अयोध्या का कायाकल्प

अयोध्या अपने साथ कई प्राचीन इतिहासों को समेटे हुए है। तैत्तिरीय आरण्यक, वाल्मीकि रामायण, महाभारत, ब्रह्माण्ड पुराण अग्निपुराण तथा बौद्ध ग्रंथों में भी अयोध्या का उल्लेख है। पुराणों से लेकर अब तक के सफर में अयोध्या ने बहुत उतार-च़ढ़ाव देखे हैं। कई विषम परिस्थितियों को झेलते हुए अयोध्या ने अब तक का सफर पूरा किया।

अयोध्या विश्व के प्राचीनतम नगरों में से एक है। विश्व के प्राचीनतम वांग्मय-वेदों में इनका उल्लेख है। अथर्ववेद के दशमकांड के दूसरे सूत्र का 31वां मंत्र है –

अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या।

तस्यां हिरण्ययः कोशः स्वर्गो ज्योतिषावृतः॥

अर्थात इस देवताओं की पूरी अयोध्या में नौ द्वार हैं और आठ चक्र इसकी रक्षा करते हैं। इसका कोश सब प्रकार से परिपूर्ण है और स्वर्गीय ज्योति से यह निरंतर पूरित और शोभित तथा आच्छादित नगरी है। तैत्तिरीय आरण्यक तथा वाल्मीकीय रामायण एवं महाभारत में भी अयोध्या का उल्लेख है और ब्रह्माण्ड पुराण तथा अग्निपुराण में भी और बौद्ध ग्रंथों में भी।

विश्व के सर्वप्रथम सम्राट महाराज मनु की राजधानी अयोध्या ही रही है। अतः अयोध्या विश्व की प्राचीनतम राजधानी है। जहां से सम्पूर्ण विश्व का शासन होता था। इसके सूर्यवंशी सम्राटों की कीर्तिगाथा विश्वविख्यात है। सम्राट इक्ष्वाकु से लेकर भगवान श्रीराम तक अत्यंत तेजस्वी एवं ज्ञानी सम्राटों ने यहां से विश्व का शासन किया है। अग्निपुराण में सूर्यवंशी सम्राटों की पूरी सूची दी हुई है। स्वयं अग्निदेवता ने अध्याय 5 से अध्याय 11 तक 7 अध्यायों में भगवान राम के अवतार की कथा बताई है और स्पष्ट किया है कि रावण के वध के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए भगवान राम महाराज दशरथ के पुत्र के रूप में अवतरित हुए।

महाकवि कालिदास ने अयोध्या को उत्तरकौशल की राजधानी कहा है। वायु पुराण एवं पद्म पुराण में अयोध्या के बहुत से सूर्यवंशी राजाओं की सूची दी हुई है। महाभारत में अध्याय 60 एवं अध्याय 70 दोनों में अयोध्या नगरी का उल्लेख है। महान चक्रवर्ती सम्राट महाराज नल विपदा में पड़ने पर अयोध्या नरेश ऋतुपर्ण के यहां सारथी बनकर गुप्तवेश में रहे थे। वाल्मीकीय रामायण के बालकाण्ड के अनुसार पवित्र सरयू नदी के तट पर शोभित अयोध्यापुरी 12 योजन लम्बी एवं 3 योजन चौड़ी थी।

इस प्रकार प्राचीनतम काल से इस महापुरी की महिमा है और पवित्रतम 7 पुरियों में संस्कारी और निष्ठावान हिन्दू इसका नित्य ही स्मरण करते हैं। उस प्रातः स्मरण श्लोक का आरंभ ही अयोध्या से होता है- ‘अयोध्या, मथुरा, माया, काशी, कांची, अवन्तिका। पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिका।’

