बढ़ती गर्मी और ‘लू’ की मार से देश बेहाल है। भारत के शहरों का हाल तेजी से अर्बन हीट आइलैंड के रूप में परिवर्तित होता जा रहा है। यदि इससे बचना है तो पर्यावरण के अनुकूल जीवनशैली को अपनाना होगा और साथ ही ईको फ्रेंडली वातावरण की निर्मिति करनी होगी।
अप्रैल महीना शुरू होते ही मौसम विभाग ने चेताया था कि गर्मी और लू का असर झेलने को जल्द तैयार हो जाएं और हुआ भी यही, दुनिया में बीते 113 साल का सबसे गर्म महीना रहा अप्रैल 2024। भले ही मई महीने के प्रारम्भ में पहाड़ों से ले कर मैदानी क्षेत्रों तक बरसात हुई, लेकिन लू का कहर कम नहीं हुआ। चिंता की बात यह है कि गंगा-यमुना के मैदानी क्षेत्रों में लू का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है, खासकर यहां बढ़ रहे शहरों में तपन का एहसास समय से पहले और सीमा रेखा से अधिक है। खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश जो कभी घने जंगलों के लिए जाना जाता था, बुंदेलखंड की तरह तीखी गर्मी की चपेट में आ रहा है। यहां पेड़ों की पत्तियों में नमी के आकलन से पता चलता है कि आने वाले दशकों में हरित प्रदेश कहलाने वाला यह क्षेत्र बुंदेलखंड की तरह सूखे, पलायन, निर्वनीकरण का शिकार हो सकता है। खासकर इस क्षेत्र में जहां शहरीकरण का विस्तार हुआ, वहां लू और गर्मी का विस्तार अधिक हुआ।
भारत के विश्वविद्यालयों में आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में हो रहे शोध बताते हैं कि लू के बढ़ने में क्षारीकरण के विस्तार का सीधा सम्बंध हैं।
सरकारी रिकार्ड बता रहा है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में अब हर साल लगभग 272 दिन लू के दर्ज किए जा रहे हैं। तकनीकी भाषा में इसे ‘अर्बन हीट आई लैंडेंड’ अर्थात ‘शहरी ताप द्वीप प्रभाव’ कहा जा सकता है। जब किसी शहर में उसके आस-पास के ग्रामीण क्षेत्र के मुकाबले तापमान अधिक बढ़ जाता है तो उसे अर्बन हीट आइलैंड कहते हैं।
शहर अर्थात ऊंची इमारतों, हरियाली खासकर पारम्परिक पेड़ों की कमी, जल-निधियों जैसे तालाब, पोखर और नदी का दायरा घटना। यही वे कारण हैं जो किसी शहर में गर्मी की मार को जानलेवा बना देते हैं। इनके कुप्रभावों को चौगुना करने में कांक्रीट की ऊंची इमारतें, इनमें लगे एयरकंडीशनर से निकलने वाली गर्मी, वाहनों के चलने से उत्सर्जित ऊष्मा और यातायात थमने से उपजने वाली गैस भी शहरों को तपा रही हैं। शहरों की गगनचुम्बी इमारतों की कंक्रीट भी गर्मी की विस्तारक हैं। गौरतलब हो कि ये भवन सूर्य की तपन से गर्मी को परावर्तित और अवशोषित करते हैं। इसके अलावा एक-दूसरे के करीब कई ऊंची इमारतें भी हवा के प्रवाह में बाधा बनती हैं, इससे शीतलन अवरुद्ध होता है। शहरों की सड़कें तापमान बढ़ाने में बड़ी कारक हैं। महानगर में सीमेंट और कांक्रीट के बढ़ते जंगल, डामर की सड़कें और ऊंचे-ऊंचे मकान सूर्य की किरणों को सोख रहे हैं। इस कारण शहर में गर्मी बढ़ रही है। वाहनों के चलने और इमारतों में लगे पंखे, कम्प्यूटर, रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर जैसे बिजली के उपकरण भले ही इंसान को सुख देते हो, लेकिन ये शहरी क्षेत्रों का तापमान बढ़ाने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से तैयार जलवायु पारदर्शिता रिपोर्ट 2022 के अनुसार वर्ष 2021 में भीषण गर्मी के चलते भारत में सेवा, विनिर्माण, खेती और निर्माण क्षेत्रों में लगभग 13 लाख करोड़ का नुकसान हुआ। रिपोर्ट कहती है कि गर्मी बढ़ने के प्रभाव के चलते 167 अरब घंटे सम्भावित श्रम का नुकसान हुआ, जो सन 1999 के मुकाबले 39 प्रतिशत अधिक है। इस रिपोर्ट के अनुसार तापमान में