परमवैभवपूर्ण राष्ट्र संघ का लक्ष्य

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनजी भागवत ने 17 से 19 सितम्बर तक दिल्ली के विज्ञान भवन में ‘भारत का भविष्यः संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर तीन दिन व्याख्यान दिए। अंतिम सत्र में उन्होंने हिंदुत्व, संघ व जाति व्यवस्था, शिक्षा, भाषा, आरक्षण, अल्पसंख्यकों, समान नागरिक संहिता, आंतरिक सुरक्षा, संघ-भाजपा के रिश्तें आदि प्रश्नों पर संघ की भूमिका को स्पष्ट किया। प्रस्तुत है इस प्रश्नोत्तर के अंश-

* क्या हिन्दुत्व को हिन्दुइज़म कहा जा सकता है?

हिन्दुत्व, हिन्दूनेस, हिन्दुइज़म ये गलत शब्द हैं; क्योंकि इज़म एक बंद चीज मानी जाती है। ये कोई इज़म नहीं है, यह एक प्रक्रिया है जो चलती रहती है। गांधी जी ने कहा कि सत्य की अनवरत खोज का नाम हिन्दुत्व है। राधाकृष्ण जी का एक बहुत सुंदर उद्धरण है, मेरे पास नहीं है इसलिए मैं नहीं बताऊंगा। लेकिन एक उसका चरण है कि हिन्दुत्व एक प्रक्रिया है। सतत् चलने वाली प्रक्रिया है। मोस्ट डायनामिक है और उसमें भारत में हुए सब विचारकों का योगदान है। इसलिए हिन्दुत्व को हिन्दुइज़म नहीं कहना चाहिए ऐसा मेरा मानना है और अन्य मत-पंथों के साथ तालमेल कर सकने वाली एकमात्र विचारधारा है- यह भारत की विचारधारा है, हिन्दुत्व की विचारधारा है। क्योंकि, तालमेल का आधार मूल एकत्व, प्रकार विविध है और विविध होना अवश्यम्भावी है। इसलिए कि प्रकृति विविधता को लेकर चलती है, विविधता भेद नहीं है, विविधता साज-सज्जा है, प्रकृति का शृंगार है, ऐसा संदेश देने वाला और संदेश यानी थ्योराइजेशन के आधार पर नहीं, अनुभूति के आधार पर देने वाला एकमात्र देश हमारा देश है। और, इसलिए हिन्दुत्व ही है जो सबके साथ तालमेल का आधार बन सकता है। जनजातीय समाज भी हिन्दू है। कल मैंने जिस राष्ट्रीयता का वर्णन किया, हमारी कल्पना का- उस अर्थ में जनजातीय समाज भी हिन्दू है। भारत में रहने वाले सब लोग हिन्दू ही हैं। पहचान की दृष्टि से, राष्ट्रीयता की दृष्टि से। यह कुछ लोग जानते हैं, गर्व से कहते हैं, कुछ लोग जानते हैं लेकिन अन्य किसी बात के कारण कहने में संकोच करते हैं और कुछ लोग नहीं जानते हैं इसलिए नहीं कहते हैं।

मैं तो कहता हूं कि भारत की यह जो प्राचीन विचारधारा अब तक चली आ रही है और अन्यान्य रूपों में सर्वत्र प्रकट हो गई है उन रूपों में इतनी विविधता है कि कई रूप एक-दूसरे के विरोधी भी लगते हैं। लेकिन वह एक समान मूल्यबोध लेकर चलने वाली विचारधारा है। उस मूल्यबोध का प्रारंभ हमारे जनजातीय बंधुओं के जीवन से और कृषकों के जीवन से प्रारंभ हुआ है। इस अर्थ में तो ये हमारे पूर्वज हैं। ऐसे ही उनको देखना चाहिए और उनकी सारी स्थितियों का, समस्याओं का विचार करना चाहिए। ये सब अपने हैं। भारत में कोई पराया नहीं, परायापन हमने निर्माण किया है। हमारी परंपरा ने नहीं, वह तो एकता ही सिखाती है।

* हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था को संघ कैसे देखता है?

