कृरुक्षेत्र के मैदान में श्रीकृष्ण का अर्जुन को दिया गया गीता का उपदेश मानव मात्र के जीवन का परिवेश बदल देने वाला एक विलक्षण गीत हैं, जिसे हृदयगम कर कोई भी व्यक्ति अपने जीवन की दिशा को बदल सकता है। अत: महापुरुषों ने केवल इसे ग्रंथ ही नही कहा; बल्कि इसे भगवान के शब्द रुप की संज्ञा दी। भगवान श्रीकृष्ण का शब्द स्वरुप श्रीमद् भगवत गीता है। यही कारण है कि श्रीकृष्ण जन्म के दिन जन्माष्टमी मनाई जाती है। और आज से ५१५१ वर्ष पूर्व जिस मार्गशीर्ष एकादशी के दिन श्रीकृष्ण के द्वारा विषादयुक्त अर्जुन को गीता का उपदेश दिया गया, वह एकादशी मोक्षदा एकादशी के रूप में परिचित हुई। और वह दिन गीता जयंती के रूप में मनाया जाने लगा। आज संपूर्ण विश्व में केवल एक ग्रंथ की जयंती या जन्म दिन मनाया जाता है और वह है श्रीमद्भगवत गीता- क्योंकि यह मात्र ग्रंथ नहीं है; बल्कि भगवान का ही स्वरुप है। साथ ही यह जीवन विकास का सही पंथ हैं। गुजराती भाषा में गीता जी की बहुत सुंदर व्याख्या की है।
वेद सकल नो सार भर्योछे गीता ने उद्गीथ
अध तिमिर जीवन ने मारग गीता पंथ प्रदीप
मारे योगेश्वर थी प्रीत
कवि कहता है कि गीता में संपूर्ण वेदों का ज्ञान है, गीता भगवान के द्वारा गाया गया ऐसा गीत है जो मानव को अंधकार से पूर्ण जीवन पथ में आलोक और उजास देते हैं। यह जीवन की ऊर्जा देनेवाला ग्रंथ है और इसी कारण से मैं गीता के गायक, अर्जुन को रणभूमि में रास्ता दिखाने वाले, विषाद से युक्त पार्थ को जीवन का प्रसाद देने वाले योगेश्वर श्रीकृष्ण को प्रेम से प्रणाम करता हूं।
श्रीकृष्ण के साथ प्रेम इसलिए क्योंकि कृष्ण सब को आकर्षित करता है। ‘कर्षयति इति कृष्ण:!’ कृष्ण वह जो सबको आकर्षित करता है- अपने रुप से, अपने आचरण से, अपने ज्ञान से, अपनी प्रतिभा से और अपनी मौलिकता से। चूंकि कृष्ण अनोखा ही है, मौलिक है, अनुपमेय है; अत: उसके मुखारविन्द से निसृत गीता भी मौलिक, अद्भुत है और अप्रतिम है। यह साक्षात भगवान के द्वारा कही गई हैं। गोकुल में भगवान जब मात्र ११ वर्ष के थे तो उन्हें प्रेमवंशी बजाकर समस्त ब्रज मंडल को अपने दिव्य स्वरूप एवं लीलाओं से मोहित किया और बाद मे योगेश्वर बनकर कुरुक्षेत्र के रणांगण में ज्ञानवंशी से समस्त मानवता को जीवन का संदेश दिया।
मराठी तत्वचिंतक श्रीपाद महादेव माटे ने अपने ‘गीतातत्व विमर्श’ ग्रंथ में गीता के संबंध में लिखा है कि गीता ज्ञान है, भक्ति है, कर्म है, ध्यान है, साधना है, योग है, साहित्य है और व्याकरण भी है और भी बहुत कुछ है, किन्तु मुझे गीता दो दृष्टि से प्रिय हैं एक- भगवान योगेश्वर ने इसे स्वयं अपने मुख से गाया है और जिस पर मुझे प्रेम और श्रद्धा है और दूसरा मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए गीता में जीवन का आश्वासन है। गीता के ये आश्वासन जीवन की दिशा और दशा को बदल देते हैं; क्योंकि इसे स्वयं अच्युत विश्वकर्ता परमात्मा ने दिया है। गीता का संदेश जहां दिया गया, वह भी अपने आप में बिलकुल मौलिक है। कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर यह जीवन