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वैचारिक अनुष्ठान देनेवाले अटलजी

Indian Prime Minister Atal Behari Vajpayee attends the Association of South East Asian Nations (ASEAN) plus India Summit in Nusa Dua, on the Indonesian resort island of Bali October 8,2003. REUTERS/Bayu Ismoyo/Pool EN/DL - RTR4IJS

पितृछाया का उठ जाना…

by विजय रूपाणी
in अनंत अटलजी विशेषांक - अक्टूबर २०१८, विशेष
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“अटल जी की पितृछाया में हमें काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके विचार, उनकी कविताएं और उनके कार्य निश्चित तौर पर आने वाली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति व सभ्यता और देशभक्ति के लिए प्रेरित करते रहेंगे। भारत ही नहीं पूरा विश्व उन्हें एक आदर्श जननेता, एक श्रेष्ठ वक्ता और एक महान राष्ट्रकवि के रूप में चिरकाल तक याद रखेगा।”

हमारे लोकप्रिय जननेता और पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी अब हमारे बीच नहीं रहे। 16 अगस्त 2018 को लंबी बीमारी से जूझते हुए उन्होंने अपने प्राण त्याग दिए। उस दिन पूरा देश शोक में डूबा हुआ था। प्रकृति भी शायद शोकमग्न थी, तभी उस दिन धूप व हवाओं में भी एक अजीब सा सूनापन महसूस हो रहा था। और ऐसा हो भी क्यों न, देश ने राजनीति का एक महान संत खो दिया था। महात्मा गांधी के बाद शायद श्री अटल जी ही होंगे जिन्हें देश के लोगों ने इतना प्यार दिया है। मैंने सुना था, अटल जी लोगों के दिलों में बसते हैं, लेकिन उस दिन मैंने देख भी लिया, कि कैसे मात्र 24 घंटे से भी कम समय में देश के कोने-कोने से आम जन किसी न किसी तरह से उनके अंतिम दर्शन के लिए नई दिल्ली पहुंच रहे थे।

16 अगस्त 2018 को दिल्ली में मानों पूरा भारत एक साथ कदमताल करता दिखाई पड़ रहा था। उस दौरान सभी मौन थे, लेकिन दिलों में भावनाएं उफान पर थीं। कोई उनके साथ बिताए पलों को याद कर रहा था, तो कुछ उनकी कविताओं को मन ही मन गुनगुनाकर राष्ट्रभक्ति में स्वयं को सराबोर कर रहे थे। श्री अटल बिहारी के रूप में उस दिन इस देश ने एक सच्चा जननेता,एक महान राष्ट्रकवि और एक महान व्यक्तित्व को खो दिया था।

अपने राजनीतिक काल के दौरान उन्होंने पूरे देश की यात्रा की, पार्टी कार्यकर्ताओं के घरों में रहे, सार्वजनिक बैठकों को संबोधित किया और अपने व्यक्तित्व की ताकत व वाक्प्रचार से पार्टी के संदेश को देशभर में फैलाया। उनकी अंतिम यात्रा के दौरान मैं भी उनके साथ बिताए कई संस्मरणों से गुजर रहा था। युवावस्था में जब अटल जी गुजरात के दौरे पर होते थे, तब मैं और मेरे साथीगण उनके लिए सभी प्रकार की व्यवस्थाएं किया करते थे। उस दौरान मुझे संगठन की ओर से प्रबंधन की जिम्मेदारी दी गई थी। इसी प्रकार सौराष्ट्र के चुनावों के दौरान एक बार जब अटल जी को राजकोट से जूनागढ़ जाना हुआ तब मैं भी उनके साथ उनकी एंबेसडर कार में था। रोड कुछ ज़्यादा ही ख़राब थी, और हम तय समय से काफी देर बाद सभा स्थल पर पहुंचे। मंच पर अपने संबोधन में उन्होंने बहुत ही विनोदपूर्ण लेकिन क्षमाभाव के साथ कहा- “11 का वादा किया था, लेकिन मैं माफी चाहता हूं कि मैं 12 को आया हूं।” उनके कहने तात्पर्य था कि 11 तारीख को मेरी सभा थी, लेकिन मैं 12 तारीख को पहुंचा हूं, इसके लिए मैं आप सभी से माफी चाहता हूं। राजकोट से जूनागढ़ की सड़क थी ही इतनी ख़राब कि सड़क ग– े में है या ग– े में सड़क है, इसका पता ही नहीं चलता था। इसी कारणवश हम तय समय से काफी देर पहुंचे थे लेकिन जिस क्षमाभाव से उन्होंने लोगों को अपनी ओर आकर्षित किया वह मेरे लिए सीखने वाली बात थी।

