2024 लोकसभा चुनाव की सम्भावित तस्वीर

आगामी लोकसभा चुनाव 2024 में विपक्षी आईएनडीआईए गठबंधन पर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की ‘एक अकेला सब पर भारी’ कहावत सटीक होते हुए दिखाई दे रही है। देश में राममय वातावरण, आम लोगों में राष्ट्रीय चेतना एवं जागरूकता का ऊंचा उठता स्तर और मोदी लहर अभूतपूर्व चुनावी सफलता का संकेत दे रही है।

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के साथ ही लोकसभा चुनाव की पूरी पृष्ठभूमि बन गई थी। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने जैसे ही हैट्रिक की बात की, विरोधियों ने उनके विरुद्ध हमला शुुरु कर दिया चूंकि भाजपा तीन राज्यों में जबरदस्त विजय के साथ सरकार बना रही थी, इसलिए विरोधियों के लिए इस सत्य को नकारना कठिन था तो उन्होंने उत्तर और दक्षिण का विभाजन शुरू कर दिया। यह तर्क दिया गया कि भाजपा केवल हिंदी भाषी उत्तर राज्यों की पार्टी है। यहीं से गोमूत्र प्रदेश जैसे शब्द उत्तर भारत के लिए आए, जिनके विरुद्ध व्यापक प्रतिक्रिया देखी जा रही है। अभी शायद इसके असर को समझना आसान नहीं हो, पर आगामी लोकसभा चुनाव में निश्चित रूप से इसकी प्रतिध्वनि सुनाई देगी।

चुनाव आयोग लोकसभा चुनाव की घोषणा भले अभी दो महीने बाद करेगा, पर पूरी राजनीति इसके इर्द-गिर्द घूम रही है। हमारे सामने इस समय राष्ट्रीय स्तर पर दो प्रमुख समूह भाजपा के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन या राजग तथा आईएनडीआईए है। कुछ छोटे दल हैं, जो इनमें से किसी के साथ नहीं हैं। इन दो प्रमुख समूहों की स्थिति के आकलन से लोकसभा चुनाव की एक मोटा-मोटी तस्वीर बन जाती है।

भाजपा ने कहा है कि वह 2024 में 50 प्रतिशत वोट पाने का लक्ष्य लेकर आगे बढ़ रही है। विपक्षी दलों ने घोषणा की है कि वह भाजपा और राजग के उम्मीदवारों के विरुद्ध हर जगह एक ही उम्मीदवार खड़ा करेगी। इस नाते भाजपा की यह नीति उचित है। इसका उपहास उड़ाने वाले उत्तर प्रदेश का उदाहरण न भूलें। 2019 लोकसभा चुनाव में सपा व बसपा के गठबंधन होने पर तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की थी कि वह 50% वोट पाने के लक्ष्य पर काम कर रहे हैं। परिणाम में उसे 49.5% मत प्राप्त हुए। 1984 में कांग्रेस को 46.86 प्रतिशत मत मिले थे, इस कारण उसे 414 लोकसभा सीट प्राप्त हुआ था। आज की राजनीति में किसी भी पार्टी को इतना मत राष्ट्रीय स्तर पर मिलना असंभव जैसा लगता है। किंतु कौन जानता है कि चुनाव आते-आते देश का वातावरण कैसा होगा।

पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 37.7 प्रतिशत मत के साथ 303 लोकसभा सीट प्राप्त की थी। भाजपा इतना अधिक मत और सीटें प्राप्त करेगी, इसकी कल्पना ज्यादातर विश्लेषकों और पार्टियों को नहीं थी। 2014 में भाजपा ने 31.34 प्रतिशत मत एवं 282 सीट प्राप्त की थी। चूंकि 1984 के लोकसभा चुनाव के बाद किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था, इसलिए आम आकलन यही था कि नरेंद्र मोदी की इतनी लोकप्रियता नहीं हो सकती कि वह बहुमतविहीनता के दौर को खत्म कर देंगे परंतु ऐसा हुआ।

2019 का चुनाव 2018 में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की पराजय की पृष्ठभूमि पर आयोजित हुआ था। यह माना गया था कि भाजपा का ग्राफ गिर रहा है, नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता उतार पर है तथा राफेल के कथित भ्रष्टाचार का मुद्दा भाजपा को ले डूबेगा। कम से कम इस समय वह स्थिति नहीं है। भाजपा इन तीनों राज्यों का चुनाव जीत चुकी है।

