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पत्रकारिता में महिलाओं की दशा और दिशा

पत्रकारिता में महिलाओं की दशा और दिशा

by रचना प्रियदर्शिनी
in ट्रेंडींग, देश-विदेश, महिला, महिला विशेषांक मार्च २०२४, मीडिया, विशेष, सामाजिक
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पत्रकारिता के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या तो बढ़ी है लेकिन अभी भी वो हाशिए पर है। लेकिन कई ऐसी जुझारु पत्रकार हैं जो अपनी कार्य-कुशलता के बल पर अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करती हैं और उन क्षेत्रों में जाकर साहसिक रिर्पोटिंग करती हैं जहां पुरुषों का क्षेत्र  माना जाता था।  

भारत में आधुनिक पत्रकारिता की नींव 18वीं शताब्दी में एक आयरिश पुरुष जेम्स ऑगस्टस हिक्की द्वारा रखी गई थी। वर्ष 1780 में उन्होंने कोलकत्ता से ‘बंगाल गजट’ का संपादन शुरू किया था। इस घटना के लगभग दो दशक बाद 20वीं शताब्दी में होमी व्यारावाला भारत की पहली महिला पत्रकार बनीं। वह एक फोटोजर्नलिस्ट थीं। नवसारी (गुजरात) के एक पारसी परिवार में जन्मीं होमी ने अपनी तस्वीरों के माध्यम से भारत के तत्कालीन सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन से जुड़े कई यादगार पलों को अपने कैमरे में कैद किया था। उस दौर से लेकर अब तक पत्रकारिता में महिलाओं की भागीदारी जरूर बढ़ी है, लेकिन आज भी वे स्वतंत्र रूप से ‘अपनी मर्जी की पत्रकारिता’ कर पाएं, ऐसा वातावरण नहीं बन पाया है। इसका कारण आज भी पत्रकारिता के क्षेत्र में पुरुष-प्रधान सोच ही हावी होना है। इसकी वजह से ही कई महिला पत्रकारों को अपनी मनचाही बीट (खासकर- आर्थिक, राजनीतिक, अपराध, खेल आदि) से वंचित रखा जाता है, हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में बतौर न्यूज एंकर स्थिति थोड़ी बेहतर कही जा सकती है, लेकिन इसकी तुलना में प्रिंट मीडिया में, खास कर ग्राउंड रिपोर्टिंग करनेवाली महिला पत्रकारों की संख्या अभी भी बेहद कम है। यहां वरिष्ठ संवाददाता, संपादक, सिटी इंचार्ज या अन्य समकक्षी पदों पर उनकी संख्या तो ऊंगलियों पर गिनने लायक है।

भारतीय मीडिया में महिलाओं की स्थिति नेपाल से भी पीछे है। एनडब्ल्यूजे एक्ट-2007 के कारण नेपाल में मीडियाकर्मियों के लिए न्यूनतम वेतन तय है, फिर चाहे वह महिला हो या पुरुष। बाकी देशों में मनमानी चलती हैं। अफगानिस्तान, भूटान, म्यांमार और पाकिस्तान जैसे देशों में महिलाओं की रोजगार-सुरक्षा न्यूनतम है, जबकि भारत में मध्यम है, लेकिन किसी भी देश में सुरक्षित नौकरी अधिकतम यानी पुरुषों से अधिक नहीं है।

नहीं मिलती पुरुष समकक्षियों जितनी सैलरी और सुविधाएं

इंडियन इंस्टिटयूट ऑफ मास कम्युनिकेशन और इंस्टिटयूट फॅार स्डडीज इन सोशल डेवलपमेंट ने 8 मार्च, 2020 को एक शोध-ग्रन्थ जारी किया, जिसका शीर्षक है-‘विमेन फॉर चेंज: बिल्डिंग ए जेंडर्ड मीडिया इन साउथ एशिया”। दो भागों में प्रकाशित इस शोध अध्ययन रिपोर्ट को कुल नौ एशियाई देशों (भारत, पाकिस्तान, भुटान, श्रीलंका, बंग्लादेश, म्यांमार, नेपाल, मालदीव्स और अफगानिस्तान) में प्रकाशित खबरों के आधार पर समेकित किया गया है।

इस रिपोर्ट में बताया गया है कि किस तरह एक ओर महिला पत्रकार अपने काम के लिए पुरुष समकक्षियों के बराबर सुविधाएं, अवसर और प्रोत्साहन पाने हेतु संघर्षरत रहते हुए अपनी जगह बनाने के होड़ में लगी हैं और दूसरी तरफ महिलाओं को मीडिया में किस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है। इन सभी बिंदुओं पर आंकड़ों सहित विस्तार से अध्ययन रिपोर्ट को प्रस्तुत किया गया है। यह शोध ग्रंथ यूनेस्को तथा साउथ एशिया विमेन्स नेटवर्क की सम्मिलित भागीदारी का प्रतिफल है। इस रिपोर्ट की मानें तो भारत में नेतृत्वकारी पदों पर केवल 21.7% महिलाएं ही पहुंच पाती हैं। भारतीय मीडिया संस्थानों की बात करें तो यहां प्रबंधन के शीर्ष पदों पर केवल 13.8% महिलाएं ही पदस्थापित हैं और उनमें से ज्यादातर किसी बड़े पत्रकार की पत्नी, बेटी या बहन है अथवा अपने पिता, दादा-नाना की विरासत को निभा रही हैं।