मुंबई में जब जनसंघ भाजपा के रूप में उदित हुआ, उस दारौन अटल जी ने कहा- “जनसंघ का दीपक एक हाथ से बुझा रहा हूं लेकिन दूसरे हाथ से भाजपा का सूरज उदय कर रहा हूं। भाजपा का कार्यकर्ता कभी हारता नहीं है, वह या तो जीतता है या फिर सीखता है।”उनके ऐसे ही प्रोत्साहक शब्दों से हम सभी कार्यकर्ताओं में जोश भर जाता था। भारतीय जनता पार्टी के पहले अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए अटल जी ने कहा था कि, “भाजपा का अध्यक्ष पद कोई अलंकार की वस्तु नहीं है। यह पद नहीं दायित्व है, प्रतिष्ठा नहीं है परीक्षा है, ये सम्मान नहीं है चुनौती है।” इस अधिवेशन में उन्होंने भाजपा की संगठन क्षमता को दिशा प्रदान की। “देश तकदीर के तिराहे पर खड़ा है, बात केवल सरकार को बदलने की नहीं, नए प्रधानमंत्री को लाने का नहीं है, संकट व्यवस्था का है, जिस पर गहराई से सोचा जाना चाहिए।” ये शब्द अटल जी के उसी अधिवेशन के हैं। उनके ऐसे विचार आज भी हमें देश के प्रति कुछ भी कर गुजरने के लिए प्रेरित करते हैं। “अंधेरा छंटेगा, सूरज निकलेगा, कमल खिलेगा।” का उनका कथन आज निश्चय ही यथार्थ में सत्य साबित होता दिखाई दे रहा है।

श्री अटल बिहारी वाजपेयी किसी दल के नहीं बल्कि देश के नेता थे। उन्हें राजनीति का अजातशत्रु ऐसे ही नहीं कहा जाता था, उन्होंने अपने विचारों व व्यवहारों से ऐसी प्रशंसाओं को जीता था। कहा तो यहां तक जाता है कि नेहरू जी ने शुरुआती दौर में ही अटल जी की प्रतिभा को पहचान लिया था और कुछ विदेशी मेहमानों से पहली बार सांसद बने वाजपेयी का परिचय भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में कराया था। यह शायद उनकी शख्सियत का ही कमाल था कि अपनी आरएसएस-जनसंघ की पृष्ठभूमि के बावजूद उन्होंने विपरीत वैचारिक ध्रुवों वाले दलों के बीच भी स्वीकार्यता हासिल की। जब उन्होंने ‘कदम मिलाकर चलना होगा’ जैसी कविता लिखी तो यह केवल एक कवि का दिवास्वप्न नहीं, बल्कि सच्चे अर्थों वाले एक लोकतांत्रिक व्यक्ति के अंतर्मन की सशक्त, उदार एवं लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति भी थी।

व्यक्तिगत रूप से सौम्य स्वभाव लेकिन देशहित में कड़े से कड़े फैसले लेने वाले अटली जी महान व्यक्तित्व के धनी थे। उन्होंने भारतीय राजनीति को परिपक्व बनाने और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाने में अपनी गहरी छाप छोड़ी है। उन्होंने देश की राजनीति व अर्थव्यवस्था को एक नई दिशा दी और एक नया आयाम दिया। राजनीतिक वैमनस्य से दूर रहते हुए उन्होंने ‘मतभेद हों पर मन भेद न हों’ के सिद्धांत पर ज़ोर दिया। उन्होंने हमें सिखाया कि हमें अपनी विरासत में विश्वास और भारत के भविष्य में विश्वास का पालन करना चाहिए। गर्व से अपने विचारों को लोगों के समक्ष प्रस्तुत करें, अपने विरोधियों की आलोचनाएं करें लेकिन उन्हें अपना दुश्मन न मानें। यही तो सही मायने में लोकतंत्र है।

