स्वामी विवेकानंद की दृष्टि में सनातन भारत

स्वामी विवेकानंद का सनातन भारत जानने का प्रारम्भ ईश्वर की खोज से हुआ। वे जब युवा थे तो उन्हें लगा कि सारे रिलीजन ईश्वर की बात करते हैं लेकिन क्या सच में ईश्वर है? क्या ऐसा कोई व्यक्ति है कि जिसने ईश्वर को देखा है? ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ते-ढूंढ़ते युवा नरेंद्र नाथ दत्त जो बाद में स्वामी विवेकानंद हुए रामकृष्ण परमहंस के चरणों में जाकर पहुंचे।

रामकृष्ण के सान्निध्य में उन्हें ईश्वर की अनुभूति तो हुई  किंतु रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें बताया कि ईश्वर दर्शन तो ठीक है लेकिन तुम्हारा जन्म कुछ कार्य करने के लिए हुआ है और वह कार्य तुम्हें करना है। ‘ईश्वर दर्शन से भी ऐसा क्या महत्व का कार्य मुझे करना है’, इस विचार को लेकर स्वामी विवेकानंद सोच में थे उसी काल में रामकृष्ण परमहंस ने महासमाधि ली और सारे गुरु भाइयों का दायित्व स्वामी विवेकानंद पर आया। लेकिन ऐसे कह सकते हैं कि उनके जन्म का प्रयोजन अर्थात उनकी नियति उन्हें बुला रही थी और स्वामी विवेकानंद पूरे भारत भ्रमण के लिए निकल पड़े।

स्वामी विवेकानंद का यह परिभ्रमण परिव्राजक के रूप में था। हाथ में पैसा ना लेते हुए स्वामी विवेकानंद एक स्थान से दूसरे स्थान प्रवास कर रहे थे। भूख लगने पर भिक्षा मांगनी है, नींद आने पर पेड़ के नीचे सोना है। यदि कोई उनको अपने घर में बुलाता था, तो घर में जाकर सोना है।  लोग उनको मिलने आते थे और जैसे ही लोग उनसे चर्चा करते थे वे समझ जाते कि ‘यह साधारण व्यक्ति नहीं हैं, इनका ज्ञान अनंत है’, और इसीलिए उन्होंने स्वामी विवेकानंद को अपने घरों में बुलाना शुरू किया। राजा महाराजाओं ने भी उनको अपने महलों में बुलाया लेकिन  महलों की सुख सुविधा उनको वहां रोक नहीं सकी।

स्वामी विवेकानंद तो निकले थे कुछ आंतरिक इच्छा से जीवन के प्रयोजन को पूर्ण करने के लिए और इसीलिए वे चलते रहे। गांव, शहर, नगर पार करते हुए; जंगलों को, नदियों को, पहाड़ों को, पार करते हुए; किसानों के साथ खेती की चर्चा करते हुए या मंदिरों में विद्वानों के साथ चर्चा करते हुए, जिनको हम निरक्षर कहते हैं ऐसे लोगों का भी जीवन देखते हुए या जिनको हम विद्वान कहते हैं ऐसे लोगों के साथ भी विद्वत चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानंद का परिभ्रमण चलता रहा। क्या देखा स्वामी विवेकानंद ने उनके परिभ्रमण में? उन्होंने देखा कि ‘भारत जो स्वर्ण भूमि थी वह आज दारिद्र्य में घिरी हुई है; जो भूमि ज्ञान भूमि थी आज वह अज्ञान के अंधकार में पड़ी हुई है; जिस भूमि में ऋषि-मुनियों ने ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ का संदेश दिया और विश्व के अलग-अलग देशों में जाते हुए कार्य किया, उसी देश के लोग, उन्हीं ऋषि मुनियों की संतान यह कहने लगे कि समुद्र पार करना पाप है।’ इतनी अवनति कैसे हुई, इतना कृति-संकोच कैसे हुआ, स्वामी विवेकानंद यह देखकर व्यथित हुए।