जाति व्यवस्था कहते हैं, उसमें गलती होती है। आज व्यवस्था कहां है, वह अव्यवस्था है। कभी यह जाति व्यवस्था रही होगी, वह उपयुक्त रही होगी, नहीं रही होगी। आज उसका विचार करने का कोई कारण नहीं है, वह जाने वाली है। जाने के लिए प्रयास करेंगे तो पक्की होगी। उसको भगाने के लिए प्रयास करने के बजाय जो आना चाहिए उसके लिए हम प्रयास करें तो ज्यादा अच्छा होगा। अंधेरे को लाठी मार-मार कर भगाएंगे, अंधेरा नहीं जाएगा। एक दीपक जलाओ वह भाग जाएगा। एक बड़ी लाइन खींचो तो सारे भेद विलुप्त हो जाएंगे। यही संघ कर रहा है और हम मानते हैं कि सामाजिक विषमता का पोषण करने वाली सभी बातें, ‘लॉक स्टॉक एंड बैरल’ बाहर जानी चाहिए। हम विषमता में विश्वास नहीं करते।

एक बार मैं सरकार्यवाह चुना गया, पहली बार। हमारे सहसरकार्यवाह सुरेश जी सोनी, उनकी नियुक्ति हो गई। …तो मीडिया ने चलाया कि यह भागवत गुट की विजय हो गई लेकिन ओ.बी.सी. को रिप्रेजेंटेशन देना है इसलिए सोनी जी को रखा है। मैंने सोनी जी को पूछा कि सोनी जी आप ओ.बी.सी. में आते हैं क्या? तो उन्होंने थोड़ा-सा मुस्कुरा कर दिया और उत्तर नहीं दिया। इसलिए अभी-भी सोनी जी किसमें आते हैं मैं नहीं जानता। यह संघ में वातावरण है। अगर हम इसी ढंग से बढ़ते हैं तो यह परिवर्तन होता है। नागपुर में, मैं पढ़ रहा था, विद्यार्थी था। उस समय नागपुर संघ के लगभग सभी अधिकारी एक ही जाति के थे, ब्राह्मण जाति के थे। लेकिन मैं नागपुर का प्रचारक बन कर 80 के दशक में जब वापस आया तो जगह-जगह जितनी बस्तियां थीं उस प्रकार की कार्यकारिणी बनी थी। इसलिए बनी थी कि हमारी शाखाएं बढ़ीं, हम उस बस्ती में पहुंचे, हमने काम बढ़ाया, स्वाभाविक उसमें से कार्यकर्ता तैयार हुए, वे आ गए। कोटा सिस्टम करेंगे तो जाति का भान रहेगा। सहज प्रक्रिया से सब को लाएंगे तो फिर जाति नहीं रहेगी। सहज प्रक्रिया लाते समय लाने वालों के मन में यह भान रहना चाहिए क्योंकि स्वाभाविक प्रवृत्ति मनुष्य की अपने जैसे को पकड़ने की होती है। हमको अपने जैसे को नहीं पकड़ना है, सब को पकड़ना है। यह ध्यान में रख कर अगर काम चलता है तो ऐसा होता है। 50 के दशक में आपको ब्राह्मण ही नजर आते थे। क्योंकि आप पूछते हैं इसलिए थोड़ा बहुत ध्यान में आता है कि जोन स्तर पर, प्रांत और प्रांत के ऊपर जोन, जोन स्तर पर सभी जातियों के कार्यकर्ता आते हैं। अखिल भारतीय स्तर पर भी अभी एक ही जाति नहीं रही। वह बढ़ता जाएगा और सम्पूर्ण हिन्दू समाज का संगठन, जिसमें काम करने वालों में सभी जाति वर्गों का समावेश है, ऐसी कार्यकारिणी आपको उस समय दिखने लगेगी। मैंने कहा, यात्रा लम्बी है लेकिन हम उस ओर आगे बढ़ रहे हैं यह महत्व की बात है।

