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व्यक्ति में रामत्व होना जरूरी

व्यक्ति में रामत्व होना जरूरी

by हिंदी विवेक
in अध्यात्म, ट्रेंडींग, राम मंदिर विशेषांक जनवरी २०२४, विशेष, व्यक्तित्व, संस्कृति, सामाजिक
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मनुष्य को अपने जीवन में प्रभु राम के आदर्श पर चलना चाहिए। जब तक व्यक्ति में रामत्व नहीं आता, जीव में जड़ता बनी रहती है। परिस्थितियां कैसी भी हों, हमें अपने विवेक को धारण करना चाहिए। अपनों से छोटों के दुर्गुणों को छिपाना चाहिए और उन्हें उचित सीख देनी चाहिए। धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहना चाहिए। हर किसी को उसके श्रम के अनुरूप उसका उचित पारिश्रमिक देना चाहिए। प्रभु राम के कई ऐसे गुण हैं जिन्हें हम अपने जीवन में उतार कर एक आदर्श जीवन की कल्पना कर सकते है।

राम कौन हैं? परमात्मा, देवता, महापुरुष या साधारण मानव? यहां यह ध्यान रखना होगा कि यह सारी श्रेणियां अलग हैं। परमात्मा वह है जिसने ‘एकोऽहं बहुस्याम’ की इच्छा की और ब्रह्मांड की रचना की। परमात्मा बीज रूप से सबमें समाविष्ट हो गए। सबमें वही हैं। केवल आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों को ज्ञात है और शेष को अज्ञात। यद्यपि परमात्मा में ही सब है और परमात्मा से ही सब है किंतु सब मिलकर भी परमात्मा नहीं बन सकते। हां, उन्हें जान सकते है। उनकी अनुभूति कर सकते है। यह कैसे होगा? मनुष्य रूप में जन्म कैसे सफल होगा? परमात्मा श्रीराम ने मनुष्य रूप में जन्म लेकर क्या संदेश दिया, इसके लिए हमें अपने शास्त्रों का अध्ययन करना होगा। स्वाध्याय करना होगा, तब हम संशयरहित होकर स्वीकार कर लेंगे कि परब्रह्म परमात्मा का मर्यादा पुरुषोत्तम मनुष्यावतार हैं प्रभु श्रीराम।

राम की जीवन यात्रा से प्रेरणा

प्रभु श्रीराम भारतीय जनमानस का प्राण तत्व हैं। उन्हें केवल एक व्यक्ति के रूप में स्वीकार करना परमात्मा तत्व को चुनौती देना होगा। यद्यपि प्रभु श्रीराम ने मनुष्य रूप में जन्म लेकर समाज में एक आदर्श स्थापित किया है इसलिए इस विषय पर चिंतन अवश्य किया जाना चाहिए। श्रीराम के जन्म से लेकर उनके बचपन, गुरुकुल, वनवास और लंका विजय तक की सारी यात्रा पर दृष्टि डालें तो यह साफ हो जाता है कि प्रभु श्रीराम किस प्रकार मनुष्य के रूप में एक आदर्श हैं। प्रभु श्रीराम के दिव्य शरीर के प्राकट्य पर माता कौशल्या विनती करती हैं कि आप एक शिशु की भांति व्यवहार कीजिए; ‘कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।’ प्रभु उनकी बात मान लेते हैं। अपने अवतार के कारण व कार्य को ध्यान में रखते हुए भगवान वह सबकुछ करते हैं जिससे मनुष्य को अपना जीवन सफल करने की प्रेरणा मिले। यहां यह प्रेरणा है कि माता के आदेश का त्वरित पालन करना चाहिए। बचपन में ही कागभुसुंडी को लीला दिखा कर श्रीराम ने उन्हें अपने सर्वज्ञ होने का बोध करा दिया। किशोरावस्था में ऋषि विश्वामित्र के आदेश पर वन गए और यज्ञ विध्वंस करने आए राक्षसों का वध किया। यहां स्पष्ट संदेश है, ‘धर्मो रक्षति रक्षितः।’ अपने धर्म की रक्षा के लिए ऐसा कार्य करो कि समाज में न केवल आदर्श स्थापित हो अपितु भावी पीढ़ियां भी धर्म की रक्षा के लिए तत्पर रहें। प्रभु श्रीराम ने गुरु के आदेश पर विवाह भी किया। यहां गुरु वचनों पर विश्वास और समर्पण भाव यह दर्शाता है कि अपने से ज्ञानी और विद्वान व्यक्ति पर विश्वास करना चाहिए, वो भी ऐसे व्यक्ति पर तो अवश्य विश्वास करना चाहिए जो आपका मार्गदर्शक हो। क्योंकि वह आपको केवल विद्या दान नहीं करता, अपितु आपके व्यक्तित्व के सर्वांगीण विकास हेतु प्रयासरत होता है। राजतिलक के ठीक पहले माता कैकेयी के हठ पर पिता दशरथ की आज्ञा से वनवास हेतु राम अंधियारे में ही महल से निकलते हैं। यह इसलिए कि अयोध्यावासियों को उन्हें जाते देख विरह की वेदना न सहनी पड़े। यहां भी दूसरों की ही चिंता है। यहां यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि जब प्रभु श्रीराम को वनवास जाने की सूचना मिली तब उनके मुख पर स्मित हास्य था, वे विचलित नहीं हुए, ‘सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।’ इससे मनुष्य को सीखना चाहिए कि परिस्थितियां कैसी भी हों, हमें अपने विवेक को धारण किए समचित्त रहना चाहिए। वन गमन के पश्चात् प्रभु श्रीराम की निषादराज से भेंट होती है। निषादराज के साथ वे भोजन करते हैं और सभी वर्णों को संदेश देते हैं कि सह अस्तित्व ही प्रकृति का नियम है। आगे जब मंत्री सुमंत्र राम से वापस चलने के लिए कहते हैं तब लक्ष्मण कुछ कड़वी बात कह देते हैं। इसपर राम अपनी सौगंध देकर सुमंत्र से कहते हैं कि कृपया यह बात पिताश्री को न बताएं। यहां भगवान का संदेश है कि अपनों से छोटों के दुर्गुणों को छिपाना चाहिए और उन्हें उचित सीख देनी चाहिए। आगे केवट ने गंगा पार करवाने के लिए बहुत तर्क-वितर्क किया। गंगा पार उतरने पर श्रीराम ने संकेत किया और माता सीता केवट को अपनी रत्नजड़ित अंगूठी उतराई के रूप में देने लगी; ‘पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुदरी मन मुदित उतारी॥’