किंतु इस भयानक अवनति की राख में भी स्वामी विवेकानंद ने भारत के सनातनत्व की चिंगारियां  देखी। उन्होंने देखा कि खेती में काम करने वाले किसान, झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले गरीब बहुत सहजता से ‘यह भगवान की लीला है, यह भगवान की माया है, जो भी है आखिर हमें ईश्वर को ही तो प्राप्त करना है,’ ऐसी बातें बहुत सहजता से करते थे। जिन विषयों को समझने के लिए विद्वानों को समय देना पड़ता है, अध्ययन करना पड़ता है उन विषयों को हमारे देश में उन्होंने देखा कि अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति तक ऐसे विषय पहुंचे हैं जैसे माया, लीला, मोक्ष, आत्मसाक्षात्कार। ऐसे सारे विषय सहजता से सबके जीवन में हैं। दूसरा उन्होंने देखा कि भारत भूमि में इतनी विविधता है लेकिन फिर भी कोई भी जाकर किसी को ‘तुम्हारा भगवान गलत है, मेरा ही सही है; या तुम्हारा खाना खाने का तरीका गलत है मेरा सही है; या तुम्हारा कपड़े पहनने का तरीका गलत है मेरा सही है’, नहीं कहता। ऐसा एक्सक्लूसिव दृष्टिकोण रखते हुए व्यवहार नहीं है। अर्थात उन्होंने देखा कि विविधता के परे भी एकात्मता है, जो हम सब को जोड़ने वाले समान सूत्र हैं, उन सूत्रों के कारण इस देश ने विविधता का संरक्षण किया है। यह विविधता एक दूसरों को नष्ट करने के लिए कारण नहीं बनी है। जो निराकार है वही आकारों में भी प्रकट हुआ है। अतः आकार को लेकर झगड़ा करना, संघर्ष करना भारत में नहीं है क्योंकि इन सब के पीछे जो सनातन तत्व है, ईश्वर तत्व है उसको जानने वाले, माननेवाले इस भूमि में हैं।

स्वामी विवेकानंद ने यह भी देखा कि भारत में त्याग को आज भी सबसे ज्यादा सम्मान दिया जाता है और इसीलिए उन्होंने देखा कि सन्यासी जो त्याग का प्रतीक होता है उस सन्यासी का इतना सम्मान भारत देश में है। वह जहां भी जाते थे, जैसे झुग्गी झोपड़ियों में भी लोग स्वयं भूखे रहते हुए भी उन्हें खाना खिलाते थे, उनके रहने खाने की व्यवस्था ठीक से करते थे। त्याग का सम्मान भारत में हैं। अर्थात् जीवन में हम कितना बटोरे यह महत्व का नहीं बल्कि हम कितना छोड़ सकते हैं उससे उस व्यक्ति की उन्नति का अर्थ निकालने वाला यह देश भी उन्होंने देखा। उन्होंने देखा कि भारतीय जीवन पद्धति निसर्ग के साथ चलने वाली है, उसमें निसर्ग की पूजा है। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, धरती मां, सूर्य, चंद्र, पर्वत, नदी सब की पूजा करने वाला यह देश, ईश्वर को सर्वत्र देखने वाला यह देश उन्होंने देखा। चाहे जिसका कोई भी सम्प्रदाय हो लेकिन हर कोई भारत में यही मानता है कि हम सब ईश्वर में ही जन्मे हैं, ईश्वर में ही रहते हैं और आखिर ईश्वर में ही समाप्त होते हैं। ईश्वर सर्वत्र है, सर्वव्यापी है। यह जो तत्व है, वह उन्होंने समान रूप से पूरे भारत भर देखा। आज हम जानते हैं कि इसी तत्व को क्वांटम फिजिक्स भी समझ रहा है। विज्ञान यह समझ रहा है कि यह पूरा विश्व, यह अस्तित्व जो है वह परस्पर जुड़ा हुआ, परस्पर सम्बंधित और परस्परावलम्बी है।

स्वामी विवेकानंद ने देखा कि भारत में धर्म का अर्थ रिलीजन नहीं है। अर्थात् धर्म विश्वास की बात नहीं है कि किसी भगवान के ऊपर विश्वास करो, और वह विश्वास ही महत्व का है आपका व्यवहार कैसा भी हो तो भी चलेगा, ऐसा भारत में नहीं है। धर्म जीने में है, धर्म का पालन करना है। इसीलिए उसी व्यक्ति को श्रेष्ठ माना जाता है जिनके जीवन में धर्म दिखता है, जिनके जीवन में सब के प्रति, पूरे अस्तित्व के प्रति आत्मीयता दिखती है। आत्मीयता से उनका व्यवहार होता है और जो स्वयं आत्मा में प्रतिष्ठित है, ऐसे व्यक्ति का ही इस भारत में उन्होंने देखा कि सबसे ज्यादा सम्मान होता है। वह व्यक्ति कितना पढ़ा है, उसको कितना अच्छा भाषण देना आता है, यह महत्व का नहीं है। उसका जीवन कैसा है यह महत्व का है। इसीलिए स्वामी विवेकानंद कहते थे कि धर्म जीने में है, सिर्फ विश्वास में नहीं । यह धर्म तो मानव धर्म है, जिसे हर मानव को अपने जीवन में अपनाना चाहिए। इससे उसका अपना विकास भी होगा और जीवन में परिवार, समाज और सृष्टि के साथ अच्छा सम्बंध भी होगा। यह सनातन तत्वों पर आधारित है इसलिए इसे सनातन धर्म भी कहा जाता है। और हिंदू समाज ने इसको समझा और इसका पालन किया इसलिए इसे हिंदू धर्म भी कहा जाता है। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘हमारे पूर्वज यदि चाहते, तो ऐसे विज्ञानों का अन्वेषण सहज ही कर सकते थे, जो हमें केवल अन्न, वस्त्र और अपने साथियों पर आधिपत्य दे सकते हैं, जो हमें केवल दूसरों पर विजय प्राप्त करना और उन पर प्रभुत्व करना सिखाते हैं, जो बली को निर्बल पर हुकूमत करने की शिक्षा देते हैं। पर उस परमेश्वर की अपार दया से हमारे पूर्वजों ने उस ओर बिलकुल ध्यान न देकर एकदम दूसरी दिशा पकड़ी, जो पूर्वोक्त मार्ग से अनन्त गुना श्रेष्ठ और महान थी, जिसमें पूर्वोक्त पथ की अपेक्षा अनंत गुना आनंद था। इस मार्ग को अपनाकर वे ऐसी अनन्य निष्ठा के साथ उस पर अग्रसर हुए कि आज वह हमारा जातीय विशेषत्व बन गया, सहस्रों वर्ष से पिता-पुत्र की उत्तराधिकार परम्परा से आता हुआ आज वह हमारे जीवन से घुल-मिल गया है, हमारी रगों में बहनेवाले रक्त की बूंद-बूंद से मिलकर एक हो गया है, वह मानो हमारा दूसरा स्वभाव ही बन गया है, यहां तक कि आज ‘धर्म’ और ‘हिन्दू’ ये दो शब्द समानार्थी हो गये हैं।’

