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हजार हाथों वाला आधुनिक देवता-डॉ. अच्युत सामंता

हजार हाथों वाला आधुनिक देवता-डॉ. अच्युत सामंता

by हिंदी विवेक
in जून २०१८, व्यक्तित्व, सामाजिक
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                                                                                                       -चन्द्रकांत जोशी

ओडिशा के निवासी डॉ. अच्युत सामंता खुद एक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां से ज्ञान, संकल्प, साहस, समर्पण, धर्म, अध्यात्म, संघर्ष और सफलता की कई धाराएं एकसाथ निकल रही हैं। उनके संघर्ष की दास्तान सुनें तो ऐसा लगता है मानो ये हजार हाथ वाले किसी देवता की कहानी है।

डॉ. अच्युत सामंता को सुनना ऐसा ही है जैसे कई शख्सियतों का कोई समुच्चय आपसे मुखातिब है। उनका एक-एक शब्द हमारी त्रासदी, विवशता, सामाजिक पिछड़ेपन से लेकर गरीबी और अभावों की ऐसी व्याख्या है जिनका मर्म वही समझ सकता है जिसने किसी न किसी रूप में इन सबका सामना किया हो, उनके शब्दों में पीड़ा भी है और पीड़ा से उबरने का साहस और संकल्प भी। किसी सुखांत फिल्म की तरह उनका व्यक्तित्व श्रोताओं को सम्मोहित सा कर लेता है। कुल मिलाकर सरल शब्दों में कहा जाए तो डॉ. सामंता खुद एक ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां से ज्ञान, संकल्प, साहस, समर्पण, धर्म, अध्यात्म, संघर्ष और सफलता की कई धाराएं एक साथ निकल रही हैं। जिन महापुरुषों की प्रेरक कहानियां सुनकर आप कल्पना की दुनिया में गोता लगाते हैं, ऐसी हजारों कहानियों को साकार करने वाला एक शख्स जब विनम्रतापूर्वक अपने संघर्ष की दास्तान सुना रहा हो तो ऐसे लगता है मानो ये हजार हाथ वाले किसी देवता की कहानी है। देवता तो अपने भक्त पर प्रसन्न होकर वरदान देते हैं लेकिन अच्युत सामंता तो उन बेबस, साधनहीन और दयनीय स्थिति में जीने वाले बच्चों के भविष्य को संवार रहे हैं जिनकी तमाम उम्मीदें, आशाएं और विश्वास खंडित हो चुके थे।

मुंबई के श्री भागवत परिवार द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में डॉ. अच्युत सामंता बोल रहे थे और सुधी श्रोता चुपचाप, निर्विकार भाव से उनको ऐसे सुन रहे थे कि कहीं किसी शब्द से वंचित न हो जाएं।

श्रोताओं के सामने एक ऐसा व्यक्ति साक्षात मौजूद था जिसने बगैर किसी साधन और सुविधा के भुवनेश्वर में सन् 1993 में मात्र 5,000 रु. की पूंजी और 12 छात्रों से कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी (कीट) की स्थापना की, जिसकी पूंजी आज 800 करोड़ रु. है। इसके बाद उन्होंने गरीब आदिवासी बच्चों के लिए पहली कक्षा से स्नातकोत्तर तक की शिक्षा, छात्रावास और भोजन की निःशुल्क सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से 1997 में डीम्ड विश्वविद्यालय कीट के तहत कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (किस) की स्थापना की। आज इसका विस्तार 25 वर्ग किमी में हो चुका है और कुल 22 इको फ्रेंड्ली इमारतें हैं, आज जिस में केजी से पीजी तक 27,000 बच्चे पढ़ते हैं। जिन्हें किसी भी तरह का कोई शुल्क नहीं देना होता है।

वे बता रहे थे और श्रोता भावविभोर होकर सुनते जा रहे थे। महज चार साल की उम्र में उनके सर से पिता का साया उठ गया। वे ओडिशा के कटक जैसे बेहद पिछड़े जिले के दूरदराज के एक गांव में जन्मे थे। परिवार चलाने के लिए वे सब्जी बेचकर विधवा मां का सहारा बने और पढ़ाई भी करते रहे। परिवार में गरीबी इतनी थी कि सात भाई बहनों को कई बार मांग कर खाना पड़ता था। उन्होंने अपने परिवार की गरीबी का उल्लेख करते हुए कहा, मेरी बहन की शादी होनी थी लेकिन मेरी मां के पास पहनने को दूसरी साड़ी तक नहीं थी, वह पूरे गांव में 80 घरों में दूसरी साड़ी मांगने के लिए घूमती रही, लेकिन गांव के लोग भी इतने गरीब थे कि किसी के पास देने को दूसरी साड़ी नहीं थी।