अतः अयोध्या में किसी भी प्रकार के विवाद की वस्तु दूर-दूर तक कहीं कोई न तो संभावना थी और न ही इसकी कोई गुंजाइश थी। 17वीं शताब्दी ईं में जब मुगलिया जागीर अपने चाचा की हत्या करके छीनकर मुइउद्दीन मुहम्मद अनेक हिन्दू राजाओं की सहायता से वहां का जागीरदार बना तो उसके चाटुकार उसे औरंगजेब कहने लगे। उसका भी दिमाग आसमान पर चढ़ गया और वह मजहबी उग्रवाद का पोषण करने लगा। साथ ही बीच-बीच में जयपुर और जोधपुर के सनातन धर्म के अनुयायी राजाओं से गहरी मित्रता भी रखता रहा। उसके इशारे पर 17वीं शताब्दी ई. में किसी स्थानीय गुण्डों के गिरोह ने रामजन्म स्थान को अपवित्र और खंडित किया। जिसका हिन्दुओं ने लगातार विरोध किया परन्तु इसे बहुत महत्व दूर के लोगों ने नहीं दिया। जब अंग्रेजों ने भारत में अपने विरूद्ध हवा देखी तो 19वीं शताब्दी में उन्होंने मजहबी उग्रवाद को योजनापूर्वक और अधिक धधकाया तथा हिन्दू मुस्लिम टकराव को सब प्रकार से बढ़ावा देकर फिर बीच में मध्यस्थता का नाटक करने का बहाना करते रहें। अब तो यह स्वयं ब्रिटिश संसद के साक्ष्य से स्पष्ट है कि 1858 ई. से पहले भारत में कोई भी अधिकृत ब्रिटिश न्यायालय नहीं था, कोई ब्रिटिश अधिवक्ता नहीं था और कोई अधिकृत ब्रिटिश जज नहीं था। ईस्ट इडिया कंपनी निकृष्टतम जालसाजों का घिनौना गिरोह थी और उसने नकली जज, नकली वकील और नकली कोर्ट बनाकर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तथा अनेक हिन्दू राजाओं के बीच भी प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देकर बीच में दलाली की और अपने लिये जगह बनाई। रामजन्मभूमि के मामले में भी स्थानीय मुस्लिम गिरोह को उभारकर फिर हिन्दुओं के प्रतिरोध को रोककर ऐसी ही मध्यस्थता ब्रिटिश प्रशासन ने की। वस्तुतः बाबर से कोई भी संबंध इस मजहबी उग्रवादी गिरोह का दूर-दूर तक नहीं है क्योंकि बाबर एक मामूली और दर-दर भटकता हुआ चगताई तुर्क था। उसे कथित बादशाह बताने का काम ‘बाबरनामा’ नामक एक जालसाजी भरी रचना के जरिए इलियट और डाउसन ने 19वीं शताब्दी ई. में पहली बार किया। (इस कथित किताब की कथित पांडुलिपियां टुकड़ों-टुकड़ों में ही मिली बताई जाती हैं और इनका प्रकाशन पहली बार 19वीं शताब्दी ईस्वी में ही हुआ तथा भारत में इसकी कोई भी प्रति कभी भी उपलब्ध नहीं थी। वह अंग्रेजों ने ही पहली बार उपलब्ध कराई।)

इस प्रकार इसे बाबरी मस्जिद या बाबरी ढांचा नाम फिरंगियों की शह पर 19वीं शताब्दी में पहली बार दिया गया। इतनी बड़ी जालसाजी की कल्पना नहीं करने के कारण बाद के अनेक हिन्दू विद्वानों ने भी इलियट और डाउसन के साक्ष्य को बिना परीक्षण के मान लिया।

इस प्रकार बाबरी ढांचे का बाबर से कोई सम्बंध नहीं था। बाबर की कोई हैसियत नहीं थी कि वह श्री अयोध्या के किसी मंदिर को तोड़ता। यह काम मुइउद्दीन मुहम्मद (तथाकथित औरंगजेब) के समय स्थानीय मजहबी उग्रवादियों ने किया और 19वीं शताब्दी ईस्वी में फिरंगियों ने इसे तूल दिया। जबकि उसके पूर्व कई बार अनेक धर्मनिष्ठ हिन्दू जन मजहबी उग्रवादियों के इस उत्पात को तहस-नहस कर चुके थे।