घुमंतू जातियों के लिए हमने काम किया है। मैं मानता हूं कि स्वतंत्रता के बाद उन पर ध्यान देकर काम करने वाले हम पहले होंगे। महाराष्ट्र में यह काम शुरू हुआ। और उसके चलते बहुत सारी बातें हुईं। उनको स्थिर करना, उनके बच्चों को शिक्षा में भेजना, शिक्षा प्राप्त करके वे समाज में आगे बढ़ें इसे देखना, उनकी जो परम्परा से आने वाली रूढ़ियां-कुरीतियां हैं उनको हटाने का भाव उनके ही मन में उत्पन्न करके उसको गृहस्थ करना आदि सारी बातें करते-करते कार्य का परिणाम ऐसा हो गया कि पहले महाराष्ट्र सरकार ने और बाद में केन्द्र सरकार ने भी उनके लिए यानी अलग कमीशन बनाया है और वह पायलट प्रोजेक्ट हमारा चला है। यमगरवाडी नाम का स्थान है। वहां उसकी केन्द्रीयभूत जानकारी और कार्य का प्राथमिक स्वरूप आपको देखने को मिलेगा। जिनको जाना है जरूर जाइए। आप विदेशों में यात्रा करते हैं मनोरंजन के लिए, एक बार वहां की भी यात्रा कीजिए। कितने पापड़ बेलकर कार्यकर्ताओं ने इस समाज को बराबरी में लाने का प्रयास चलाया है, इसे आप जान सकेंगे। उस कार्य को अब अखिल भारत में जितनी घुमंतू विमुक्त जातियां हैं, उनके लिए बढ़ाने का उपक्रम भी हमने पिछले वर्ष से प्रारंभ किया है और हम उनके लिए भी काम करेंगे।

* शिक्षा में परम्परा और आधुनिकता का समन्वय वेद, रामायण, महाभारत आदि का शिक्षा में समावेश, सहशिक्षा आदि विषयों पर संघ की क्या राय है?

देखिए धर्मपाल जी का ग्रंथ आप पढ़ेंगे तो आपको ध्यान में आएगा कि अंग्रेजों के आने के बाद उन्होंने जब सर्वे किया तो उनको ध्यान में आया कि परम्परा से हमारी शिक्षा पद्धति ज्यादा प्रभावी अधिक लोगों को साक्षर बनाने वाली, मनुष्य बनाने वाली और अपना जीवन चलाने के लिए योग्य बनाने वाली थी। वह अपने देश में ले गए और ऐसा सब कुछ एकसाथ न कर सकने वाली उनकी पद्धतियां उन्होंने लाईं। यह इतिहास है। और इसलिए आज की दुनिया में आधुनिक शिक्षा प्रणाली में जो लेनेलायक हैं उसे लेते हुए अपनी परम्परा से जो लेना है उसे लेकर हमें एक नई शिक्षा नीति बनानी चाहिए। आशा करता हूं कि नई शिक्षा नीति आने वाली है। उसमें ये सब बातें होंगी।

अपने देश का विचारधन उसमें से मिलना चाहिए। चतुर्वेदाः-पुराणानि सर्वोपनिषदस्तथा रामायणं भारतं च गीता सद्दर्शानी च जैनागमस्त्रिपिटका गुरुग्रन्थः सतां गिरा (यानी संत वाणी) ऐषद ज्ञाननिधि श्रेष्ठ। ऐसी शिक्षा भारत के लोगों को मिलना ही चाहिए। सब को मिलना चाहिए। और भी सम्प्रदाय हैं जो बाहर से आए हैं। उसकी अच्छी खासी संख्या है। उसमें भी जो मूल्यबोध है वह सिखाना चाहिए। रिलीजन की शिक्षा भले हम न दें लेकिन मूल्यबोध इस दृष्टि से और उसमें से निकलने वाले संस्कारों की दृष्टि से इन सब का अध्ययन पठन-पाठन हमारी शिक्षा पद्धति में स्नातक तक अनिवार्य है, ऐसा संघ का मत है। शिक्षा का स्तर घट रहा है ऐसा हम कहते हैं। शिक्षा का स्तर नहीं घटता। शिक्षा देने वालों का स्तर घटता है। लेने वालों का घटता है। छात्र शिक्षा के लिए आता है कि अपने जीवन की कमाई पर दृष्टि रख कर उसके लिए आवश्यक डिग्री के लिए आता है। उसे हम घर में कैसा तैयार करते हैं।

