जम्मू-कश्मीर और पंजाब को छोड़कर पूरे उत्तर भारत क्षेत्र के राज्यों में भाजपा-एनडीए प्रभावी स्थिति में है। इन क्षेत्रों से पिछली बार एनडीए को कुल 211 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार इसमें और अधिक बढ़ोत्तरी के संकेत हैं। हिंदुत्व, राष्ट्रवाद, राम मंदिर, सीएए आदि उपलब्धियों के चलते भाजपा के पक्ष में वातावरण बना हुआ है।
भारत के राजनीतिक इतिहास में केंद्र सरकार के गठन में उत्तर भारत की भूमिका हमेशा सर्वोपरि रही है। ऐसा एक भी अवसर नहीं है जब उत्तर भारत में हारने वाली पार्टी या गठबंधन की केंद्र में सरकार बनी हो। तो इस बात का आकलन आवश्यक है कि इस बार उत्तर भारत की चुनावी स्थिति क्या है? कौन सी पार्टी या गठबंधन उत्तर भारत में सफलता प्राप्त करेगी और क्यों? भाजपा को केवल उत्तर और हिंदी क्षेत्र की पार्टी बताने वाले भूल जाते हैं कि इन सारे राज्यों में कुल 245 लोकसभा सीटें ही हैं। यदि भाजपा ने 2024 में 283 और 2019 में 303 सीटें प्राप्त की तो यह केवल हिंदी पट्टी या उत्तर भारत से नहीं आ सकता।
भाजपा विरोधियों की समस्या यह है कि वो प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा या अनावश्यक रूप से संघ के विरुद्ध इतने गुस्से में होते हैं कि सच देख नहीं पाते। इसी कारण उनका आकलन दोष पूर्ण होता है तथा जिसे वे मुद्दा बनाते हैं वो पूरी तरह आम जनता के दिलों में नहीं उतरता।
मोटा-मोटी उत्तर भारत में जम्मू कश्मीर, केंद्र शासित लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, राजस्थान, दिल्ली, हरियाणा, केंद्रशासित चंडीगढ़, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, बिहार एवं झारखंड को माना जाता है। इनमें पंजाब और जम्मू कश्मीर को हम हिंदी भाषी क्षेत्र की सीमा में नहीं बांध सकते। इनमें पंजाब और आधे जम्मू-कश्मीर को छोड़ दें तो पिछले दो चुनावों से ये भाजपा के गढ़ रहे हैं। यह अलग बात है कि एक समय इनमें कांग्रेस का एकछत्र बहुमत था। उसके बाद विखंडित राजनीति में समाजवाद और फिर जनता दल विचार से निकली पार्टियों ने कांग्रेस को निगल कर अपनी ताकत बढ़ाई। बाद में दलित आंदोलन से निकली बसपा का भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में एक ठोस जनाधार कायम हुआ। एक ओर उनकी विफलता तथा दूसरी ओर अयोध्या के श्रीराम मंदिर आंदोलन और बाद में हिंदुत्व तथा हिंदुत्व अभिप्रेरित राष्ट्रीय चेतना के उभार ने यहां के पूरे राजनीतिक परिदृश्य में उथल-पुथल मचा दी। उसकी परिणति भाजपा का शक्तिशाली होकर उभरना रहा।
वर्तमान लोकसभा चुनाव की दृष्टि से देखें तो 2019 में पंजाब और जम्मू-कश्मीर को छोड़ भाजपा और उसके सहयोगियों को इन सभी क्षेत्रों में एकतरफा विजय मिली थी। उसे बिहार की 40 में से 17, चंडीगढ़ की 1, छत्तीसगढ़ 11 में से 9, हरियाणा की 10 में 10, हिमाचल प्रदेश की सभी 4, जम्मू-कश्मीर के 6 में से 3, झारखंड की 14 में 11, मध्य प्रदेश के 29 में 28, दिल्ली के 7 में 7, पंजाब के 13 में 2, राजस्थान 25 में 24 एवं 1 सहयोगी को, उत्तर प्रदेश 80 में 62 और उत्तराखंड की सभी 5 उसकी झोली में आए थे। यानी कुल 184 और उसके सहयोगियों जनता दल यू को 16, लोजपा को 6, झारखंड में आजसू को 1, अपना दल 2 और अकाली दल 2, यानी कुल मिलाकर 211 उसके पास आए।
