राम मंदिर के संघर्ष की कहानी

आक्रमण और प्रतिरोध व प्रतिशोध की चिंगारी अयोध्या के राम मंदिर पर मुगल-काल से ही छिटक रही है। आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम से लेकर औरंगजेब द्वारा काशी, मथुरा, अयोध्या और सोमनाथ के मंदिरों को बार- बार तोड़ा गया। वहीं मुगल वंश के शासकों ने मंदिर तोड़ कर उसी स्थान पर मस्जिद बनाने की शुरुआत की। 

मंदिरों के इस देश में जहां हर देवता के असंख्य मंदिर हैं, वहां अयोध्या का राम मंदिर ही इतना विशेष महत्व क्यों रखता है कि इसके लिए पूरा राष्ट्र ही समर्पित हो जाए? क्या केवल इसलिए कि वह मंदिर राम जन्मभूमि पर बन रहा है? यदि बात इतनी ही होती, तो अयोध्या में ही अनेक बड़े और भव्य मंदिर हैं। वे सब भी राम मंदिर ही हैं। फिर एक और की आवश्यकता क्यों?

यदि हम आक्रमणकारियों द्वारा ध्वस्त कर दिए गए मंदिरों की बात करें तो उनकी संख्या भी बहुत अधिक है। कश्मीर का मार्तंड मंदिर, भोजशाला, मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर, हम्पी के मंदिर, पाटन का रुद्र महालय और असंख्य बड़े और महत्वपूर्ण मंदिर अब भी खंडहर रूप में हैं, फिर राष्ट्र की दृष्टि अयोध्या राममंदिर पर ही क्यों टिकी है? उन मंदिरों का पुनरोद्धार भी तो आवश्यक है।

इस प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए हमें पहले मंदिर तोड़े जाने के कारणों को तलाशना होगा। भारत में घुसे पहले बर्बर आक्रमणकारी मोहम्मद बिन कासिम से लेकर औरंगजेब तक हर आक्रातां ने अपनी साम्प्रदायिक कट्टरता के कारण मंदिरों, गुरुकुलों, विश्वविद्यालयों को तो निशाना बनाया ही, एक बड़ा कारण यह भी था कि वे मंदिर को तोड़ कर भारतीय जनमानस में हीन भावना भर देना चाहते थे। मंदिर तोड़ना एक तरह की चुनौती थी कि हम तुम्हारे पूज्य देवालयों को ध्वस्त कर देंगे और तुम कुछ नहीं कर पाओगे। इसी के कारण काशी, मथुरा, अयोध्या और सोमनाथ के मंदिरों को बार-बार तोड़ा गया। ये देश के सबसे प्रमुख तीर्थ थे, यहां सर्वाधिक श्रद्धालु आते थे, और इनको ध्वस्त करने से हिन्दू जाति के मानस पर सर्वाधिक असर होना था।

सारी संस्कृतियों के प्राचीन मंदिर ढहा दिए गए। उन देशों और भारत में एक अंतर था। वहां प्रतिरोध शून्य था, यहां हर क्षण प्रतिरोध हुआ। भारतीय जनमानस एक क्षण के लिए भी उनकी आध्यात्मिक अधीनता स्वीकार न कर सका, और उनके बर्बर कृत्यों के प्रतिरोध में लगा रहा।

अयोध्या के राम मंदिर की कहानी उसी प्रतिरोध की सबसे महत्वपूर्ण, लम्बी और यशस्वी कहानी है। सन 1528 ई में जब आक्रांता बाबर के आतंकियों ने मंदिर तोड़ा, तब से आज तक हिन्दू समाज इसे प्रतिष्ठा और स्वाभिमान का प्रश्न बना कर लड़ता रहा।

सन 92 की घटना अनेक अर्थों में कालजयी घटना है। प्रारंभिक मुस्लिम शासक केवल मंदिर तोड़ कर लौट जाते थे, पर गुलाम वंश के शासकों ने मंदिर तोड़ कर उसी स्थान पर मस्जिद बनाने की शुरुआत की। यह तीर्थ स्थलों पर कब्जा कर लेने की रणनीति थी। इसका सबसे बड़ा नुकसान यह होता था कि फिर यदि कोई हिन्दू शासक प्रभावी होता भी, तो वह मूल स्थान पर मंदिर नहीं बना पाता था। उदाहरण के लिए काशी विश्वनाथ मंदिर को क्षति मोहम्मद गोरी ने भी पहुंचाई, पर कन्नौज नरेश जयचंद के पुत्र हरिश्चन्द ने उसका पुनः निर्माण और शुद्धिकरण करा लिया और मंदिर पूर्ववत हो गया। पर जब मंदिर को रजिया सुल्तान ने तुड़वाया, तो उसने उसी स्थान पर मस्जिद बनाया। जिसके कारण दुबारा मंदिर बना भी तो मूल स्थान से अलग बना। मूल स्थान पर रजिया की मस्जिद आज भी खड़ी है। पुनः जब नए मंदिर को भी औरंगजेब ने तुड़वाया तो उस स्थान पर मस्जिद का निर्माण कराया। फिर जब राजमाता अहिल्याबाई होलकर ने मंदिर का पुनर्निर्माण कराया तो उन्हें तीसरे स्थान पर निर्माण कराना पड़ा। मंदिर के स्थान पर बनी मस्जिद अब भी खड़ी है।

वस्तुतः हिन्दू जनमानस किसी अन्य सम्प्रदाय के तीर्थों को भी ध्वस्त करने को उचित नहीं मानता था। हम में तुममें खड्ग खम्भ  में घट घट ब्यापै राम की भावना वाले लोग किसी भी सम्प्रदाय के धर्मस्थलों से घृणा नहीं करते। पर इस सहिष्णुता का नुकसान ही हुआ कि अपने अधिकांश प्रमुख तीर्थ विधर्मियों के हाथ में चले गए। ऐसे में हिन्दू जनता द्वारा बिना किसी राजकीय सहयोग के अपने एक प्रमुख तीर्थ पर हुए अवैध अतिक्रमण को साफ कर वापस ले लेने की सन 1992 वाली घटना अद्वितीय भी है और भविष्य के लिए मार्गदर्शक भी।

अब 500 वर्षों बाद पुनः राम जन्मभूमि मंदिर के निर्माण की घटना किसी आम मंदिर बनने जैसी घटना नहीं है। राम मंदिर का बनना इस बात की गवाही है कि धर्म के लिए किए गए संघर्षों की आयु अधिक भले हो, उनमें सफलता अवश्य ही मिलती है। न केवल भारत के लिए, बल्कि बर्बर तलवारों से ध्वस्त हुई समस्त संस्कृतियों के लिए राम मंदिर एक उदाहरण बन रहा है कि अपने देवस्थलों को वापस भी पाया जा सकता है।

राम मंदिर आंदोलन की विजय युग युगांतर के लिए प्रेरणादायी है। यह विजय अन्य अपहृत धर्मस्थलों की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगी। काशी, ज्ञानवापी और मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान के मंदिर के लिए शुरू हो रहे आंदोलन इसका प्रमाण हैं।

राम मंदिर निर्माण इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है। यह भारत के लिए ही नहीं, समग्र संसार के लिए धर्म और शान्ति का प्रतीक है।

                                                                                                                                                                                      सर्वेश तिवारी ‘श्रीमुख ‘

 

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