मुझे एक सज्जन पुणे में मिले। सज्जन यानी कृतित्व सम्पन्न व्यक्ति हैं। पढ़ेगा लिखेगा नहीं इसलिये शिक्षा छोड़कर उनके पिताजी ने उसे पुणे भेज दिया सातारा से। वहां वह प्रिंटिंग प्रेस का काम करने लगे। करते-करते उनके ध्यान में आया तो उन्होंने अपनी विज्ञापन एजेंसी शुरू र्की और साथ-साथ शिक्षा भी, तो ग्रेजुएशन तक पूरी कर ली। आज उनकी स्थिति यह है कि उनकी फर्म एक अव्वल विज्ञापन फर्म है। महाराष्ट्र सरकार को भी किसी गांव का सत्य डाटा चाहिए तो उनके पास जाते हैं। प्रदीप लोखंडे उनका नाम है। उन्होंने मुझे कहा कि भागवत् जी आप लोगों में भाषण देते हैं, एक संदेश हमारा पहुंचाइये। मैंने कहा, क्या संदेश है। उन्होंने कहा हर व्यक्ति को लगता है कि अपना बेटा आर्किटेक्ट, इंजीनियर, डॉक्टर ही बने। अरे, हर लड़का ऐसा नहीं बन सकता। हरेक की अपनी क्षमता भी होती है, रुचि भी होती है। उसको जो अच्छा लगता है उसको करने को मिले और जो वह करे वह उत्कृष्ट करे। तिलक जी के लड़के ने कहा कि मुझे यह यह पढ़ने की इच्छा है तो तिलक जी ने उसको पत्र लिखा कि जीवन में क्या पढ़ना है यह तुम विचार करो। तुम अगर कहते हो कि मैं जूते सिलाने का व्यवसाय करता हूं तो मुझे चलेगा। लेकिन ध्यान रखो कि तुम्हारा सिलाया हुआ जूता इतना उत्कृष्ट होना चाहिए कि पुणे शहर का हर आदमी कहे कि जूता खरीदना है तो तिलक जी के बेटे से खरीदना है। अब जो मैं सीख रहा हूं वह मैं उत्कृष्ट करूंगा, उत्तम करूंगा। उसकी उत्कृष्टता में मेरी प्रतिष्ठा है। क्या हम यह भावना भरकर अपने घर के लड़कों को भेजते हैं स्कूल में? हम तो उनको ज्यादा कमाओ, कैसा भी कमाओ लेकिन कमाओ, यह मंत्र देकर भेजेंगे तो शिक्षा कितनी भी अच्छी होगी वे लेंगे नहीं उसको। उनके पिताजी ने कहा कि क्या कुछ दूसरा लेना है? क्या शिक्षक को यह भान है कि मैं अपने देश के बच्चों का भविष्य गढ़ रहा हूं? एक-एक व्यक्ति को मैं गढ़ रहा हूं।

अनेक महापुरुष अपने प्राथमिक विद्यालय के, माध्यमिक विद्यालय के, कॉलेज के शिक्षकों को याद करते हैं। क्यों करते हैं? उनके जीवन में शिक्षकों का कुछ योगदान है। ऐसा उनके जीवन में हमें योगदान करना है, क्या यह सोचने वाला शिक्षक है और क्या शिक्षक को अपने विषय का ठीक ध्यान है? शिक्षकों के स्तर का एक प्रश्न है, और कोर्स कंटेंट में भी यह प्रश्न है। कई बार ऐसा होता है कि हमारे उच्च शिक्षा संस्थानों से लोग डिग्री लेकर तो निकलते हैं, लेकिन रोजगारयोग्य नहीं होते हैं। डिग्रियां बहुत मिल रहीं, उच्च शिक्षा के संस्थान चल रहे हैं। लेकिन रिसर्च कम हो रहा है हमारे यहां। विषय को पढ़ाने वाले प्रोफेसर्स, शिक्षक कम हो रहे हैं।