विरोधियों में बिहार में कांग्रेस को 1, छत्तीसगढ़ में 2, जम्मू कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस को 3, झारखंड में कांग्रेस को 1, अन्य 1, मध्य प्रदेश में भी 1, पंजाब में कांग्रेस को 8, आप 1, उत्तर प्रदेश में सपा 5, बसपा 10 और कांग्रेस 1, यानी कुल 34 सीट हैं। कांग्रेस पंजाब को छोड़कर कहीं भी सफल नहीं हुई। प्रश्न है कि क्या इन स्थितियों में किंचित भी बदलाव आया है? दो बदलाव आए हैं। पंजाब में कांग्रेस की जगह आम आदमी पार्टी की सरकार है तथा छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की जगह भाजपा की सरकार आ गई है। यानी कांग्रेस क्षेत्र से पूरी तरह सत्ता से बाहर है।
भाजपा की दृष्टि से देखें तो पंजाब और दिल्ली पिछले लोकसभा चुनाव की तरह ही विरोधी दल के हाथों हैं। इस तरह लोकसभा चुनाव पर असर डालने वाले समीकरणों की दृष्टि से इसका महत्व नहीं है। 2019 के चुनाव के समय छत्तीसगढ़ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार थी। बिहार में नीतीश कुमार के पाला बदल के कारण राजनीतिक-सामाजिक समीकरणों में जो परिवर्तन सतह पर दिखता था, वह भी उनकी वापसी के साथ समाप्त हो गया है। कांग्रेस ने संगठन के साथ जनाधार विस्तारित करने या फिर केंद्र सरकार के विरुद्ध ऐसा कोई सशक्त आंदोलन अभियान नहीं चलाया है या ऐसे मुद्दे नहीं उठाए हैं, जिनके आधार पर मान लिया जाए कि उसके अपने पूर्व जनाधार वाले राज्यों में भी लोकप्रियता की थोड़ी बहुत वृद्धि हुई हो। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में सपा ने अवश्य भाजपा को टक्कर दी किंतु उसका एकमात्र कारण यही था कि भाजपा विरोधी सम्पूर्ण मतों का ध्रुवीकरण सपा के पक्ष में हुआ था क्योंकि ये सारी शक्तियां योगी आदित्यनाथ सरकार को पराजित करना चाहती थी। वह स्थिति भी बदल चुकी है। उत्तर प्रदेश में 2019 में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ था जो विपक्ष की दृष्टि से इतिहास का सर्वाधिक सशक्त सामाजिक समीकरणों के साथ मत प्रतिशत वाला भी समूह था। वह भी भाजपा को पराजित करना तो छोड़िए 50 प्रतिशत के आसपास मतों के घोषित लक्ष्य को प्राप्त करने से नहीं रोक सका। जब कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में दो-तीन को छोड़ किसी लोकसभा क्षेत्र में प्रभावी उपस्थिति ही नहीं है तो वह चाहे किसी के साथ जाए, भाजपा को सशक्त चुनौती नहीं दे सकती। उसमें भी आईएनडीआईए से लेकर जयंत चौधरी के नेतृत्व में रालोद भाजपा के साथ जा चुका है और बसपा अलग लड़ रही है। मान लीजिए मुस्लिम वोट अपनी प्रवृत्ति के अनुसार इस गठबंधन के पक्ष में गए तब भी पूर्व के परिणाम बताते हैं कि इससे भाजपा के प्रदर्शन पर अंतर नहीं आएगा बल्कि इसकी प्रतिक्रिया में जो ध्रुवीकरण होगा, उसका लाभ भाजपा को ही मिलेगा।