का गीत गाया गया है। कृष्ण का स्पष्ट संदेश है कि जीवन संघर्ष है और यह समग्र सृष्टि रणभूमि है। मानसिक विकार और कुविचार ही हमारे शत्रु हैं। इससे घिरा व्यक्ति सांसारिक प्रपंचों में घिरकर स्वयं को हताशा, निराशा और विषाद के सागर में डूबा हुआ पाता है तब कृष्ण जैसा कोई सद्गुरु, पथ प्रदर्शक, उसे अपने उपदेशों से विषाद के सागर से निकाल कर उसे आत्मविश्वास के क्षीरसागर में स्थापित करता है तो वह स्वस्थ मन से कह उठता है।
नष्टो मोह: स्मृर्लब्धा त्वत्प्रत्यादान्मयाच्युत।
स्थितोऽस्मि गत सन्देह: करिष्ये वचने तव॥
अर्जुन कहते हैं- हे अच्युत, आपकी कृपा एवं आपकी अमृतमयी वाणी से मेरा सारा मोह, विषाद, अवसाद नष्ट हो गया है और मुझे स्मृति प्राप्त हो गई है अर्थात मुझे अपने स्वरूप का ज्ञान हो गया है मेरे सारे संदेह समाप्त हो गए हैं और अब मैं आपके द्वारा दिखाए जीवन पथ पर चलूंगा।
गीता के वक्ता की तरह ही गीता का श्रोता भी अद्भुत और अद्वितीय है। ऐसा श्रोता होना बहुत मुश्किल है। अर्जुन अर्थात मन से सरल और सहज लेकिन बुद्धि से सजग। वीरता, बल तथा ओज सामर्थ्य तथा ज्ञान में अद्वितीय और अनुपम। गांडीव धनुष की टंकार और अपने शास्त्रज्ञान से संपूर्ण विश्व को अपने वश में करने वाला अर्जुन गीता का श्रोता है। गीता के वक्ता तथा गीता के श्रोता दोनों संसारी हैं। दोनों ही समाज के विकास में सक्रिया भूमिका निभा रहे थे। अपने स्वधर्म एवं स्वकर्म से ये दोनों ही महापुरुष समाज एवं विश्व कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते थे। ऐसी स्थिति में अर्जुन विषाद और अवसाद से युक्त होकर अपने कर्तव्य पथ से विमुख होता हैं और उस असामान्य परिस्थिति में श्रीकृष्ण गीता का गायन करके अर्जुन को अपने कर्तव्य पथ पर पुन: स्थापित करते हैं, किसी दबाव में नहीं, किसी भी प्रकार के अनुचित तरीके से नहीं, बल्कि केवल उसे अभिप्रेरित करके, ज्ञान देकर, और उसका हृदय बदल कर गीता के अंतिम श्लोकों में अपने वक्तव्य को समाप्त करते हुए कृष्ण कहते हैं।
इति ते ज्ञानमाख्यातं शुघ्याग्दुघ्न्तरं मया
विमृश्यैतदशेषेण यथेव्छसि तथा कुरु
भगवान कहते हैं कि जीवन के अत्यंत गहन और जटिल बातों का ज्ञान मैंने तुझे दे दिया है इस पर तुम अच्छी तरह विचार कर लो, फिर जैसा तुम्हें ठीक लगे, वैसा तुम करो।
अर्जुन का मन जो पहले हताशा और निराशा में डूबा था, सहसा उसमें आशा और उत्साह का संचार हो गया। जो कुछ समय पहले तक निराश था, वह गीता का ज्ञान प्राप्त करके अपने कर्तव्य बोध से भर गया और युद्ध के लिए तत्पर हो गया।
अत: गीता को पढ़ना और गीता के तत्व का चिंतन करना हमें जीवन की संजीवनी प्रदान करती हैं, यह हमें अपने कर्त्तव्य का बोध कराती है। महात्मा गांधी ने गीता के संबंध में कहा कि गीता मेरे लिए मां के समान है। जब भी मैं जीवन से निराश होता हूं तो थाका-हारा निराश मन लेकर मैं गीता माता की गोद में जाता हूं। मुझे नया जीवन प्राप्त होता हैं। तथापि, अभी भी हमारे बहुत से लोगो में यह भावना है कि गीता बुढ़ापे में पढ़ने का ग्रंथ है जिसके पठन से मुक्ति