जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण ने हमारे देश में जल संकट को और गहरा कर दिया है। कर्तव्यविहीन भोगवादी वृत्ति ने हमें प्रकृति का केवल दोहन व शोषण का आदी बना दिया है, परंतु अब भी समय है, वर्षा जल संग्रहण की उपाय-योजना बना कर हम जल संरक्षण कर सकते हैं।
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यक्रम मन की बात में प्राय: वर्षा जल संग्रहण की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए लोगों से खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में एवं शहर का पानी शहर में रोकने हेतु वर्षा जल संग्रह करने की अपील करते रहते हैं। प्रधान मंत्री मोदी ने हमारे देश में वर्षा जल संग्रहण की परम्परा का उदाहरण देते हुए पोरबंदर में महात्मा गांधी के घर का जिक्र किया, जिसमे आज से लगभग 200 वर्ष पूर्व भी वर्षा जल संग्रहण हेतु उपाय किए गए थे और जल के सुरक्षित संग्रहण हेतु भूमिगत टंकी का निर्माण किया गया था। जिसमें संग्रहित जल का उपयोग वर्षपर्यंत किया जाता था।
जल संरक्षण में आई व्यापक कमी एवं जल संकट पर प्रधान मंत्री की यह चिंता और अपील बिना वजह नहीं है। प्रधान मंत्री बनने से पूर्व भी वे जल संकट के प्रति संवेदनशील रहे हैं। नरेंद्र मोदी जब पहली बार गुजरात के मुख्य मंत्री बने थे उसके बाद से अति जल संकट से जूझते गुजरात में पेयजल की अनेक योजनाओं का शुभारम्भ हुआ। राज्य में जल स्त्रोतों का उचित उपयोग करने के लिए ‘सुजलाम सुफलाम’ नामक योजना चलाई गई। गुजरात के तत्कालीन मुख्य मंत्री नरेंद्र मोदी ने नारा दिया – सेव वाटर, वाटर विल सेव अस। यह अभियान इतना असरदार रहा कि पूरे गुजरात की जनता ने इसमें अपना सहयोग दिया जिससे जल की बर्बादी पर न केवल विराम लगा बल्कि गुजरात ने अन्य तटवर्ती राज्यों से आगे निकलते हुए जल संकट से उबरने का एक मॉडल प्रस्तुत किया। जिसका अनुसरण कर पूरे देश में व्याप्त जल संकट से उबरा जा सकता है।
अति भूजल दोहन ने देश के अनेक क्षेत्रों में व्यापक जल संकट उत्पन्न कर दिया है। सतही जल के प्रमुख स्त्रोत हमारी नदियां, तालाबों, झीलों का जल इस कदर प्रदूषित हो गया है कि उनका उपयोग अनेक बीमारियों को न्योता देना है। कम गहराई पर मिलने वाला जल स्त्रोत भी या तो दोहन के कारण समाप्त हो गया है अथवा खेती में उपयोग किए जाने वाले रसायनों के भूमि में रिसाव के कारण प्रदूषित हो गया है। अब बचा धरती का सुरक्षित जल भंडार जो काफी गहराई पर उपलब्ध होता है, वह भी अति दोहन के कारण समाप्त होने के कगार पर पंहुच गया है अथवा अति दोहन के कारण खाली हुई जगह में समुद्र के खारे जल के भर जाने से अब यह जल स्त्रोत भी खारा हो रहा है। अत: उपलब्ध मीठे पानी के प्रमुख स्त्रोत हमारे देश में अत्यधिक संकटग्रस्त अवस्था में पहुंच चुके हैं। क
हमारे पूर्वजों ने जल प्रबंधन पर विशेष ध्यान दिया था। ऋग्वेद के अध्वर्यु सूक्त में, अध्वर्यु को राष्ट्र के योजनाकार के रूप में जिन दस कर्तव्यों का निर्देश दिया गया है उनमे दूसरा कर्त्तव्य वर्षा जल का संरक्षण है। वर्षा के जल को सबसे शुद्ध माना जाता है। सामान्यतया लोग जल के दो ही स्त्रोत जानते हैं – एक, धरती का सतही जल एवं दूसरा, धरती के भीतर का जल, परंतु राजस्थान के लोगों को बहुत पहले से यह ज्ञात है कि जल के तीन स्त्रोत हैं – पहला, पालेर पानी (वर्षा जल), जल के जितने भी सतही स्त्रोत हैं, जैसे नदियां, तालाब आदि उनका मूल स्त्रोत वर्षा का जल ही होता है। दूसरा, रेजाणी पानी यह भूमि के 5-10 फीट नीचे स्थित खडिया पत्थरों (जिप्सम) की पट्टी पर जमा होता है। इस पानी को संकरे एवं कम गहराई के कुओं के माध्यम से इकठ्ठा किया जाता है। इन कुओं में रेत की नमी