हिमाचल प्रदेश की हार से भाजपा को चेत जाना चाहिए कि यदि चुनाव जीतने हैं तो पार्टी के जुझारू और जमीनी कार्यकर्ताओं को ही टिकट मिलना चाहिए। नेताओं के आपसी सिर फुटौव्वल को रोकने के लिए हाईकमान को सार्थक कदम उठाने चाहिए तथा अनुभवी नेताओं को सम्मान मिलना चाहिए।
लोकतंत्र के महान पर्व ‘चुनाव’ की आखिरी बेला 8 दिसम्बर को समाप्त हो गई जब हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस पार्टी को मतदाताओं ने पूर्ण बहुमत दे दिया। चुनावी पंडितों द्वारा जहां दोनों दलों में कांटे की टक्कर कही जा रही थी वह अंत में एकतरफा सा मैच दिखता हुआ लगा। भारतीय जनता पार्टी ने शायद ही ऐसे नतीजों की कल्पना कभी की होगी। पूर्व मुख्य मंत्री जयराम ठाकुर के अलावा भाजपा के लगभग सभी नेता अपने किलों को बचाने में नाकाम रहे। भारतीय जनता पार्टी के लिए फिर से जीतना व बारी-बारी वाले रिवाज को बदलना उतना कठिन नहीं था, जितना यह अंतिम दिनों में बन गया। यदि नतीजों का विश्लेषण किया जाए तो साफ तौर पर देखा जा सकता है कि भाजपा विपक्षी दलों से कम अपने लोगों द्वारा और अपनी गलतियों से अधिक हारी है। इसमें कोईर्र् दो राय नहीं कि कांग्रेस ने जीत हासिल करने के लिए अपनी पूरी ताकत चुनावी जंग में झोंक दी थी। चुनाव के समय जिस एकता का परिचय इस दल ने दिया वह भाजपा नहीं दे पाई। भाजपा को इस हार से कोर्ई नुकसान हुआ हो या नहीं, इस बात में कोर्ई दो राय नहीं कि कांग्रेस को पूरे देश में इस जीत से एक संजीवनी अवश्य मिल गयी।
हिमाचल प्रदेश सरकार के सामने चुनौतियों का पहाड़ मुंह ताके खड़ा है। नई सरकार ने जो वायदे किए थे, जनादेश उसी के लिए मिला है। क्या वह सभी वादे पूरे होंगे? पुरानी पेंशन स्कीम लागू हो पाएगी, या मात्र कैबिनेट में प्रस्ताव पारित कर गेंद केंद्र के पाले में फेंक दी जाएगी? प्रत्येक महिला को 1500 मिलेंगे? बजट में प्रावधान होगा तो पैसा कहां से आएगा? क्या करदाता के कंधों पर बंदूक रख दी जाएगी? मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़क पानी शिक्षा के लिए पैसा कहां से आएगा? चुनौतियां बहुत सी हैं लेकिन चुनौतियों से जूझने का नाम ही सरकार है। वीरभद्र सिंह की तरह क्या यह सरकार भी अफसरशाही पर नियंत्रण रख पाएगी? यह भी एक बड़ी चुनौती होगी। प्रश्न बहुत से हैं, उत्तर की प्रतीक्षा रहेगी।
भाजपा ने टिकट आबंटन के समय से ही अपनी नासमझी का परिचय देना आरम्भ कर दिया था। जो प्रत्याशी वर्षों से जनता के बीच जाकर उनके सुख- दुख में भागीदार बने थे, उन्हें ऐन मौके पर टिकट ना देना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा ही था। जो खेल 2017 में रचा गया है जिसमें अपने ही साथी को लंगड़ी मारकर गिराने का काम करना था वही खेल 2022 में भी बदस्तूर जारी रहा। बहुत सी सीटों पर भाजपा प्रत्याशी के विरुद्ध कांग्रेस का प्रत्याशी तो था ही परंतु उससे भी बड़ा खतरा अपनी ही पार्टी के साथी से था। 