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 जय में ‘पराजय’  

 जय में ‘पराजय’  

by रमेश पतंगे
in ट्रेंडींग, देश-विदेश, मीडिया, राजनीति, विशेष, सामाजिक
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एक तरफ भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने की घोषणा करना और दूसरी तरफ जिन पर भ्रष्टाचार के भयंकर आरोप हैं, जो जेल जाकर आए हैं, उन्हें गले लगाना और यह सब जनहित के लिए कर रहे हैं ऐसा ढिंढोरा पीटना, इस पर जनता विश्वास नहीं रखती। जनता या मतदाता इतने भोले नहीं होते। राजनीतिक दांवपेच, राजनीतिक व्यूहरचना यह शायद उनको समझ में ना आए परंतु जो कुछ चल रहा है वह अच्छा है या खराब यह जनता को समझ में आता है। तब वह निश्चय करती है कि आप गलत कर रहे हैं, वह आपके समर्थन में नहीं खड़ी होगी।

मां बाप की यह हमेशा अपेक्षा होती है कि उनकी संतान 12वीं की परीक्षा में 90 से 95% मार्क्स प्राप्त करें। इससे पहले हुई परीक्षा पर यह अपेक्षा अवलंबित होती है। परंतु जब रिजल्ट आता है, तब ध्यान में आता है की नंबर तो 65% ही आए हैं। संतान प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होने का संतोष तो है, परंतु अपेक्षाभंग का दुख भी है। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं की यही मनोदशा है। परीक्षा तो पास कर ली परंतु अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

अपेक्षित सफलता क्यों नहीं मिली यह भाजपा की दृष्टि से गहन आत्मचिंतन का विषय है। ऐसा आत्मचिंतन करने में वे सक्षम है अतः बिना मांगे सलाह देने का कोई औचित्य नहीं है। प्रत्यक्ष जो घटित हुआ है और हम सरिखों ने उसका जो आकलन किया है वही यहां लिखना श्रेयस्कर होगा। कोई दल जब चुनाव जीतता है या हारता है, इसका अर्थ क्या होता है? दल के अधिक से अधिक उम्मीदवार जब जीत कर आते हैं, तो वह विजयी दल कहलाता है। जब यह संख्या अपेक्षा से कम होती है, तब वह पराजित हुआ ऐसा कहा जाता है। इसका दूसरा अर्थ है की चुनाव में खड़े हुए उम्मीदवार की उम्मीदवारी महत्वपूर्ण होती है।

उम्मीदवार कब चुनकर आता है? उसके चार कारण हैं।
1) दल के विषय में जनमत – यह जनमत बनाने का काम नेता करते हैं।
2) दल के शीर्षस्थ नेतृत्व का करिश्मा, उसके नाम का प्रभाव।
3) जो उम्मीदवार चुनाव में खड़ा है उसकी स्वयं की चुनकर आने की क्षमता।
4) दल के लिए काम करने वाले कार्यकर्ताओं का उम्मीदवार को समर्थन

उपरोक्त चार कारणों में से यदि एक कारण भी कमजोर हुआ तो उम्मीदवार की जीतने की शक्ति मर्यादित हो जाती है।

इस चुनाव का यदि हम विचार करें तो देश स्तर पर भारतीय जनता पार्टी की प्रतिमा मलिन हो गई है, ऐसा चित्र नहीं था। नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता बहुत बड़े प्रमाण में घटी है, ऐसा चित्र भी नहीं था। इससे उलट समाज के एक बहुत बड़े वर्ग में नरेंद्र मोदी को 272 सीटें ना मिलने का खेद ही है और उनके प्रति सहानुभूति भी है। भाजपा को उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और राजस्थान में कम सीटें मिली है। दिल्ली, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात, आंध्र, उड़ीसा इत्यादि राज्यों में भाजपा की सफलता लक्षणीय और प्रशंसनीय है।

जिन राज्यों में भाजपा को अपेक्षित सफलता नहीं मिली, वहां उम्मीदवारों के चुनाव में गलती हुई, उम्मीदवारों को कार्यकर्ताओं ने स्वीकार नहीं किया, ये दो मुख्य कारण सामने आते हैं। वहां उम्मीदवारों को जो वोट मिले वे मोदी के नाम पर मिले हैं। मतदाताओं ने उम्मीदवार की अपेक्षा मोदी के नाम पर वोट दिया। जीतने के लिए स्वत: के बल पर भी वोट लाने पड़ते हैं, जो उम्मीदवार लाने में विफल रहा। उसके अलग-अलग कारण हैं।