इस दृष्टि से एक सर्वांगीण विचार करके सभी स्तरों की शिक्षा का एक अच्छा मॉडल हमें खड़ा करना पड़ेगा। इसलिए शिक्षा नीति का आमूलचूल विचार हो और आवश्यक परिवर्तन इसमें किया जाए, यह बात संघ बहुत सालों से कह रहा है। इसके लिए जो कमीशन नियुक्त किए गए हैं, उन सब कमीशनों की रिपोर्ट भी ऐसी है। अब आशा करते हैं कि नई शिक्षा नीति में इन सारी बातों का अंतर्भाव होगा। लेकिन एक और बात है अपने देश की। अधिक शिक्षा, निजी हाथों में है, सरकार के पास नहीं है। और उस निजी क्षेत्र में बहुत अच्छे-अच्छे प्रयोग भी चल रहे हैं। यहां दिल्ली में ही एक साल पहले एक सम्मेलन हुआ था- ऐसे प्रयोग करने वालों का। भारत के विभिन्न स्थानों से, अलग-अलग प्रांतों से साढ़े तीन सौ के ऊपर लोग आए थे और ‘दे हैव डन मिरेकल्स’। नीति जब आएगी, आएगी; लागू होगी तब होगी, उसकी राह देखने की आवश्यकता नहीं। शिक्षा संस्थानों में काम करने वाले लोग अपनी अधिकार मर्यादा में प्रयोग करके शिक्षा का स्तर ऊंचा उठा सकते हैं। ऐसा हुआ तो फिर सरकारी नीति भी उसका अनुकरण करेगी, ऐसी स्थितियां आ जाएंगी। इसलिए हमे सारा कुछ सरकार के सिर पर न डालते हुए हमें भी अपने-अपने क्षेत्र में इसका प्रयास करना चाहिए।

* भाषा को लेकर भी कुछ जिज्ञासाएं प्राप्त हुई हैं। नीति नियामक संस्थाओं में अंग्रेजी का प्रभुत्व दिखाई देता है। संघ का भारतीय भाषाओं और हिन्दी के प्रति क्या विचार है?

नीति नियामक संस्थाओं में अंग्रेजी के प्रभुत्व की बात तो है। आज यह सामान्य अनुभव है कि भारतीय भाषाओं में बोल सकने वाला भारत का उच्चभ्रू वर्ग, हिन्दी भी जानता है, लेकिन मिलते हैं तो अंग्रेजी में बात करते हैं। हमें अपनी मातृभाषाओं को सम्मान देना शुरू करना चाहिए। भाषा भाव की वाहक होती है, संस्कृति की वाहक होती है। इसलिए भाषाओं का रहना अनिवार्य बात है मनुष्य जाति के विकास के लिए। अपनी भाषा का पूरा ज्ञान हो, किसी भाषा से शत्रुता करने की जरूरत नहीं। अंग्रेजी हटाओ नहीं, अंग्रेजी रखो, यथास्थान रखो। अंग्रेजी का एक हौवा जो हमारे मन पर है उसको निकालना चाहिए। उसे अंतरराष्ट्रीय भाषा हमेशा कहते हैं लेकिन वास्तव में ऐसा है कि यूरोप के देशों में दो भारतीय मिलते हैं तो अंग्रेजी में बात करते हैं। जहां-जहां अंग्रेजों का प्रभुत्व रहा ऐसे देशों में अंग्रेजी का एक स्थान है।