स्वाधीन भारत में स्वाभाविक तो यह भी होता कि भारत के बहुसंख्यक धर्मनिष्ठ समुदाय एक ही झटके में अयोध्या, मथुरा और ज्ञानवापी, काशी पर अपना स्वाभाविक अधिकार जमा लेते। परंतु अंग्रेजों की योजना से हिन्दुओं को और भारत को कमजोर करने के लिये बनाई योजना के अंतर्गत गांधीजी और नेहरूजी ने मजहबी उग्रवाद को सब प्रकार से संरक्षण दिया और धर्मनिष्ठ हिन्दुओं का व्यवस्थित दमन किया। जिसे देखकर धर्मनिष्ठ हिन्दुओं ने दीर्घकालीन योजना बनाई और शांति, सूझबूझ, संयम, धैर्य तथा वीरता के साथ 6 दिसम्बर 1992 ई. को इस पाप के चिन्ह को ढहा कर श्रीराम जन्मभूमि के नवोन्मेष या तीर्थ के नवीनीकरण का एक विराट पुरूषार्थ संभव किया। इससे हिन्दुओं की वीरता, शांतिप्रियता, सूझबूझ, दीर्घकालिक रणनीति की सामर्थ्य, कुशल संयोजन, परस्पर प्रेम और सामंजस्य तथा धर्मनिष्ठा का पता चलता है। साथ ही विधि और न्याय की व्यवस्था के प्रति गहरे आदर का भी प्रमाण मिलता है। श्रीरामजन्मभूमि को पापमय उग्रवादी आघातों के चिन्ह से मुक्त करना एक स्तुत्य पुरुषार्थ है। यद्यपि 1947 ई.में ही इन पवित्र स्थलों पर पूर्ण आधिपत्य कर लेना हिन्दुओं के लिए स्वाभाविक होता परंतु यह स्वाभाविक कार्य नहीं हो सका, यह इस बात का प्रमाण है कि गांधी और नेहरू तथा नेहरूवादी कांग्रेस ने हिन्दुओं को किस तरह दमित और आतंकित तथा उत्पीड़ित कर रखा था तथा धर्म जैसे विषय में भी (जो विश्व में सर्वाधिक प्रेरणा और उत्साह तथा बलिदान का आधार है) अपने मन को मारने और अपनी भावनाओं को दबाकर रखने के लिये हिन्दुओं को विवश कर रखा था। यह किसी भी शासक समूह के लिये अत्यन्त धिक्कारयोग्य तथा कलंक देने वाली स्थिति है। हिन्दू समाज ने 6 दिसम्बर 1992 ई. को उस कलंक का एक चिन्ह मिटाया और मई 2014 में उन कलंकित समुदायों की सत्ता सदा के लिये समाप्त कर दी है। श्रेष्ठ लक्ष्यों के लिये कष्टसहन और योजनापूर्वक कार्यनीति की विशिष्ट सामर्थ्य का परिचय इस प्रकार हिन्दुओं ने दिया है।

अब श्रीराम जन्मभूमि पर श्रीरामलला का दिव्य, भव्य और गरिमामय मंदिर बनने के साथ ही समस्त अयोध्या का कायाकल्प केन्द्र की मोदी सरकार और प्रदेश की योगी सरकार के संयुक्त प्रयास से हो रहा है। जिसमें धर्मनिष्ठ हिन्दू समाज की ही निर्णायक भूमिका है। इस कायाकल्प के कारण अयोध्या समस्त विश्व के श्रद्धालु रामभक्तों के लिये एक पवित्र तीर्थ की तरह है। इसलिये यहां वैश्विक स्तर की सेवाएं एवं सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जा रही हैं। परन्तु साथ ही यह सजगता आवश्यक होगी कि धर्मशास्त्रों के प्रावधानों का परिपूर्ण पालन करते हुए तथा अयोध्या के आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक मंगलमय परिवेश को सदा समृद्ध रखते हुए ही यह कायाकल्प सम्पन्न किया जाये। किसी भी स्थिति में इस पवित्र तीर्थ की पवित्रता, शांति और धार्मिकता को क्षति नहीं पहुंचे, यह देखना शासन का सर्वोपरि कर्तव्य है। निश्चय ही श्रद्धालुओं को भी इसमें पूरा सहयोग करना होगा।

                                                                                                                                                                                       रामेश्वर मिश्र ‘पंकज’

This Post Has One Comment

  1. Bibhupada Mishra

    Very good 👍

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