई प्रश्न नहीं उठा सकता। किंतु राजा होने के पश्चात् भी श्रीराम मन-वचन-कर्म से लोकतांत्रिक थे। उनका शासन-तंत्र लोकतंत्र-नियंत्रित राजतंत्र था। वहां लोगों की इच्छा, वचनों एवं सुझावों के माध्यम से अभिव्यक्त होती थी। इस अभिव्यक्ति के कुछ अन्य स्रोत थे- गुरुजन, ऋषिगण, मंत्रिगण एवं विद्वज्जन। वस्तुतः वे सब समाज के महत्वपूर्ण अंग थे। जो जनता में व्याप्त राजनीति, सामाजनीति और संस्कृति से श्रीराम को अवगत कराते रहते थे  तथा उन्हें लोकरंजन, लोककल्याण और लोकसेवा के लिए प्रेरित करते थे। उस समय की आश्रम-व्यवस्था भी राज-काज के सुचारू- संचालन में अपना योगदान दिया करती थी। श्रीराम तो कोई भी कार्य अपने सहयोगियों के परामर्श के बिना नहीं करते थे चाहे युद्ध के लिए व्यूह रचना हो अथवा रावण के भाई विभीषण की शरणागति हो ,सर्वत्र सामान्य सहमति से ही कार्य हो।

वस्तुतः रावण की अमर्यादित सत्ता के ध्वंस हेतु चलाए गए महाभियान में समाज के सभी वर्गों का योगदान इसी कारण प्राप्त हुआ था। किसी भी अभियान की सफल और सार्थक परिणति के लिए नायक के पीछे दृढ़-संकल्प वाली लोकशक्ति का सक्रिय समर्थन तथा सहयोग आवश्यक है। समाज के शोषित, पीड़ित समुदाय के एक-एक व्यक्ति को अन्याय और अत्याचार के प्रतिकार हेतु संघर्ष के लिए तैयार कर उनके सशक्त संगठन का निर्माण करना आवश्यक है। लोकनायक श्रीराम इस संदर्भ में एक अनुकरणीय उदाहरण हैं। नियति के निर्णयानुसार जब श्रीराम वनवास के लिए निकले तो दमनकारी और अन्यायी रावण के राक्षसी दुष्कर्मों का अंत करना उनके जीवन का एकमेव विराट उद्देश्य था, किन्तु प्रारंभ में संख्या बल के नाम पर वे मात्र दो व्यक्ति थे। सीता के हरण के साथ ही अत्याचारी रावण का युद्ध उन्माद प्रारम्भ हो गया था। इस असमान और असंतुलित संघर्ष के लिए एक संगठित, अनुशासित, लक्ष्य के लिए समर्पित तथा प्रशिक्षित जन-बल की आवश्यकता थी। इतिहास साक्षी है कि यह कठिन कार्य राम ने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति, आत्मबल, सांगठनिक योजना और उत्कृष्ट लोक- व्यवहार के कारण समर्पित, निष्ठावान और लडाका जन-बल खड़ा कर पूर्ण किया था। रावण के क्रूरतापूर्ण दमन से पीड़ित वनवासियों की विभिन्न जातियों को उन्होंने एक सूत्र में संगठित कर दिया।

ऋषियों, मुनियों एवं आश्रमवासियों को प्रशिक्षित कर विशिष्ट गणों तथा दलों में संगठित किया। उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया, शस्त्रों का संचालन करना सिखाया। कोई बाहरी सेना आकर किसी का युद्ध जीत कर दे तो निश्चित रूप से वह प्रभाव नहीं पड़ सकता, जो जन-सामान्य में जाग्रति लाकर, उन्हें प्रबुद्ध बनाकर, तैयार की गई सेना से हो सकता है।

 

राम: सामाजिक समरसता के सृजनात्मक प्रतीक

वनवास काल में उत्तर से दक्षिण तक का समस्त भू-भाग राम की मित्रता के सूत्र में बंध गया था। वे अपने मनुष्य-धर्म से ऊपर उठ कर कर्म का उदाहरण प्रस्तुत करने वाले आदर्श व्यक्तित्व के कारण ईश्वर बन गए। दीनहीन और उपेक्षितों को सच्चे मन से अपनाया, वन भ्रमण के समय केवट को गले लगाया। जटायू को सम्मान दिया, भालू बंदरों को आत्मीय बनाया। शबरी के जूठे बेर खाए, अहिल्या और शबरी जैसी नारियों का उत्थान किया। किसी का कभी तिरस्कार नहीं किया। शत्रु रावण को भी उन्होंने तिरस्कृत नहीं किया। इसीलिए वे समस्त मानव जाति के मन में अजात शत्रु रहे। इसी व्यक्तित्व वैशिष्ट्य के कारण श्रीराम के चौदह वर्षों के वनवास ने श्रीराम को रामत्व प्रदान किया। श्रीराम कथा की समरस जीवन शैली, सामाजिक समरसता, वसुधैव कुटुम्बकम् का ज्ञान और श्रीराम की आदर्श जीवन शैली ने उन्हें कोटि-कोटि जनता का कंठहार बना दिया। ऐसे आदर्श श्रीराम की जहां-जहां श्रीरामकथा गई, वहां-वहां स्थानीय लोगों के जीवन जीने का आधार बनी। श्रीरामकथा जड़ों से जुड़ने का माध्यम तथा अपनी संस्कृति की पहचान बनाए रखने का साधन बनी है। चित्रों में, मूर्तियों में, कठपुतली के खेलों में, कथाओं में, लोक-कथाओं में, काव्य-कविता में, कला के हर क्षेत्र में श्रीराम कथा ने अपना व्यापक प्रभाव डाला था जो  युगों-युगों से हमारे भीतर-बाहर सर्वत्र विद्यमान हैं और चिरंतन समय तक रहेंगे।