वे बताते हैं, गरीबी के बावजूद उनकी मां ने उनको यही संस्कार दिया कि भूखे हो तो मांगकर खा लेना मगर कभी चोरी करने का विचार मन में मत लाना। इन तमाम हालात के साथ जीते हुए उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और  एमएससी (रसायन) की परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उत्कल विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में व्याख्याता नियुक्त होने के बाद भी उनके मन में यही बात घुमड़ती रही कि गरीब से गरीब आदमी को शिक्षा कैसे मिले, क्योंकि शिक्षा के माध्यम से ही कोई भी व्यक्ति अपना जीवन बेहतर बना सकता है।

कीट चल पड़ा तो 51 वर्षीय सामंता को असली लक्ष्य का ख्याल आया-गरीब आदिवासी बच्चों को पहली कक्षा से स्नातकोत्तर तक की तालीम, छात्रावास और भोजन निःशुल्क मुहैया कराना। इसके लिए उन्होंने 1997 में डीम्ड विश्वविद्यालय कीट के तहत कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (किस) की स्थापना की। मात्र पांच हज़ार रुपये की बचत राशि और दो कमरों की जगह से सामंता ने कलिंग इंस्टिट्यूट ऑफ़ इंडस्ट्रियल टेक्नोलॉजी (कीट) की शुरुआत सन् 1993 में की थी, जो आज एक पूर्ण विश्वविद्यालय की शक्ल ले चुका है, इसी इंस्टिट्यूट से प्राप्त होने वाले लाभ का रुख सामंता ने कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज (कीस) की ओर मोड़ दिया। इस संस्थान के पास आज 25 वर्ग किमी का कैंपस है और कुल 22 इको फ्रेंड्ली इमारतें हैं आज जिस में केजी से पीजी तक 25,000 बच्चे पढ़ते हैं।

‘कीस‘ को चलाने के लिए वे एक पैसा भी चंदा नहीं मांगते। लोग अपनी मर्जी से देते हैं। उनके यहां 10,000 कर्मचारी हैं और अच्युत सामंता पर उनकी आस्था का आलम यह है कि सारा स्टाफ कुल वेतन का तीन प्रतिशत हर महीने संस्था को अनुदान दे देता है। इस तरह अपने दम पर चलने वाला और गरीब से गरीब बच्चे के स्वाभिमान और आत्म सम्मान को जिंदा रखते हुए उन्हें शिक्षित करने वाला यह दुनिया का सबसे बड़ा संस्थान बन चुका है। उनके कॉलेज से निकले छात्र आज इंजीनियरिंग, एमबीए, मेडिकल के क्षेत्र में स्थापित हो चुके हैं।  हां, तीरंदाजी में भी वे राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर नाम कमा रहे हैं।

सामंता के पास जायदाद के नाम पर कुछ भी नहीं है। उनकी न्यूनतम जरूरतों का खर्च विश्वविद्यालय उठाता है। वे राज्यसभा में चुने गए सांसदों में सबसे गरीब सांसद हैं। राज्यसभा के नामांकन के समय उन्होंने 4.12 लाख रु. बैंक में जमा राशि और 83,714 रु. की अचल संपत्ति की घोषणा की है।

उन्होंने बताया कि जिस गांव कालारबैंक में मैंने अपनी गरीबी और संघर्ष के दिन गुजारे आज मैंने उस गांव की शक्ल भी बदल दी है। इस गांव को फ्री वाई फाई के साथ वे तमाम सुविधाएं उपलब्ध हैं जिसके लिए बड़े शहर के लोग भी तरसते होंगे। उनका गांव देश का पहला स्मार्ट विलेज है, और देश में शायद ही दूसरा कोई ऐसा स्मार्ट विलेज हो।उनके गांव की वेबसाइट  <http://kalarabankamodelvillage&org/ देखेंगे तो आपको एहसास होगा कि उनके दावे में कितना दम है।

डॉ. अच्युत सामंता की धार्मिक आस्था भी गज़ब की है। वे महीने में तीन दिन भुवनेश्वर से पुरी जाते हैं और सुबह 5 बजे भगवान जगन्नाथ के दर्शन करते हैं। हर महीने के आखरी मंगलवार को भुवनेश्वर में 108 हनुमान मंदिर के दर्शन करते हैं। उन्होंने 25 श्री राम मंदिर बनवाए हैं। वे महीने के पहले मंगलवार को सुंदरकांड का सामूहिक पाठ भी करवाते हैं। आज भी एक अविवाहित का जीवन जी रहे सामंता स्वयं एक किराये के मकान में ही रहते हैं।

‘कीस‘ को शुरू करने के बारे में पूछने पर सामंत बताते हैं कि उनके अनुसार शिक्षा द्वारा ही गरीबी के अभिशाप से मुक्त हुआ जा सकता है। सामंता कहते हैं- ‘मेरा गांव से लेकर राज्य की राजधानी तक का सफ़र शिक्षा के कारण ही सफलता से संभव हुआ है, विकास का इससे बेहतरीन मॉडल और कोई नहीं हो सकता कि आप एक अभावग्रस्त बच्चे को शिक्षा की ताकत दे दें, फिर वह अपनी मंजिल खुद तलाश लेगा।‘

