रामभक्तों से हार गए वामपंथी

अपने सांस्कृतिक गौरव और राष्ट्रीय स्वाभिमान हेतु हिन्दू समाज का श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का 500 वर्षों का सतत और सहस्रों बलिदानों का यह संघर्ष मानव सभ्यता के ज्ञात इतिहास का सबसे बड़ा और दीर्घकालिक संघर्ष है। प्रताप नारायण मिश्र जी की पुस्तक ‘क्या कहती सरयू धारा’ के अनुसार हिन्दू समाज ने 79 बार के संघर्ष के पश्चात अपने माथे पर लगे उस कलंक को मिटाया। श्रीराम का कार्य बिना बाधा के कब पूर्ण हुआ है! 1947 के पश्चात स्वाधीन भारत में भारत की आत्मा श्रीराम के जन्मभूमि पर मंदिर आसानी से बन जाना चाहिए था पर ऐसा नहीं हुआ।

भारतीयता और विशेषकर हिन्दू गौरव परंपरा के घोर विरोधी वामपंथियों ने इस पुनीत कार्य में हर संभव बाधा उत्पन्न की। उन्होंने जनमानस, सरकार, न्यायतंत्र, और सत्यान्वेषण की पूरी प्रक्रिया को प्रभावित करने और उसे सत्य से दूर ले जाने के लिए षड्यंत्र किये। भ्रामक बातो का प्रचार हो, कामरेडों को इतिहासकार के रूप में स्थापित कर उनके माध्यम से जनमानस तथा न्यायतंत्र को भ्रमित करना हो, दो समुदायों में संघर्ष और दंगे की परिस्थिति का निर्माण करना हो या पश्चिम बंगाल में अपने सरकारी तंत्र का प्रयोग कर रामभक्तों की हत्या हो, इन लोगों ने सभी प्रकार के षड्यंत्रों का अवलम्बन किया।

श्रीराम जन्मभूमि मंदिर और बाबरी ढांचा संघर्ष में मुस्लिम समुदाय को बौद्धिक मोर्चे पर सक्रिय सहयोग और उनके मार्गदर्शक की भूमिका में वामपंथी रहे है। 1991 में जब राम जन्मभूमि आंदोलन से सम्पूर्ण देश आंदोलित था तब 4 वामपंथियों ने देश के तत्कालीन गृह मंत्री को पत्र लिखा। उन चार तथाकथित इतिहासकारों में राम शरण शर्मा, जिनको सीपीआईएम की वेबसाइट ‘जनता का इतिहासकार’ कहती है, कामरेड डी एन झा, अतहर अली और सूरज भान थे। ये वामपंथी विचारधारा के वाहक कामरेड ख्यात हिन्दू विरोधी थे। इन लोगों ने खुदाई के पश्चात मिले स्तम्भों को गोशाला के खम्भे तक बताये तथा चंद्रशेखर सरकार को अपना एक दस्तावेज सौपा और ये दावा किया कि इसमें ये प्रमाण(?) है कि वहां कभी राम मंदिर नहीं था। सम्पूर्ण वामपंथी प्रोपगंडातंत्र और रोमिला थापर, इरफ़ान हबीब जैसे वामपंथी प्रोपेगंडा तो आज तक सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पा रहे। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के पक्ष में न्यायलय का निर्णय वामपंथी षड्यंत्रों की पराजय है। इसे पचाना उनके लिए बहुत कठिन है जो राम के अस्तित्व को नकार रहे थे और उसके वैज्ञानिक प्रमाण मांग रहे थे।

1989 -1992 का वो कालखंड श्रीराम जन्मभूमि के संघर्ष में बहुत महत्व का है। 1 फरवरी 1989 को प्रयाग कुम्भ मेले में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा आयोजित धर्म-संसद में पूज्य देवराहा बाबा की उपस्थिति में देश के प्रत्येक गांव में रामशिला पूजन का निर्णय लिया गया। तदनुरूप पश्चिम बंगाल में भी विश्व हिन्दू परिषद् ने रामशिला पूजन का कार्यक्रम अनुष्ठित किया। परन्तु हिन्दू समाज के इस आंदोलन की एक बड़ी बाधक शक्ति का पश्चिम बंगाल की राज्य सत्ता पर कब्ज़ा था। वाम शासित प्रदेश में रामशिला का पूजन वे कैसे होने देते? शासन ने अपने सभी तंत्रों को तथा पार्टी स्तर पर अपने कामरेडों को स्पष्ट आदेश दिया कि किसी भी कीमत पर गावों में रामशिला पूजन नहीं होनी चाहिए। कट्टरपंथी मुसलमानों को उकसा दिया गया कि जहाँ रामशील पूजन कार्यक्रम हो वहाँ वे बाधा दें। इसमें शासन का पूरा सहयोग था। 13 अक्टूबर 1989 को महिषादल थानांतर्गत उत्तरपाली गांव में रामशिला पूजन आरम्भ होने से कुछ ही देर पहले वाम-समर्थित मुस्लिमों के एक गुट ने पुलिस की उपस्थिति में स्वामी गंगेश्वरानन्द और शिलापूजन समिति के सदस्य प्रसेनजित सामंत को बांस से मार कर घायल कर दिया। 18 अक्टूबर 1989 को मुर्शिदाबाद के बाजितपुर में सीपीएम की सभा हुई और 21 अक्टूबर को रामशिला पूजन के कारण जयंत पाल नामक एक स्वयंसेवक की हत्या कर दी गई। इस प्रकार वामपंथियों ने सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ तथा शासनतंत्र की शक्ति का प्रयोग कर रामपंथियों की हत्या करवाई।