धीरे-धीरे पानी की बूंदों में बदल कर जमा होती है। यह विशेषकर उन इलाकों में बनाए जाते हैं जहां भूमिगत जल खारा होता है। इस प्रकार रेजाणी पानी, खडिया पत्थरों के कारण नीचे रिस कर खारे पानी में मिलने से बच जाता है और जन उपयोगी बना रहता है। यह भंडार भी प्रत्येक बरसात में पुनः भर जाता है। तीसरा, पाताल पानी जो धरती के अंदर गहराई में होता है। पहले राजस्थान के लोग यह जानते थे कि पाताल पानी का उपयोग केवल अत्यंत संकट की अवस्था में करना चाहिए, परंतु आज सबसे अधिक इसी भूमिगत जल का दोहन किया जा रहा है। पहले वर्षा जल को दो प्रकार से संग्रह किया जाता था- पहला, वर्षा के जल को बहाव के मार्ग पर तेजी से बहने से रोक कर (वृक्षों, घांस, झाड़, मेड़ बनाकर अथवा अन्य अवरोधों के माध्यम से रोक कर) भूगर्भ जल का भंडार भरा जाता था और दूसरा, इसके बाद प्रवाहित जल को पत्थर की नालियों द्वारा एक जगह ले जा कर पत्थर से निर्मित ऐसे कुण्डों में संग्रहित किया जाता था जिनमे एकत्र जल भूमि में रिसकर खारे पानी से न मिल सके और सूरज के सीधे संपर्क से वाष्पीकृत न हो सके। इस जल का उपयोग पूरे साल किया जाता था एवं अगली वर्षा में फिर से भर दिया जाता था। इस प्रकार बहुत श्रम करके जल का संरक्षण किया जाता था। जो इस बात का प्रतीक था कि जल बहुत परिश्रम से मिलता है और इसका दुरूपयोग नहीं होना चाहिए।
जल प्रबंधन में पेयजल की अलग व्यवस्था थी, अन्य कार्यों के लिए जल की अलग व्यवस्था थी। अब हम बिना श्रम के बिजली के पम्पों से जल प्राप्त करने लगे हैं, इसलिए अत्यधिक गहराई से भी बिना परिश्रम के जल प्राप्त करते हैं। अत: पेयजल एवं अन्य कार्यों के लिए अलग-अलग जल का प्रयोग भूल गए। पेयजल का उपयोग टॉयलेट में बहाने तक के लिए कर रहे हैं और वर्षा जल का संग्रह करने की परम्परा भी भूलने लगे, वर्षा जल का संग्रह करना हमने बंद कर दिया है, घरों का सीवर नदियों में बहाकर नदियों को हमने प्रदूषित कर दिया और भूमिगत जल के अति दोहन को आत्मसात किया, जिससे धरती में जमा सुरक्षित जल भंडार पर भी संकट उत्पन्न हो गया है।
अतः वर्तमान जल संकट से उबरने का एकमात्र उपाय है वर्षा जल का समुचित प्रबंधन। वर्षा के जल को बह कर समुद्र में जाने से रोकना एवं भूमिगत जल भंडार में वृद्धि करना। इसके लिए हम सबको मिलकर खेत का पानी खेत में, गांव का पानी गांव में एवं शहर का पानी शहर में रोकने के उपाय करने होंगे। मानसून में खेत तालाब बनाकर, खेत का पानी खेत में ही रोकने से जहां बाढ़ को रोकने में सहायता मिलेगी, वहीं भूमिगत जल भण्डार भी भरेगा एवं सालभर सिंचाई के लिए जल भी मिलेगा। राजस्थान में जयपुर के पास लापोड़िया गांव के कर्मयोगी लक्ष्मण सिंह ने चौका तकनीकी के तहत 10 -10 फीट के 10 इंच गहरे तालाबों की श्रृंखला बनाकर खेतों को हरा भरा कर दिया है। उनके इस कार्य हेतु उन्हें वर्ष 2007 में तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा जल संग्रहण पुरस्कार प्रदान किया गया एवं वर्ष 2023 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। खेत, तालाब बनाने के साथ ही गांवों का पानी भी नदियों के माध्यम से बह जाने से रोकने के लिए गांवों में तालाबों को खुदवाने एवं उनका संरक्षण करना आवश्यक है जिससे वर्षा का जल रोका जा सके एवं वर्षपर्यंत उपयोगी बना रहे। इसी प्रकार शहरों में भी सभी इमारतों एवं मकानों के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग अनिवार्य किया जाना आवश्यक है। नगरों में सभी स्थानों को कंक्रीट का जंगल बनाने की बजाय पार्कों एवं पेड़ पौधों से सुसज्जित करने से हरियाली दिखेगी, मन को सुकून मिलेगा एवं वर्षा का जल भी भूमिगत जल को रिचार्ज करने में सहायक बनेगा।