इस नियत कार्य से भारत चूक गया इसीलिए भारत की अवनति हुई। स्वामी विवेकानंद कहते हैं, ‘क्यों हमारा देश गत कई सदियों से वैसा महान नहीं रहा है जैसा वह प्राचीन काल में था? हम देखते हैं कि जिन कारणों से वह गिर गया है उनमें से एक कारण है दृष्टि की संकीर्णता तथा कार्य क्षेत्र का संकोच।’ इसीलिए जब स्वामी विवेकानंद वापस भारत आए तो यहां आने के बाद उनके कोलम्बो से अल्मोड़ा तक अनेक व्याख्यान होते रहे उन सारे व्याख्यानों और भाषणों का जो मूल स्वर था, जो संगीत था वह भारत था, भारत का विश्व के हित में प्रयोजन था और उसके लिए भारत के पुनरुत्थान के लिए हमें क्या करना चाहिए इसका आग्रह था। उन्होंने कहा, ‘भारत में धर्म बहुत दिनों से गतिहीन बना हुआ है। हम चाहते हैं कि उसमें गति उत्पन्न हो। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक मनुष्य के जीवन में धर्म प्रतिष्ठित हो। मैं चाहता हूं कि प्राचीन काल की तरह राजमहल से लेकर दरिद्र के झोपड़े तक सर्वत्र समान भाव से धर्म का प्रवेश हो। याद रहे, धर्म ही इस जाति का साधारण उत्तराधिकार एवं जन्मसिद्ध स्वत्व है। इस धर्म को हर एक आदमी के दरवाजे तक निःस्वार्थ भाव से पहुंचाना होगा। ईश्वर के राज्य में जिस प्रकार वायु सब के लिए समान रूप से प्राप्त होती है, उसी प्रकार भारतवर्ष में धर्म को सुलभ बनाना होगा। भारत में इसी प्रकार का कार्य करना होगा। पर छोटे छोटे दल बांध आपसी मतभेदों पर विवाद करते रहने से नहीं बनेगा। हमें तो उन बातों का प्रचार करना होगा, जिनसे हम सब सहमत हैं और तब आपसी मतभेद आप ही आप दूर हो जाएंगे। मैंने भारतवासियों से बारम्बार कहा है और अब भी कह रहा हूं कि कमरे में यदि सैकड़ों वर्षों से अंधकार फैला हुआ है, तो क्या ‘घोर अंधकार!’, ‘भयंकर अंधकार!!’ कहकर चिल्लाने से अंधकार दूर हो जाएगा? नहीं; रोशनी जला दो, फिर देखो कि अंधेरा आप ही आप दूर हो जाता है या नहीं। मनुष्य के सुधार का, उसके संस्कार का यही रहस्य है। उसके समक्ष उच्चतर बातें, उच्चतर प्रेरणाएं रखो; पहले मनुष्य में, उसकी मनुष्यता में विश्वास रखो। ऐसा विश्वास लेकर क्यों प्रारम्भ करें कि मानव हीन और पतित है? मैं आज तक मनुष्य पर, बुरे से बुरे मनुष्य पर भी, विश्वास करके कभी विफल नहीं हुआ हूं। जहां कहीं भी मैंने मानव में विश्वास किया, वहां मुझे इच्छित फल ही प्राप्त हुआ है – सर्वत्र सफलता ही मिली है।’

                                                                                                                                                                                   निवेदिता भिड़े 

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