वे केवल जनसंघ या भाजपा समर्थकों के ही प्रिय नहीं थे, बल्कि विपक्षी कार्यकर्ताओं के भी चहेते थे। उनकी प्रतिबद्धता, बुद्धि, विनोद और कटाक्ष की गहराई के साथ-साथ संसदीय बहस की अद्भुत क्षमता, जिसमें स्वंय पर हंसना भी शामिल है, अब किवदंती बन गई है। देश के प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने सुशासन से अपनी सरकार की नींव रखी और देश को भ्रष्टाचार मुक्त शासन दिया। आज हम उन्हीं के विचारों और विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। देश के पहले ग़ैर-कांग्रेसी विचारधारा वाले प्रधानमंत्री के रूप में श्री अटल जी ने कई पथ-प्रदर्शक पहल का नेतृत्व किया। फिर चाहे वह पोखरण का परमाणु परीक्षण हो या फिर आर्थिक सुधारों पर किए गए कार्य हों। अपने विकास कार्यों जैसे राष्ट्रीय राजमार्गों का चौतरफा विकास, हर गांव को सड़क से जोड़ना, मोबाइल फोन क्रांति, किसान क्रेडिट कार्ड और ‘सर्व शिक्षा अभियान’ जैसी योजनाओं से उन्होंने अपने व्यक्तित्व को अजेय कर लिया है।

एक कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में उन्होंने हमेशा देश के बारे में ही सोचा। फिर चाहे वे पक्ष के नेता रहे हों या फिर विपक्ष के नेता। शायद यह किसी ने न सोचा होगा कि एक वोट से हारने का जो दंश उन्होंने 1996 में झेला था, उनकी अंतिम यात्रा के दौरान देश के 15  राज्यों के भाजपा शासित मुख्यमंत्री और देश के प्रधानमंत्री भी उनकी अंतिम यात्रा में आदरपूर्वक उनके पीछे चल रहे होंगे। 1996 में श्री अटल जी ने कहा था कि “भविष्य में ऐसा समय ज़रूर आएगा, जब पूरे भारत में भाजपा का शासन होगा” और वे इतने भाग्यशाली भी रहे कि उन्होंने अपनी भविष्यवाणी को सफल होते हुए देखा।

एक ऐसा नेता, जो पिछले एक दशक से भी अधिक समय से सार्वजनिक जीवन से दूर रहा, जिसने कई वर्षों तक सार्वजनिक रूप से किसी से भी बातचीत तक न की हो और जिसने 14 साल पहले राजनीति से संन्यास ले लिया हो, फिर भी उनकी अंतिम यात्रा के दौरान जिस प्रकार का जनसैलाब उमड़ा और सहानुभूति, भावनाओं और प्रेरणाओं से भरे लम्हों को हमनें महसूस किया, उससे तो यही स्पष्ट होता है कि उन्होंने भले ही ज़मीन, जायदाद न कमाई हो लेकिन लोगों का प्यार और देश का सम्मान भरपूर कमाया है। यही उनकी असली विरासत है।

“मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूं: लौटकर आऊंगा, कूच से क्यों डरूं?” अटल जी की कविता की ये पंक्तियां ऐसी लगती हैं मानो सरस्वती मां ने उनसे उन्हीं के लिए रचित कराया हो। वे निश्चित तौर पर जी भर जिए और मन से मरे। मृत्यु अटल है, पर अटल जी तो अमर हो गए। मैं स्वयं को सौभाग्यशाली समझता हूं कि उनके नेतृत्व में या यूं कहूं उनकी पितृछाया में हमें काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। उनके विचार, उनकी कविताएं और उनके कार्य निश्चित तौर पर आने वाली पीढ़ियों को अपनी संस्कृति व सभ्यताऔर देशभक्ति के लिए प्रेरित करते रहेंगे। भारत ही नहीं पूरा विश्व उन्हें एक आदर्श जननेता, एक श्रेष्ठ वक्ता और एक महान राष्ट्रकवि के रूप में चिरकाल तक याद रखेगा।

 

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