मिलती हैं। वास्तव में तो गीता जवानी में अध्ययन, मनन तथा चिंतन का ग्रंथ है, जिसके संदेश युवाओं को उत्साह और उमंग से भर देते हैं और जीवन की नई दृष्टि प्रदान करते हैं। गीता में भगवान कहते हैं- मामनुस्मर, युद्धच- जीवन का संघर्ष करते रहो और उस संघर्ष के दौरान मेरा स्मरण करते रहो। जीवन के क्षण क्षण में, हर पल में परमात्मा का स्मरण करते हुए अपने सत्कर्म से आगे बढ़ते रहो। यह परमात्मा कौन है? यह प्रश्न उठता है? परमात्मा हैं यह समाज, यह विराट सृष्टि- यह प्रकृति यह सब जगत परमात्मा स्वरूप ही हैं। भगवान की एक प्रार्थना हैं
नमोस्तु अनंताय सहस्त्रमुर्त्त ये सहस्त्र पादा क्षिक्षिरु वाहवै
सहस्रानाम्ने पुरुषाय शाश्वते सहस्त्रकोटि युगधारणे नम:
परमात्मा अनंत है, उसके हजारों स्वरुप हैं, हजारों पैर हैं, उसके हजारों नाम हैं और सृष्टि का समग्र स्वरूप यह परमात्मा ही है, बस इनका पूजन करो, और इसका स्मरण करो। इंशावास्योपनिषद का एक बहुत ही सुंदर श्लोक हैं
अग्ने नये सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्न।
युयोध्यस्मज्जुहुराणंमेनो मूयिष्ठां ते नम उक्ति विधेम॥
हे अग्नि स्वरुप परमात्मा, कमी सूर्य के माध्यम से, कभी वायु के माध्यम से, तथापि इस श्लोक में अग्नि से प्रार्थना है क्योंकि अग्नि प्रकाश स्वरुप है। अत: प्रकाश स्वरुप परमात्मा से प्रार्थना की जा रही है कि मुझ को अच्छे रास्ते से, सरलता के साथ सत्य के पथ पर ले चलिए। कुटिलता ही पाप है और सरलता तथा ऋजुता ही पुष्य है, अत: उस पथ पर ले चलो, जिससे जीवन में ईश्वर मिल जाए। और ऐसे ईश्वर की ओर ले जाने वाला एक ही तत्व है वह है सरलता, निर्मलता, सहजता। श्री राम चरित मानस में सुंदरकांड श्री राम स्वयं कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहिं पावा
मोहि कपट छल छिद्र न भावा
परमात्मा को निर्मलता चाहिए, ऋजुता चाहिए, आर्जव-अर्जुन वही है सरल है, सीधा है और प्रार्थना करता है- हे केशव मुझे सरल, सुगम रास्ते से जीवन के पथ निरंतर आगे बढ़ाते रहो अर्थात अपने अंदर सकारात्मक, सबके कल्याण की भावना से यदि व्यक्ति समाज की शक्तियों का उपयोग करेगा तो समाज का कल्याण तो निश्चित होगा, उसकी भी उन्नति होगी, उसे श्रीवृद्धि और समृद्धि प्राप्त होगी। गीता का लक्ष्य है कि व्यक्ति ‘सर्वभूतहितैरता’ अर्थात सभी प्राणियों के कल्याण के लिए काम करे और यदि वह ऐसा करता है तो भगवान कहते हैं वह मुझे प्राप्त करेगा- ते प्राप्नुवति मामेव; लेकिन यह कैसे होगा तो भगवान स्वयं कहते हैं कि व्यक्ति को अपने इंद्रियों को नियंत्रित रखना चाहिए और देखने की दृष्टि में समानता अर्थात सम भाव होना चाहिएः संन्नियमयेद्रिय: ग्राम सर्वत्र समबृद्धय।
यदि जीवन की दृष्टि में समता है और मन में सभी के लिए ममता है तो ईश्वर निश्चित प्राप्त होगा; लेकिन उससे भी पहले श्री विजय और विभूति प्राप्त होगी। गीता का अंतिम श्लोक है और संजय पूरे विश्वास के साथ धृतराष्ट्र को कह रहे हैं-
यत्र योगेश्वरो कृष्ण: यत्र पार्थ धनुर्धर:।
तत्र श्री विजियो भूर्ति ध्रुवानीतिमतिर्मम॥