डेढ़ प्रतिशत की बढ़ोत्तरी होने पर बाढ़ से हर साल होने वाला नुकसान 49 प्रतिशत बढ़ सकता है। गर्मी बढ़ेगी तो समुद्र का तापमान भी बढ़ेगा और इससे उपजने वाले चक्रवात से होने वाली तबाही भी बढ़ेगी। विदित हो चार साल पहले भारत सरकार के केंद्रीय पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय ने पहली जलवायु परिवर्तन मूल्यांकन रिपोर्ट में आगाह किया गया था कि 2100 के अंत तक भारत में गर्मी (अप्रैल-जून) में चलने वाली लू या गर्म हवाएं 3 से 4 गुना अधिक हो सकती हैं। इनकी औसत अवधि भी दुगनी होने का अनुमान है। वैसे तो लू का असर सारे देश में ही बढ़ेगा, लेकिन घनी आबादी वाले भारत- गंगा नदी बेसिन के क्षेत्रों में इसकी मार ज्यादा तीखी होगी।
रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्मियों में मानसून के मौसम के दौरान सन 1951-1980 की अवधि की तुलना में वर्ष 1981-2011 के दौरान 27 प्रतिशत अधिक दिन सूखे के दर्ज किए गए। इसमें चेताया गया है कि बीते छः दशक के दौरान बढ़ती गर्मी और मानसून में कम बरसात के चलते देश में सूखाग्रस्त क्षेत्रों में बढ़ोत्तरी हो रही है। खासकर मध्य भारत, दक्षिण-पश्चिमी तट, दक्षिणी प्रायद्वीप और उत्तर-पूर्वी भारत के क्षेत्रों में औसतन प्रति दशक दो से अधिक अल्प वर्षा और सूखे दर्ज किए गए। यह चिंताजनक है कि सूखे से प्रभावित क्षेत्र में प्रति दशक 1.3 प्रतिशत की वृद्धि हो रही है। रिपोर्ट में यह भी सम्भावना जताई जा रही है कि जलवायु परिवर्तन की मार के चलते ना केवल सूखे की मार का क्षेत्र बढ़ेगा, बल्कि अल्प वर्षा की आवर्ती में भी औसतन वृद्धि हो सकती है। लेंसेट काउंट डाउन की रिपोर्ट कहती है कि भारत में 2000-2004 और 2017-21 के बीच भीषण गर्मी से होने वाली मौतों की संख्या में करीब 55 प्रतिशत तक का उछाल आया है। बढ़ते तापमान से स्वास्थ्य प्रणाली पर हानिकारक असर हो रहा है।
मार्च 24 में संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) ने भारत में एक लाख लोगों के बीच सर्वे कर एक रिपोर्ट में बताया है कि गर्मी/लू के कारण गरीब परिवारों को अमीरों की तुलना में 5 प्रतिशत अधिक आर्थिक नुकसान होगा। चूंकि आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग बढ़ते तापमान के अनुरूप अपने कार्य को ढाल लेते हैं, जबकि गरीब ऐसा नहीं कर पाते।
गौर करने वाली बात है कि जिन क्षेत्रों में लू से मौत हो रही हैं, वहां गंगा और अन्य विशाल जल निधियों का जाल है। इसके बावजूद वहां लू की मार है। शहरों का बढ़ता तापमान न केवल पर्यावरणीय संकट है, बल्कि सामाजिक-आर्थिक त्रासदी व असमानता और संकट का कारक भी बनेगा। गर्मी अकेले शरीर को नहीं प्रभावित करती, इससे इंसान की कार्यक्षमता प्रभावित होती है, पानी और बिजली की मांग बढती है, उत्पादन लागत भी बढ़ती है।
इस समय अनिवार्य है कि शहरों में रहने वाले श्रमजीवियों के लिए भीषण गर्मी से जूझने में अनुकूल परिवेश और कार्य समय निर्धारित किया जाए। जिन्हें मजबूरी में खुले में रहना पड़ रहा है उन्हें छांव मिले, साफ पानी मिले इसके लिए सरकार और समाज दोनों को साथ आना होगा। यदि शहरों को उमसभरी गर्मी और उससे उपजने वाली लू की मार से बचना है तो अधिक से अधिक पेड़ों को रोपना जरुरी है। शहर के बीच बहने वाली नदियां, तालाब, जोहड़ आदि यदि निर्मल और अविरल रहेंगे तो बढ़ी गर्मी को सोखने में ये सक्षम होंगे। कार्यालयों के समय में बदलाव, सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा, बहु मंजिला भवनों का ईकोफ्रेंडली होना, उर्जा संचयन सहित कुछ ऐसे उपाय हैं जो बहुत कम समय में शहर को भट्टी बनने से बचा सकते हैं।