दिल्ली में आप और कांग्रेस का गठबंधन हुआ है किंतु पंजाब में नहीं हो सका। दिल्ली में आप और कांग्रेस के मतों को मिलने के बावजूद यह भाजपा से काफी पीछे रह जाते हैं। दिल्ली में मुख्य मंत्री अरविंद केजरीवाल से लेकर ज्यादातर बड़े नेता भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे हैं, उनके तीन प्रमुख हाथ मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और सत्येंद्र जैन जेल में हैं। भ्रष्टाचार के आरोपों का आप राजनीतिक उत्तर दे रही है किंतु न्यायिक कानूनी प्रक्रिया इससे प्रभावित होगी, यह संभव नहीं। इसका असर भी उसके प्रदर्शन पर पड़ेगा। भाजपा यह मुद्दा उठा रही है कि कांग्रेस गठबंधन के पहले दिल्ली के शराब घोटाला और जल बोर्ड घोटाले के विरुद्ध आवाज उठाती थी, कार्रवाई की मांग करती थी लेकिन अब वह चुप हो गई है। तो दिल्ली की स्थिति भी भाजपा के प्रतिकूल चली गई हो, इस समय ऐसा दिखाई नहीं देता।
मुद्दों की दृष्टि से देखें तो जिनसे उत्तर भारत में भाजपा का उभार हुआ, लोगों ने 2014 और 2019 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को अपार बहुमत दिया वो सब कहीं ज्यादा सशक्त हुए हैं। भाजपा के उभार में श्रीराम मंदिर आंदोलन एक बड़ा कारक था। जब 22 जनवरी को मंदिर में रामलाल की प्रतिष्ठा हो गई है तो उसका असर कम हो जाएगा, ऐसा मानना बेमानी है। देशव्यापी मुद्दों से उत्तर भारत भी अप्रभावित नहीं है और कुछ तो यहीं से देशव्यापी हुए हैं। सच कहें तो श्रीराम मंदिर में प्राण-प्रतिष्ठा का प्रभाव संपूर्ण देश में अद्भुत है। विपक्षी दलों ने किंतु, परंतु से प्रश्न उठाकर तथा अलग-अलग बहानों से प्राण-प्रतिष्ठा में न जाकर नकारात्मक संदेश दिया, जिसका मनोवैज्ञानिक असर मतदाताओं के बड़े वर्ग पर दिख रहा है। नागरिकता संशोधन कानून के पक्ष में भी वातावरण है जबकि उसके विरुद्ध आक्रामक होकर विपक्ष भाजपा को स्वयं आगे बढ़ने का अवसर दे रहा है। महंगाई, बेरोजगारी आदि विपक्ष बार-बार बोलता है किंतु इसके पीछे ऐसे तथ्यों, तर्कों और व्यवहार में प्रखरता का अभाव है जिनसे प्रभाव पड़े। इसमें अतिवाद इतना है कि वह धरातल की स्थिति से मेल ही नहीं खाता। विपक्ष परिश्रम करके सही तथ्य, तर्क और प्रमाण सामने लाए, तुलनात्मक दृष्टि से बताए कि उसके कार्यकाल में आर्थिक स्थिति क्या थी और आज क्या है, बेरोजगारी और महंगाई किस अवस्था में थी और आज किस अवस्था में है। लेकिन वे ऐसा नहीं कर रहे क्योंकि इनमें उन्हें ही फंसने का डर है। मोदी सरकार ने संसद में सत्ता में आने के पूर्व का श्वेत पत्र रख दिया है और उसमें दिए गए आंकड़े प्रामाणिक है। ऐसा नहीं है कि नरेंद्र मोदी सरकार और भाजपा के विरुद्ध मुद्दे नहीं हैं या नही हो सकते। हो सकते हैं किंतु उसके लिए संतुलन और विवेक के साथ जनता के बीच जाकर काम करने की आवश्यकता थी जो किसी ने किया नहीं है।
इसलिए भाजपा के समर्थकों और कार्यकर्ताओं के एक वर्ग में अपनी अनदेखी और एक समय के कई विरोधी चेहरों को पद प्रतिष्ठा मिलने से असंतोष है, पर विपक्ष के व्यवहार से उनके सामने भी भाजपा के पक्ष में काम करने के अलावा दूसरा विकल्प बचता ही नहीं है। जब आप श्रीराम मंदिर, हिंदुत्व, समान नागरिक संहिता आदि पर विरोध करेंगे तो भाजपा के अपने मतों का सशक्तिकरण ही होगा, उत्तर भारत में भी यही हो रहा है।