यहां यह भाव है कि हर किसी को उसके श्रम के अनुरूप उसका उचित पारिश्रमिक देना चाहिए।

इसी प्रकार वन में जड़रूपी अहिल्या को अपने स्पर्श से चैतन्य कर देना इस बात का द्योतक है कि जब तक व्यक्ति में रामत्व नहीं आता, जीव में जड़ता बनी रहती है। जीवन में श्रीराम के गुणों का स्पर्श होने पर ही ईश्वरीय चेतना का बोध होता है। प्रभु श्रीराम एक भीलनी शबरी के जूठे बेर खाकर यह संदेश देते हैं कि भगवान पदार्थ के भोग के भूखें नहीं, अपितु भाव के भूखें हैं। माता सीता का शोध करते हुए पहले हनुमान और तत्पश्चात् सुग्रीव से श्रीराम की भेंट प्रसिद्ध है। सुग्रीव से मित्रता कर उन्होंने मित्रता धर्म का पूर्णतः अनुपालन किया। सुग्रीव से छल करनेवाले बाली का वध कर सुग्रीव को उनकी पत्नी और राज-पाठ लौटाया। मित्रता निभाते हुए सुग्रीव ने भी अपनी पूरी वानर सेना प्रभु श्रीराम की सेवा में लगा दी।

उधर जब रावण की कुनीतियों से त्रस्त विभीषण ने प्रभु की शरण ली तब श्रीराम ने उन्हें लंका का राजा बना दिया। शत्रु पक्ष को निर्बल करने के लिए उस पक्ष के असंतुष्टों को अपने साथ लेकर शत्रु पक्ष पर हावी होना सरल हो जाता है। राम ने वही किया। यह सर्वविदित सत्य है कि रावण प्रकांड विद्वान था। इसीलिए मृत्यु के अंतिम क्षणों में प्रभु श्रीराम ने अपने अनुज लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान लेने भेजा। यहां यह समझना होगा कि यदि शत्रु का अंत आ गया है और यदि उसके पास कुछ ज्ञान है तो उसको ग्रहण करने में कोई बुराई नहीं है। ज्ञानार्जन हेतु सदैव तैयार रहना चाहिए।

राम तत्व का चिंतन

यदि इसपर चिंतन किया जाए कि प्रभु श्रीराम आज कहां मिलेंगे, तो पहले हमें राम तत्व को समझना होगा। शास्त्र चिंतन और स्वाध्याय राम को पाने का सरल मार्ग है। श्रीराम चरित मानस में उद्धृत है- सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥ अर्थात हे सर्वज्ञ! हे सबके हृदय में बसने वाले। यहां भाव यह है कि प्रभु श्रीराम हमारे अंतःकरण में विराजते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भी कुछ ऐसा ही कहा गया है-ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति अर्थात् सबका शासन करनेवाला नारायण समस्त प्राणियों के हृदय में स्थित है। इसके अतिरिक्त यह भी देखिए कि भगवान कहां प्रकट होते हैं- हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना अर्थात् भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। मनीषियों का दावा है कि केवल राम नाम से ही जीवन में बहुत कुछ सकारात्मक घटने लगता है। कहौं कहां लगि नाम बड़ाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई अर्थात् मैं नाम की बड़ाई कहां तक कहूं, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।

हर भारतीय प्रभु श्रीराम की लीलाओं से भलीभांति परिचित है। किंतु समय-समय पर श्रीराम की जीवनी का चिंतन करते रहने से चित्त में शुद्धता और शरीर में ऊर्जा का संचार हो जाता है। श्रीराम भगवान तो हैं ही, व्यक्ति के रूप में भी श्रीराम आदर्श हैं। प्रभु श्रीराम के गुणों को आत्मसात करनेवाले मनुष्य को ही रामत्व का बोध हो पाएगा। मनुष्य का नश्वर शरीर शाश्वत ईश्वर को अपनाने का सशक्त माध्यम है। श्रीराम शाश्वत हैं। जिसका आदर्श श्रीराम हैं, उसका जीवन धन्य है।

– अभय मिश्र

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