इस चुनाव में मोदी तो चुन कर आएंगे ही, भाजपा की सरकार बनेगी कारण लोग हमें वोट करेंगे, शायद यह अहंकार जीत के आड़े आ गया। प्रत्येक चुनाव यह सीख देता है कि मतदाताओं को परिकल्पित( गृहित) ना धरें। वे हमें ही वोट देने वाले हैं इस प्रकार का अति आत्मविश्वास न रखें। राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को जनता का राजनीतिक मानस समझने के लिए व्यक्तिगत अहंकार, अति आत्मविश्वास, विरोधियों के प्रति तुच्छता की भावना, इन सब दोषों से दूर रहना सीखना चाहिए।

भारतीय जनमानस कैसा होता है, यह अब तक हुए चुनाव में प्रत्येक बार स्पष्ट हुआ है। भारतीय जनमानस प्रतिशोध की राजनीति पसंद नहीं करता। राजनीतिक नेताओं के भाषण से यदि समाज को यह संदेश गया की वे जो कर रहे हैं वही अच्छा है, वही समाज हित का है और इसीलिए आपको उन्हें वोट देना चाहिए। किसी को भी आज्ञा देना बहुत पसंद नहीं आता। बच्चों को आज्ञाधारक होना चाहिए, यह नैतिक वाक्य है, परंतु जब मां-बाप बच्चों की मानसिकता का ध्यान न रखते हुए कुछ भी आज्ञा देने लगते हैं, तब बच्चे वह नहीं मानते। प्रत्येक घर का यही अनुभव है। इसे मानस शास्त्र विस्तारित कर देखना पड़ता है।

एक तरफ भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ने की घोषणा करना और दूसरी तरफ जिन पर भ्रष्टाचार के भयंकर आरोप हैं, जो जेल जाकर आए हैं, उन्हें गले लगाना और यह सब जनहित के लिए कर रहे हैं ऐसा ढिंढोरा पीटना, इस पर जनता विश्वास नहीं रखती। जनता या मतदाता इतने भोले नहीं होते। राजनीतिक दांवपेच, राजनीतिक व्यूहरचना यह शायद उनको समझ में ना आए परंतु जो कुछ चल रहा है वह अच्छा है या खराब यह जनता को समझ में आता है। तब वह निश्चय करती है कि आप गलत कर रहे हैं, वह आपके समर्थन में नहीं खड़ी होगी।

दल का कार्यकर्ता जब यह देखता है कि, मैं किशोरवय से दल का काम कर रहा हूं, मां बाप से दल का काम करने की दीक्षा ली है परंतु दल में बाहर से आए हुए लोगों को सम्मान मिल रहा है, पद मिल रहे हैं और चुनाव के टिकट भी मिल गए हैं, उस समय ऐसे निष्ठावान कार्यकर्ताओं की भावनाएं गंभीर रूप से आहत होती हैं। विचारों के प्रति निष्ठा होने के कारण वह दल नहीं छोड़ सकता। चुपचाप सहन करता रहता है। सत्ता आती है और जाती है। चुनाव में सफलता – असफलता 5 वर्ष के लिए मर्यादित होती है। कोई सदैव सफल भी नहीं होता और असफल भी नहीं होता। इसलिए कार्यकर्ताओं की मानसिकता का विचार अपनात्व से करना चाहिए। उसे दुखी रखकर या असंतुष्ट रखकर बहुत बड़ी सफलता की अपेक्षा करना व्यर्थ है। अंग्रेजी में कहावत है, ” एक पैसे की चिंता करें, रुपया अपने आप स्थिर रहेगा।” इसलिए कार्यकर्ता की ओर दुर्लक्ष हुआ है क्या? इसकी खोज आवश्यक है।

जिस विचारधारा पर भारतीय जनता पार्टी चल रही है, उसके समर्थन का प्रतिशत बढ़ गया है। आज भी नरेंद्र मोदी इसी विचारधारा का राजनीतिक चेहरा है। 272 सीटें  न मिलने के कारण सरकार चलाने में बहुत अड़चनों का सामना करना पड़ेगा। परंतु यह आगे का प्रश्न है। आज इतना ही कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगी आगामी 5 वर्षों में कुशलता पूर्वक शासन की नौका चलाएंगे, ऐसा विश्वास रखने में कोई हर्ज नहीं है।

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