अमेरिका भी अंग्रेजी बोलती है लेकिन वह कहती है ब्रिटिश अंग्रेजी से हमारी अंग्रेजी अलग है। स्पैलिंग तक सब अलग-अलग हैं। फ्रांस में जाएंगे फ्रेंच चलेगी। इज़राइल में आपको पढ़ने जाना है तो हिब्रू पढ़कर जाना पड़ेगा। रूस में जाना है तो रूसी सीख कर जाना पड़ेगा। चीन, जापान सब अपनी-अपनी भाषा का प्रयोग करते हैं। उन्होंने प्रयासपूर्वक इसे किया है। हमें ये प्रयास करने पड़ेंगे। जितना हम स्वभाषा में काम चलाएंगे उतना अच्छा है और सबसे समृद्ध भाषाएं हमारे पास हैं। हम ये कर सकते हैं, हम करने को हो जाएं तो ये हो जाएगा। अंग्रेजी से हमारी कोई शत्रुता नहीं है। उत्तम अंग्रेजी बोलने वाले चाहिए। दुनिया में भी अपने अंग्रेजी व्यक्तित्व की छाप बना सकते हैं ऐसे अंग्रेजी बोलने वाले लोग हमारे देश के भी होने चाहिए।

भाषा के नाते किसी भाषा से शत्रुता हम नहीं करते, लेकिन देश की उन्नति के नाते हमारी मातृभाषा में शिक्षा हो इसकी आवश्यकता है। फिर आता है कि हमारी तो अनेक भाषाएं हैं। एक भाषा हमारी क्यों नहीं है? तो किसी एक भारतीय भाषा को हम सीखे। इसका मानस हमको बनाना पड़ेगा। हिंदी की बात स्वाभाविक रूप से चली है, पुराने समय से चली है। अधिक लोग हिंदी बोलते हैं इसलिए चली है। लेकिन ये मन बनाना पड़ेगा। कानून बनाने से नहीं होगा, थोपने से नहीं होगा। आखिर एक भाषा की बात हम क्यों कर रहे हैं इसलिए कि हमको देश को जोड़ना है। एक भाषा बनाने से अगर देश में यूरोप खड़ा होता है, आपस में कटुता बढ़ती है तो हमको तो यह सोचना चाहिए कि मन हम कैसा बनाएं। मेरा अनुभव ऐसा कहता है, हिंदी ठीक है, कोई दिक्कत नहीं है। लेकिन हिंदी में काम करना पड़ता है देश के अधिकांश भागों में इसलिए अन्य प्रांतों के बहुत से लोग हिंदी सीख रहे हैं, हिन्दी सीखते हैं। हिंदी प्रांतों के लोगों का हिंदी में चल जाता है, इसलिए दूसरी भाषा नहीं सीखते। क्यों न हिन्दी बोलने वाले लोगों को भी दूसरे किसी प्रांत की एक भाषा को सीखना चाहिए। तो यह मन मिलाप जल्दी होगा, हमारी एक राष्ट्रभाषा और उसमें सारा कारोबार, यह काम जल्द ही हो जाएगा। यह करने की आवश्यकता है।

संस्कृत के विद्यालय घट रहे हैं और महत्व नहीं दिया जा रहा है, कौन नहीं देता? हम महत्व नहीं देते इसलिए सरकार भी नहीं देती। अगर हमारा आग्रह रहे कि अपनी परम्परा का सारा साहित्य लगभग संस्कृत में है तो हम संस्कृत सीखें, हमारे बच्चे सीखें। कम से कम बोलचाल कर सकें इतना सीखें। इस दिशा में लगे हैं संघ के स्वयंसेवक। संस्कृत के प्रचार-प्रसार के दो-तीन काम चलते हैं। अच्छे पल-बढ़ रहे हैं। लेकिन ये अगर हमारा मानस बने तो अपनी विरासत का अध्ययन भी ठीक से हो सकेगा और अपनी भी कोई भाषा है और वह इतनी श्रेष्ठ भाषा है कि संगणक के सर्वाधिक उपयोगी वही भाषा है, तो ये सारी बातें पता चलेंगी। ये गौरव बनता है, तो समाज में उसका चलन बढ़ेगा। चलन बढ़ेगा तो विद्यालय भी फिर से खुल जाएंगे। पढ़ाने वाले भी मिल जाएंगे। नीतियों को भी समाज का मानस प्रभावित करता है। यह काम करने की बहुत जरूरत है जो हम करते नहीं हैं और कोई अन्य करें ऐसा विचार करते हैं, तो फिर कभी ये होने वाला नहीं है।