जहां कृष्ण जैसा मार्गदर्शक है और धनुर्धर अर्जुन जैसा शिष्य है वहां निश्चित रूप से श्री अर्थात समृद्धि, विजय और विभूति तीनों ही प्राप्त होंगी। संजय कहते है, यह मेरा निश्चित मत है।
गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै शास्त्रविस्तरै:।
या स्वथं पद्मनामस्य मुख पद्याद्विनि: सृता॥
अतएव श्री गीताजी का भली प्रकार से अध्ययन एव मनन् करना और फिर उसे भाव सहित अंत:करण में स्थापित करने से व्यक्ति का कल्याण होता है अर्थात गीता में दिए गए निर्देशों के अनुसार यदि व्यक्ति अपने आचरण को सुधार लें तो निश्चय ही जीवन सुखमय और शांतिमय होगा। इस ज्ञान की बात को समझने के लिए एक बहुत अच्छी बात गीता कहती है कि तद्विद्वि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया- प्रणिपात यानि विनम्रतापूर्वक ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा से अग्रणी होकर अध्ययन करना जिससे व्यक्ति अपना आत्मिक और सांसारिक दोनों प्रकार के उत्थान के लिए संसार में निर्धारित अपने कर्तव्य को पूरा कर सके। कृष्ण का स्पष्ट कथन है, जो आज के जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
उद्धेरात्मानात्मानं् नात्मानय अवसादयेत्
आत्मैव द्धात्मनो बंधु: आत्मैव रिपुरात्मन:
मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं अपने प्रयत्नों से अपना उद्धार करे। व्यक्ति स्वयं अपना बंधु है और स्वयं ही अपना शत्रु भी है। सामाजिक और राजनैतिक तथा व्यावसायिक दृष्टि से गीता का यह संदेश अत्यंत सामयिक है।
आधुनिक जीवन पद्धति में जिस प्रकार का संघर्ष चल रहा है, द्वंद्व है और गलाकाट प्रतियोगिता है, उसमें कृष्ण व्यक्ति को स्वयं आकांक्षाओं और अनियंत्रित कामनाओं को संयमित करने के लिए कहते हैं, ताकि व्यक्ति मन, बुद्धि की स्थिरता के साथ अपने कर्तव्य को पूरा करने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहें। यही दृष्टि परिवार समाज में व्यवस्था और परस्पर सहयोग की भावना को आगे बढाएगी। उपयुक्त कृष्ण के संदेश को संपूर्ण समाज में पहुंचाने की आवश्यकता आज बड़े ही तीव्रता के साथ अनुभव की जा रही है। इस वर्ष गीता जयंती के अवसर पर दिल्ली के लाल किले में आयोजित समारोह में परमपूज्य सरसंघचालक माननीय श्री मोहन भागवत ने भी इसी विषय पर अधिक बल देते हुए कहा था कि विगत वर्षों में जिस प्रकार से मानवीय मूल्यों का क्षरण और अवमूल्यन हुआ है और सामाजिक विघटन हुआ है, ऐसे समय में सामाजिक समरसता और एकात्मता के लिए गीता का संदेश घर-घर पहुंचाना और उसके लिए समाज में एक वातावरण तैयार करने की आवश्यकता है। गीता एक वैश्विक ग्रंथ है जिसकी उपादेयता और महनीयता को समूचे विश्व ने स्वीकार किया है। अपने अमेरिका प्रवास के दौरान प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा को यह गीता ग्रंथ उपहार स्वरुप प्रदान किया। उस समय ओबामा ने इस ग्रंथ को विश्व की अनुपम धरोहर के रूप में माना और कहा था कि यह ग्रंथ संपूर्ण मानव मात्र के कल्याण और उसके जीवन को ज्योतिर्मय बनाने के लिए दिया गया भारत का उपहार है।