अयोध्या में श्रीराम की प्राण-प्रतिष्ठा को पूरे संगठन परिवार ने इतना व्यापक रूप दिया है कि वो भारत के करीब 65 करोड़ लोगों तक पहुंच रहे हैं। प्राण-प्रतिष्ठा कार्यक्रम को इतना भव्य और आकर्षक बनाया गया है कि तत्काल पूरे देश में राम मंदिर की प्रतिध्वनि गूंज रही है। इस बात को अब कोई नकार नहीं सकता कि 2024 के चुनाव में फिर अयोध्या का राम मंदिर दूसरे रूप में बड़े मुद्दे के रूप में आम लोगों के अंतर्मन में बना रहेगा। भाजपा के समानांतर अगर आईएनडीआईए वाकई एक समूह के रूप में चुनाव तक बना रहता है तो उसकी स्थिति क्या होगी? विपक्षी पार्टियां खासकर आईएनडीआईए के घटक दलों ने प्राण प्रतिष्ठा में शामिल होने का निमंत्रण ठुकरा कर समय की धारा को फिर से न पहचानने का एक प्रमाण दिया है।

2014 में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता तथा उनके नेतृत्व में भाजपा के सत्ता में आने का मूल कारण ही हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रीय चेतना तथा भारत को अपनी पहचान के साथ विश्व के उच्चतम शिखर पर देखने का जनता के अंदर पैदा हुआ प्रबल भाव ही था। विरोधी न तब जनता की इस सामूहिक भावना को पहचान सके और न आज ही पहचान पा रहे हैं। ठीक इसके विपरीत सत्ता में आने पर सोनिया गांधी की अध्यक्षता वाली यूपीए सरकार ने स्वयं को सेक्युलर साबित करने के लिए सच्चर आयोग से लेकर अल्पसंख्यक मंत्रालय का गठन तथा रामसेतु और राम को कल्पना का विषय न्यायालय में बताकर अपनी स्थिति धीरे-धीरे कमजोर बनानी शुरू कर दी थी।

सत्ता से बाहर होने के बावजूद कांग्रेस जिसका वास्तविक नेतृत्व इस समय सोनिया गांधी और राहुल गांधी के हाथों में दिखता है, प्रकारांतर से इस नीति को आगे बढ़ा रही है। एक ओर पूरे देश का राममय वातावरण और दूसरी ओर राहुल गांधी के नेतृत्व में भारत जोड़ो न्याय यात्रा की तुलना करें तो दिख जाएगा कि इस समय विचार के स्तर पर बिल्कुल दो धाराएं देश में बन चुकी हैं।

2024 के लोकसभा चुनाव के पूर्व कांग्रेस उस धारा को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है जिसको देश का बहुमत अंतर्मन से स्वीकार करने की बात तो छोड़िए काफी हद तक नकार चुका है। एक तो आईएनडीआईए अभी एक गठबंधन के रूप में इकाई बन नहीं पाया है। ऐसा लगता है जैसे यह कांग्रेस का वर्चस्व वाला समूह हो। पिछले 12 जनवरी को आयोजित बैठक में आईएनडीआईए के कई प्रमुख नेता शामिल नहीं हुए, जिनमें ममता बनर्जी और अखिलेश यादव प्रमुख थे। नीतीश कुमार ने इस पर चिंता भी प्रकट की। दूसरी ओर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अंदर ऐसा कोई वैचारिक विभाजन नहीं है।

लोकसभा चुनाव में नेतृत्व का चेहरा अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। इस दृष्टि से विचार करें तो नरेंद्र मोदी के समानांतर पूरे विपक्ष में कोई एक नेता नहीं, जिसे जनता उनके समक्ष या बड़ा मान सके। आईएनडीआईए में वैसे भी नेतृत्व को लेकर व्यापक मतभेद है क्योंकि अनेक नेताओं की महत्वाकांक्षा प्रधान मंत्री बनने की है।

मतदाताओं के सामने इसकी पूरी तस्वीर होगी और यह भी उनके मत के निर्धारण में एक बड़ा कारक होगा। प्रधान मंत्री मोदी ने तीसरी पारी में भारत को विश्व की तीसरी अर्थव्यवस्था तथा 2047 तक विकसित भारत बनाने का लक्ष्य निर्धारित कर दिया है। इसके आधार पर देशभर में कार्यक्रम हो रहे हैं। इसके समानांतर विपक्ष मोदी, संघ और भाजपा विरोध की नीतियों तक सीमित है। विपक्षी नेताओं ने जिस तरह सनातन और हिंदुत्व से लेकर उत्तर के राज्यों को गोमूत्र की संज्ञा देने तथा दक्षिण-उत्तर के बीच विभाजन पैदा करने सम्बंधी बयान दिया है, वह देश के बहुमत के अंदर नाराजगी पैदा कर चुका है। इस नाराजगी को कम करने के लिए जितने बड़े मुद्दे और जैसे चेहरे चाहिए, उसका विपक्ष में नितांत अभाव है। दूसरी ओर प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा के नेता इसे पूरी प्रखरता से उठाते हुए जनता के गुस्से को लोकसभा चुनाव तक बनाए रखने की रणनीति पर काम कर रहे हैं, जिसका व्यापक असर भी दिखा है।

विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है। 2014 एवं 2019 लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के वोट लगभग बराबर थे। 2019 में कांग्रेस ने 19.67 प्रतिशत मत और 52 सीटें जीतीं तो 2014 में उसे 19.52% मत एवं 44 सीटें प्राप्त हुई थी। किसी भी दृष्टि से विचार करिए कांग्रेस इससे बहुत ज्यादा आगे जाती नहीं दिख रही है।

पहले कर्नाटक और बाद में तेलंगाना विधानसभा चुनाव में विजय से यह निष्कर्ष निकाला जा रहा है कि कांग्रेस 2019 से बेहतर प्रदर्शन करेगी। सामान्य चुनावी विश्लेषण में तत्काल ऐसा लगता भी है कि भाजपा दक्षिण में साफ हो चुकी है और केवल उत्तर, पूर्व और पश्चिम की बदौलत लोकसभा चुनाव में बहुमत प्राप्त नहीं कर सकती। निस्संदेह भाजपा ने तमिलनाडु, केरल और आंध्रप्रदेश में अभी तक अपेक्षित सफलता नहीं पाई है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पराजय तथा तेलंगाना में कांग्रेस एवं बीआरएस दोनों से काफी पीछे रह जाने से भी दक्षिण भारत में उसके भविष्य पर प्रश्न खड़ा होता है।

लेकिन यहां यह भी ध्यान रखना जरूरी है कि 2019 के 303 लोकसभा सीटों में उसे तेलंगाना से चार एवं कर्नाटक से 25 सीट प्राप्त हुए थे। तेलंगाना में पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को एक सीट एवं केवल 6% मत मिले थे। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा वहां 19% मत एवं चार लोकसभा सीटें प्राप्त करने में सफल हो गई। इस बार विधानसभा में उसे 13.9% मत मिले हैं। इसे अगर देखें तो लोकसभा चुनाव में वह पिछले आंकड़े तक नहीं पहुंचेगी, ऐसी कल्पना नहीं की जा सकती।

कर्नाटक में पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा को 51.38 प्रतिशत मत तथा 25 सीटें मिली थी। कांग्रेस के पास केवल एक सीट थी। 2018 विधानसभा चुनाव में भाजपा को केवल 36.02% मत मिले थे जबकि कांग्रेस को 38% और जद-एस को 18.3%। कांग्रेस और जद सेकुलर ने क्रमशः 78 और 39 सीटें जीती थी जबकि भाजपा 104 पर थी। 2023 विधानसभा चुनाव में भाजपा की सीटें अवश्य घटी लेकिन मत समान रहा। हां कांग्रेस के मतों में अवश्य 5% की बढ़ोतरी हुई।

यह साफ है कि इन दोनों राज्यों में मुसलमानों का मत कांग्रेस के पक्ष में ध्रुवीकृत हुआ है। उसकी प्रतिक्रिया लोकसभा चुनाव में होगी। मुस्लिम मत खिसकने के कारण ही कर्नाटक में जद-एस भाजपा के साथ आया है। भाजपा इस समय तमिलनाडु पर भी खास ध्यान दे रही है और चर्चा यही है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी वाराणसी के अलावा वहां रामनाथपुरम से लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसा होता है और तमिलनाडु में स्थिति बदलती है तो इसका असर पूरे दक्षिण भारत में होगा। ऐसा नहीं होता है तब भी भाजपा जितना ध्यान इस समय दक्षिण पर दे रही है वह कम से कम अप्रभावी तो साबित नहीं होगा।

हालांकि भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल और बिहार इस समय भी एक बड़ी चुनौती है। बंगाल में वह स्वयं को अभी तक अपनी अपेक्षा के अनुरूप ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस को चुनौती देने में सक्षम साबित नहीं कर पाई है। बिहार में यदि नीतीश कुमार के नेतृत्व में जद-यू, राजद, कांग्रेस तथा वाम-दलों का गठबंधन बना रहता है तो यह राजग के समक्ष सशक्त चुनौती पेश करेगा। किंतु सब कुछ के बावजूद न भूलिए कि लोकसभा चुनाव में राष्ट्रीय मुद्दे प्रबल होते हैं और दूसरी पार्टी के मतदाता भी यह कहते मिल जाएंगे कि देश के नेता के रूप में नरेंद्र मोदी ही ठीक हैं क्योंकि राष्ट्रीय सुरक्षा की सुनिश्चितता, विश्व में भारत की छवि बेहतर करने तथा आम लोगों को देश के अंदर राष्ट्रीयता की भावना से काम करने को प्रेरित करने में उनके समकक्ष कोई नहीं है। इस आधार पर भी 2024 लोकसभा चुनाव की संभावनाओं की मोटा-मोटी तस्वीर हमारे सामने स्पष्ट हो जाती है।

 

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