वाम सरकार के घोषित विरोध, हत्या, रामशिला को बलात पुलिस के द्वारा उठवा कर थाने में रखने, बलवा करवाने जैसे तमाम बाधाओं को पार कर श्रीराम भक्तों ने पश्चिम बंगाल में 3000 स्थानों पर रामशिला पूजन किया। प्रदेश की राजधानी कोलकाता में तीन दिनों का भव्य कार्यक्रम किया और साढ़े पांच किलोमीटर लम्बी भव्य शोभायात्रा निकाली। कोलकाता के लोगों ने कहा “इतना भव्य कार्यक्रम हमने इससे पहले कभी नहीं देखा”। ये वो दौर था जब पार्टी को पसंद नहीं आने वाला अख़बार पढ़ने पर भी हत्या हो जाती थी और किसी की हिम्मत नहीं होती थी कि इस पर चर्चा तक करे।

1992 की कारसेवा के समय भी वामपंथियों ने रामभक्तो को अयोध्याजी नहीं जाने देने के लिए जितने भी उपक्रम करने चाहिए वो सभी किये। इसके बाद भी पश्चिम बंगाल से कारसेवक अयोध्याजी पहुंचे। मुलायम सरकार ने जब गोली चलवाकर कारसेवकों की नृशंस हत्या की, उसमे कई लोग बलिदान हो गए पर कुछ लोग घायल अवस्था में भी अपने घर को लौटे। बलिदानी राम-शरद कोठरी के शव को उनका परिवार अयोध्याजी से कोलकाता न लाए इसके लिए भी पुलिस ने उनको बार-बार चेताया। गोली लगने से घायल कारसेवकों के परिजन और स्थानीय कार्यकर्ता तब बहुत कठिन परिस्थिति में पड़ गए थे जब गोली का विष शरीर में फैल रहा था पर स्थानीय प्राइवेट अस्पताल उस कारसेवक को ‘लोकल कमिटी’ के कामरेडों के भय से भर्ती नहीं कर रहे थे। कही पुलिस को पता न चल जाये, इसलिए सरकारी अस्पताल में ले जाने की बात भी सोचना मुश्किल था। कुछ लोग उचित चिकित्सा के अभाव में चल बसे तो कुछ लोग सौभाग्य से घर से दूर किसी परिचित के अस्पताल में चिकित्सा करवाकर जैसे-तैसे जीवित बचे।

इतनी बाधाओं के बाद भी कोई भी विरोधी शक्ति रामभक्तों का न तो उत्साह कम कर पाई न भयभीत कर उन्हें उनके राम-काज करने से रोक पाई। श्रीराम भक्तों को कृपा मिलती है तो दानवों को उनके कोप का भाजन भी बनना पड़ता है। 9 नवम्बर 1989 को विश्व में दो बड़ी घटनाएं हुई जिसने वामपंथी षड़यंत्र और अहंकार को चकनाचूर कर दिया। 9 नवम्बर 1989, देवोत्थान एकादशी तिथि को अयोध्याजी में हजारों रामभक्तों और पूज्य साधु-संतों की उपस्थिति में कामेश्वर चौपाल जी ने श्रीराम मंदिर का शिलान्यास किया और इसी दिन पश्चिम में बर्लिन की दिवार भी वहां की जनता ने तोड़ दी। ये दिन वामपंथी षड्यंत्रों के विरुद्ध सत्य और सज्जन शक्ति के विजय का दिन था। उस देवोत्थान एकादशी के शिलान्यास से लेकर अबतक इस संघर्ष का इतिहास साक्षी है कि रामरामभक्तों के पुरुषार्थ ने षड्यंत्रकारी वामपंथियों को प्रत्येक मोर्चे पर पराजित किया है।

– विप्लव विकास

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