‘कीस’ विश्वविद्यालय में भारत तथा दुनिया की कई जानी मानी हस्तियां जा चुकी हैं। वे इस बात से चमत्कृत हैं कि किस तरह एक अकेला आदमी अपने जुनून से हजारों बच्चों का भविष्य संवार रहा है। यहां पढ़ने वाले आदिवासी बच्चे विकास की

दौड़ में अपनी बहुमूल्य संस्कृति से न कट जाएं, इसका विशेष ध्यान रखते हुए ‘कीस’ में हर आदिवासी जाति की कला एवं संस्कृति के संरक्षण का प्रयास निरंतर किया जाता है। विशेष कार्यक्रमों और विशेष कक्षाओं के माध्यम से इन आदिवासी बच्चों को उनके मूल से जोड़ा जाता है, ताकि उनमें अपने आदिवासी होने पर गर्व का भाव बना रहे। जिस गुरुकुल पध्दति ने भारत को सम्पूर्ण विश्व में जगत गुरु की उपाधि दिलाई, उसी परंपरा को ‘कीस‘ ने पुनः जीवित कर दिखाया है, जहां शिक्षा का एक मात्र मतलब राष्ट्र का कल्याण ही होता था।

डॉ. सामंता बताते हैं कि हाल ही में कंबोडिया गया, वहां के शिक्षा मंत्री मेरे इस काम से इतने प्रभावित हुए कि वे इसके लिए कुछ सहायता राशि देना चाहते थे, मैंने उनसे कहा, आप मुझे कोई मदद मत दीजिए, आप ‘कीस’ जैसा संस्थान अपने देश में शुरू कीजिए। उन्होंने तत्काल इसकी स्वीकृति प्रदान कर दी। उन्होंने बताया कि बांग्लादेश में भी ‘कीस’ की स्थापना हो चुकी है।

उन्होंने कहा कि मेरे जीवन का एक ही मकसद है, भूखे को सम्मान से खाना मिले और उसे पढ़ने की सुविधा मिले। वे हर वर्ष 17 मई को एक अभिनव आयोजन करते हैं जिसके माध्यम से वे लोगों से अपील करते हैं कि वे अपने आसपास के गरीबों, असहाय लोगों के लिए घर से खाना बनाकर ले जाएं और उन्हें प्रेमपूर्वक खिलाएं। इसे उन्होंने ‘आर्ट ऑफ गिविंग‘ नाम दिया है। इस अभियान से वे उड़ीसा में 30 लाख लोगों के लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं। वे कहते हैं जब आप अपने घर में डायनिंग टेबल पर खाना खाएं तो अपने और बच्चों के साथ अपने घर में काम करने वाले नौकर और काम करने वाली बाई को भी बिठाएं।

उन्होंने इस बात पर दुख व्यक्त किया कि देश के लोग व्यभिचारी और पाखंडी बाबाओं पर करोड़ों रुपया लुटा देते हैं लेकिन एक गरीब आदमी के बच्चे को पढ़ने के लिए मदद नहीं करते। अगर एक आदमी भी सोच लें कि वह एक गरीब  बच्चे को पढ़ने में मदद करेगा तो देश के करोड़ों बच्चों का भविष्य संवर सकता है।

कार्यक्रम के आरंभ में श्री भागवत परिवार के मार्गदर्शक एवं समन्वयक वीरेन्द्र याज्ञिक ने डॉ. अच्युत सामंता के संघर्ष और संकल्प को सुंदर कांड के इस दोहे, ‘राम काजु कीन्हें बिनु, मोहि कहां बिश्राम‘ से जोड़ते हुए कहा कि सामंता जी के अंदर वही भाव है जो भाव हनुमानजी के मन में था। इस अवसर पर सीए सुनील गोयल ने भी डॉ. सामंता से जुड़े संस्मरण प्रस्तुत करते हुए कहा कि ये अपने आप में अपने उदाहरण खुद ही हैं, इनके जैसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है।

कार्यक्रम का संचालन सुनील सिंघल ने किया। इस अवसर पर श्री भागवत परिवार का परिचय श्री प्रमोद कुमार बिंदलीस ने दिया। कार्यक्रम में श्री भागवत परिवार के, सुरेन्द्र विकस, श्री सुभाष चौधरी,  लक्ष्मीकांत सिंगड़ोदिया, कमलेश पारीक आदि उपस्थित थे। कार्यक्रम में डॉ. सामंता के मुंबई के सहयोगी वरुण सुथारा भी उपस्थित थे। कार्यक्रम के सफल आयोजन में क्षेत्रीय नगर सेवक  दीपक ठाकुर का विशेष योगदान रहा।

 

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