जिस कार्य के लिए श्रीराम वनवास गए, वह यही था कि प्रत्येक जन-साधारण अपनी रक्षा के लिए सिद्ध हो, स्व-आश्रित हो। जब जनता जाग उठती है, तो बड़े से बड़ा अत्याचार भी उसके सम्मुख टिक नहीं सकता। रामायण में श्रीराम का राजतंत्र भी वस्तुतः लोक को समर्पित लोकतंत्र ही था। जहां राज्य का शासक, शासक न होकर वह जन तथा तंत्र को परस्पर जोड़ने वाली कड़ी की भूमिका का निर्वहन करता था। इस प्रकार के लोकराज्य में वे लोकनायक के रूप में नागरिकों के योग-क्षेम की चिंता और उनका मार्गदर्शन करते थे। ऐसे आदर्श तंत्र में ही वहां के जन की आध्यात्मिक तथा भौतिक-दोनों ही समृद्धियां समाहित थीं। श्रीरामराज्य इसका जीवन्त रूप है। किसी भी राष्ट्र अथवा जाति का ऐसा नायक जिसका जीवन लोकभाव से परिपूर्ण होता है और उस जीवन को वह लोक-संग्रह, लोक रक्षक, लोक-मंगल तथा लोक-तंत्र के लिए समर्पित कर देता है, वही श्रीरामराज्य जैसे आदर्श लोकराज का निर्माता होता है। श्रीराम ऐसे ही लोकनायक थे।

श्रीरामकथा हमारी राष्ट्रीय पहचान है। विभिन्न प्रदेशों में इसका वेश और परिवेश भले ही बदला हो, अंतर्मन की भावना नहीं बदली है। सभी श्रीरामकथाएं परिवार एवं समाज के प्रति त्याग-स्नेह की प्रेरणा देती हैं। यह परिवार एवं सामाजिक प्रेम ही विकसित होकर अखिल मानवता में प्रभावित हो जाता है। श्रीराम के माध्यम से सम्पूर्ण देश के सभी वर्गों के लोगों को तथा श्रीराम कथा- प्रभावित अन्य देशों को संस्कृति में बांधा जा सकता है। कई प्रतिद्वंद्वी देश एवं सनातन विरोधी धर्म चाहते हैं कि भारत की इस प्रकार की सांस्कृतिक एकता खंडित कर दी जाए। उन्होंने भारत में ऐसे समर्थक तैयार भी कर दिए हैं जो भारतीयता के मेरुदंड श्रीराम का विरोध किसी न किसी रूप में करते रहते हैं।  देश की मौलिकता का संवर्धन करने के लिए भारतीय जनमानस सदियों से आदर्श रामायण को निरंतर अपना रहा है।

अयोध्या में राम जन्मभूमि पर भव्य मंदिर बनता देखकर सनातन विरोधियों के मन को शायद क्लेश या दुःख हुआ होगा, जो श्रीराम की सांस्कृतिक शक्ति से अपनी राजनैतिक विरासत को खोने से छटपटा रहे हैं। जिन्होंने श्रीरामजन्मभूमि को भी न्यायालय में उलझाने का पाप किया है। अयोध्या श्रीराम की सदियों से है और रहेगी। राममय अयोध्या में अब किसी अक्रांता का कोई स्थान नहीं है। अयोध्या में पुनः स्थापित हो रहा भव्य श्रीराम मंदिर विश्व भर के समस्त हिंदुओं को अपने श्रीराम के पुनरागमन के आनंद की अनुभूति कराएगा। रामायण की श्रीराम कथा ऐसे महामानव का चरित्र है जिसके जीवन ने मानव धर्म की उस ऊंचाई को छूआ है, जिसे आज तक कोई नहीं छू सका। अयोध्या में हो रहे भव्य राम मंदिर निर्माण मानवता के प्रकाशमान भविष्य का पर्व है। विश्व के सभी हिंदुओं को और श्रीराम भक्तों को इस प्रकाश पर्व के शुभ अवसर पर अंतर ह्रदय से बधाई एवं शुभकामनाएं।

 

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