 

महिआलों को हार्ड बीट देने के लाभ

 विभिन्न खबरों को देखने का एक नया नजरिया विकसित होगा।

 महिलाओं में जीवन के व्यवहारिक पक्ष की समझ विकसित होगी।

 महिला अपराध से सम्बंधित खबरों के कवरेज का एक संवेदनशील दृष्टिकोण मिलेगा।

 चूंकि एक महिला ही दूसरी महिला की परेशानी को समझ सकती है, इसलिए वह उसे बेहतर ढंग से प्रस्तुत करने में भी सक्षम होगी।

 महिलाओं के लिए रोजगार के अधिक अवसर विकसित होगे।

 मीडिया संस्थानों पर लोगों का भरोसा बढ़ेगा।

लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देने की है आवश्यकता

वर्ष 2019 में प्रकाशित यूएन विमेन की एक रिपोर्ट बताती है कि दुनिया भर में अंग्रेजी भाषा में प्रकाशित बीस हजार अखबारों में सिर्फ 20% महिलाएं ही आलेख लिखती हैं। हां, मुखपृष्ठ पर प्रकाशित आलेखों के मामले में अंग्रेजी अखबारों का नजरिया थोड़ा बेहतर जरूर है। अंग्रेजी अखबारों में जहां मुखपृष्ठ पर 27% आलेख महिलाओं द्वारा लिखे जाते हैं, वहीं हिंदी अखबारों में यह आंकड़ा मात्र 5% का ही है। हालांकि भारत में पत्रकारिता के शिक्षण-प्रशिक्षण क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति संतोषजनक है। इन संस्थानों में नामांकित और प्रशिक्षणरत महिलाओं का प्रतिशत 46.20 हैं और पुरुषों का प्रतिशत 53.80 है, बावजूद इसके भारत में पत्रकारिता और जन संचार के संस्थानों का बुरा हाल है, क्योंकि यूजीसी ने पाठ्यक्रम में लैंगिक संवेदनशीलता के मुद्दे को गंभीरता से शामिल करने की दिशा में प्रयास नहीं किया है।

कई महिला पत्रकारों ने अपने दम पर प्राप्त की सफलता

उपरोक्त आंकड़ों और तथ्यों के बावजूद हम इस बात से मना नहीं कर सकते कि अनेक तरह के विरोधाभासों को झेलते हुए भी कई जुझारु, कर्मठ, निडर और संवेदनशील महिला पत्रकारों ने पत्रकारिता के क्षेत्र में उंची उड़ान भरी है और अपनी एक अलग पहचान भी बनाई हैं। कई मामलों में तो ये महिला पत्रकार अपने पुरुष समकक्षियों को भी पीछे छोड़ती नजर आती हैं। हालांकि उल्लेखनीय है कि इनमें से ज्यादातर महिला पत्रकारों ने स्वतंत्र पत्रकारिता करते हुए अपनी ये पहचान बनाई है।  कारण, कार्यलयीन वातावरण में इन्हें ‘अपनी मर्जी’ का करने की छूट नहीं मिलती।

पत्रकारिता के शुरुआती दौर में बीते दो दशकों तक महिला पत्रकार असंगठित रूप से अपने दायित्वों का निर्वहन कर रही थीं। उस वक्त तक ‘महिला पत्रकारों’ का अपना कोई संगठन नहीं था, जो उनके अधिकारों के लिए आवाज उठाए, लेकिन आज ऐसा नहीं है। वर्तमान में कई संगठन हैं, जिन्हें महिला पत्रकारों द्वारा महिला पत्रकारों के हितों को ध्यान में रखते हुए संचालित किया जा रहा है। इन सभी का उद्देश्य महिला पत्रकारों के लिए एक ऐसा इको-सिस्टम विकसित करना है, जिसमें सभी महिलाएं अपनी पूर्ण क्षमता का उपयोग करते हुए पत्रकारिता जगत में अपना सर्वश्रेष्ठ योगदान दे सकें। इसके अतिरिक्त लाडली मीडिया अवॉर्ड, रुकमाबाई फेलोशिप, इंटरेनशनल वुमेंस मीडिया अवॉर्ड एंड फेलोशिप, थङऋ फेलोशिप, वन वर्ल्ड मीडिया अवॉर्ड आदि कई ऐसे प्लेटफॉर्म है, जो न सिर्फ महिला पत्रकारों की आर्थिक जरूरतों को पूरा कर रहे हैं, बल्कि उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों को भी प्रोत्साहित कर रहे हैं।

आशा है कि आनेवाले समय में, महिला पत्रकारों का वर्चस्व बढ़ेगा और मीडिया संस्थानों द्वारा भी उनकी योग्यता के अनुरुप उन्हें जिम्मेदारी, वेतन, सराहना, समर्थन एवं प्रोत्साहन भी दिया जाएगा।

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