और फिर वरीयता का प्रश्न है। यह प्रश्न गलत है। भारत की सारी भाषाएं मेरी भाषा हैं। और जहां मैं रहता हूं वहां की भाषा बोलता हूं। यह होना चाहिए। अपनी मातृभाषा पूरी आनी चाहिए। जहां मैं रहता हूं वहां की भाषा आत्मसात करनी चाहिए और पूरे भारत की एक भाषा तो हम बनाएंगे। वह श्रेष्ठ है इसलिए नहीं, वह सर्वाधिक उपयुक्त है आज के समय में इसलिए बनाएंगे। उसको भी सीखना चाहिए और फिर आपकी रुचि है। आवश्यकता है तो कोई भी विदेशी भाषा सीखिए। उसमें विदेशी लोगों से ज्यादा प्रवीण बनिए। उसमें भारत का गौरव है।

* लड़कियों व महिलाओं की सुरक्षा को लेकर संघ की क्या दृष्टि है? संघ ने इस दिशा में क्या-कुछ किया है? आखिर अपराधियों में कानून का डर क्यों नहीं है?

लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए दो-तीन बातें करनी पड़ेगीं। पुराने जमाने में जब घर के अंदर महिलाओं का बंद रहना निश्चित रहता था तब उसकी जिम्मेदारी परिवार पर रहती थी। लेकिन अब महिलाएं भी पुरूषों की बराबरी से बाहर आकर कर्तृत्व दिखा रही हैं और दिखाना चाहिए उन्हें, तो उनको अपनी सुरक्षा के लिए भी सजग और सक्षम बनाना पड़ेगा। इसलिए किशोर आयु के लड़के और लड़कियां दोनों का प्रशिक्षित करना पड़ेगा। किशोरी विकास, किशोर विकास। ये काम संघ के स्वयंसेवक कर रहे हैं क्योंकि महिला असुरक्षित कब हो जाती है, जब पुरूष उसकी ओर देखने की अपनी दृष्टि को बदलता है। इस पर बड़ी चर्चाएं चली हैं तो एक मीडिया की पत्रकार महिला बोल रही थी। मैं सुन रहा था। जब सजा हो गई थी, बलात्कारियों को कड़ी सजा हो गई थी सुप्रीम कोर्ट से। उसकी चर्चा चल रही थी। मैं बैठा था तो वह महिला कह रही थी कि केवल अपराधियों को सजा होने से काम नहीं चलता। मूल समस्या यह है महिलाओं को देखने की पुरुष की दृष्टि बदलनी पड़ेगी। और, यह दृष्टि हमारी परम्परा में है। मातृवत परदारेषु। अपनी ब्याहता पत्नी छोड़कर बाकी सब को माता के रूप में देखना। ये अपना आदर्श है। उन संस्कारों को पुरुषों में भी जगाना पड़ेगा। इसलिए किशोर और किशोरी विकास का क्रम चले और महिलाओं को आत्मसंरक्षण की कला सिखाने वाले क्रम भी बढ़ें। इसमें भी स्वयंसेवकों ने काम प्रारंभ किया है। बड़ी मात्रा में और स्कूल, कॉलेज की छात्राओं को इसका प्रशिक्षण देना और फिर प्रशिक्षण की स्पर्धाएं भी आयोजित करना- पिछले वर्ष से ये उपक्रम शुरू हुआ है। देश के सब राज्यों में ये शुरू होगा आगे चलकर। संघ के स्वयंसेवक इसको करते हैं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ केवल शाखा चलाता है, कुछ नहीं करता। लेकिन संघ के स्वयंसेवक ये करते हैं तो विद्यार्थी परिषद के द्वारा यह उपक्रम शुरू किया गया है। और उसके बड़े-बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं और यह प्रशिक्षण दिया जा रहा है। देशव्यापी ये कार्यक्रम वे चलाएंगे। अब कानून का डर अपराधियों में कम रहता है, क्योंकि कानून एक हद तक चल सकता है। समाज का भय, संस्कारों का चलन इसका परिणाम ज्यादा होता है।