21 ऐसे बागी उमीदवार चुनाव में खड़े हो गए जो किसी भी कीमत पर बैठने के लिये तैयार नहीं हुए और परिणाम यह हुआ कि कम से कम कम आठ से दस सीटों पर भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। बागियों का इस तरह से बगावत पर उतारू होना और अनुशाशनहीनता करना न केवल पार्टी की साख को दाग दाग कर गया बल्कि प्रदेश संगठन में शीर्ष पदों पर बैठे नेताओं की कार्यशैली पर भी प्रश्नचिन्ह लगाता है। रुष्ट होकर आजाद उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवार या तो सीधे सीधे अपनी पार्टी को हरवाने पर आमादा थे या कहीं पर्दे के पीछे से अपनी ही पार्टी की उम्मीदवार की हार का आनंद ले रहे थे। जिन प्रत्याशियों को विभिन्न एजेंसियों द्वारा सर्वे में नकार दिया गया था उन्हें टिकट देना कहां की सूझबूझ थी? जो जिताऊ उम्मीदवार टिकट की मांग कर रहे थे उन्हें टिकट ना देना बड़े नेताओं की अपरिपक्वता एवं हठधर्मिता को दर्शाता है। जिस परिवारवाद के खिलाफ भाजपा गला फाड़ फाड़ कर बोलती जा रही थी उसी परिवारवाद का नजारा खूब देखने को मिला। पिता का टिकट कटा तो पुत्र को दे दिया गया, पति को टिकट से दूर रखा तो पत्नी को थाली में परोस कर टिकट दे दिया गया। बिना यह जाने कि वह जिताऊ उम्मीदवार है भी या नहीं।
यदि परिणामों का विश्लेषण किया जाए तो साफ नजर आता है कि भाजपा की हार पुरानी पेंशन स्कीम से कम भितरघात से अधिक हुई। देखने में आ रहा है कि दशकों से पुरानी कड़वी बातों को ना भूल कर बदला लेने की होड़ लगी है। तूने मुझे नीचा दिखाया, अब मेरी बारी है। दिल्ली में बैठे बड़े नेता हिमाचल प्रदेश को छोटा राज्य समझकर इसे गम्भीरता से ना ले पाए और बदला लेने वालों को लताड़ नहीं पाए। यदि हाईकमान प्रदेश के नेताओं को साफ-साफ कह देते कि मिलकर पार्टी का काम करना है, इसे जिताना है या फिर पार्टी से बाहर का रास्ता तुम्हें दिखा दिया जाएगा, तो बात कुछ और ही होती। यही नहीं जिस तरह से प्रो. प्रेम कुमार धूमल जैसे अनुभवी एवम मंझे हुए नेताओं को मात्र एक विधानसभा क्षेत्र तक सीमित रख रख दिया गया और उन्हें स्टार प्रचारक नहीं बनाया गया उसका खामियाजा तो भाजपा को भुगतना ही पड़ा। जब तक भाजपा के नेताओं में ‘मेरा गुट, तेरा गुट’ की भावना खत्म नहीं होगी तब तक जीत का सेहरा ऐसे ही मृगतृष्णा बना रहेगा।
भाजपा में बहुत से सुधारों की आवश्यकता है। मात्र चुनावोपरांत समीक्षा से बात नहीं बनेगी। जवाबदेही निश्चित करनी होगी। जो भूल इस चुनाव में की जाती है वहीं अगले चुनाव में दोहराई जाती है। गुटबाजी को दूर करने की आवश्यकता है। इसी गुटबाजी ने विरोधी दल को संजीवनी दी है। यदि युवा वर्ग आगे आकर जीत दिला सकता है तो पार्टी के पदाधिकारियों को अपने स्वार्थ के लिए उन्हें टिकट न देना पार्टी के साथ विश्वासघात नहीं तो और क्या है? अनुभवी और जुझारू नेताओं को हर मंच पर बुलाना होगा, यथासम्भव सम्मान भी देना होगा। उनसे सीख भी लेनी होगी। जिन नेताओं ने पार्टी को अपने खून पसीने से सींचा है वे वास्तव में ही सम्मान के हकदार हैं और रहेंगे भी। अक्सर देखने में आया है कि कोर्ई भी नया मुख्य मंत्री
बनता है तो वह पहले दिन तो वरिष्ठ नेता का आशीर्वाद ले लेता है लेकिन उसके बाद उसी नेता को वह सम्मान नहीं मिलता। अपने अहम को दरकिनार करना होगा। कार्यकर्ताओं को यह भी बताना होगा कि पार्टी की सेवा केवल चुनाव लड़कर नहीं पार्टी के विकास व उत्थान के लिये वफादारी से काम करने से भी हो सकती है। टिकट ना मिले तो पार्टी की जड़ें ना काटी जाए। छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी अपना काम करे और उसकी बात को सुनना भी बड़े नेताओं की जिम्मेदारी है।
विनोद कुमार चोपड़ा