कानून की यशस्विता समाज के मानस पर निर्भर करती है। लाल बत्ती है, लेकिन लाल बत्ती न तोड़ने वाला सामर्थ्य आ जाए तो लाल बत्ती का चलता है। इसलिए कानून तो कड़े से कड़े बनने चाहिए और उनका अमल ठीक से हो कर अपराधी को उचित सजा मिलनी चाहिए। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। लेकिन उसके साथ-साथ समाज भी इसकी नजर रखे। आंखों की शर्म हो लोगों में। समाज का वातावरण ऐसा हो जो अपराधों को बढ़ावा नहीं देता। यह हमारी जिम्मेदारी है। उस दृष्टि से ये संस्कार जागरण का पक्ष भी इन मामलों में उतना ही महत्व का है। हम देखते हैं कि कहीं-कहीं पांच, साढ़े पांच बजे के बाद महिलाएं बाहर जाती नहीं और कहीं-कहीं अपने देश में ऐसे इलाके हैं, ऐसे राज्य हैं जहां पर रात को भी सब अलंकार पहनकर महिला कहीं जाती है अकेली भी जाती है तो भी उसके मन में कोई भय नहीं है। ये परिणाम कानून का नहीं है, ये परिणाम वहां के वातावरण का है। उस वातावरण को हमको बनाना पड़ेगा, प्रयासपूर्वक। हम सबको उसके लिए काम करना पड़ेगा, वह करना चाहिए।

*गौरक्षा कानून लागू नहीं होते हैं। गौ तस्करों के हौसलें बहुत बढ़े हुए हैं। गौरक्षा करने वालों पर हमले होते हैं। इन सबका क्या समाधान है?

गाय का क्यों, किसी भी प्रश्न पर कानून में हाथ में लेना, हिंसा करना, तोड़-फोड़ करना ये अत्यंत अनुचित है, अपराध है। उस पर कड़ी कार्यवाही होनी चाहिए। अपराधियों को सजा होनी चाहिए। परंतु गाय यह परम्परागत श्रद्धा का विषय तो है ही। मानबिन्दु माना जाता है। गाय, मैं जानवारों का डॉक्टर हूं, मैं जानता हूं शास्त्र को। उसके हवाले से कह रहा हूं। अपने देश के छोटे किसान जो बहुसंख्या में हैं उनके अर्थायाम का आधार गाय बन सकती है, दूसरा कुछ नहीं बन सकता। अनेक ढंग से गाय उपकारी है। अब सारी बातें बाहर आ रही हैं। ई टू मिल्क की बात होती है। पहले नहीं थी, अब मालूम हो गया है विज्ञान। गौरक्षा तो होनी चाहिए। संविधान का भी मार्गदर्शक तत्व है। उसका पालन करना चाहिए। लेकिन गौरक्षा केवल कानून से नहीं होती। गौरक्षा करने वाले देश के नागरिक गाय को पहले रखें। गाय को रखेंगे नहीं और खुला छोड़ देंगे तो उपद्रव होगा। गौरक्षा के बारे में आस्था पर प्रश्न उठता है। इसलिए गौसंवर्धन का विचार होना चाहिए। गाय के जितने सारे उपयोग हैं, सामान्य रोजमर्रा के जीवन में वे कैसे आज लागू किए जाएं, कैसे तकनीकी का उपयोग करके उसको घर तक पहुंचाया जाए, इस पर बहुत लोग काम कर रहे हैं।

जो गौरक्षा की बात करते हैं, वे लींचिंग करने वालों में नहीं हैं। वे समाज की भलाई के लिए काम कर रहे हैं, सात्विक प्रवृत्ति के लोग हैं। पूरा का पूरा जैन समाज इसमें लगा हुआ है और भी अनेक लोग हैं। अच्छी गौशालाएं चलाने वाले, भक्ति से चलाने वाले, मुसलमान भी अपने देश में बहुत जगह हैं। इन सब लोगों को लींचिग के साथ कभी जोड़ना नहीं चाहिए। इनके कार्य को प्रोत्साहन मिलना चाहिए क्योंकि वे अपने देश के सामान्य व्यक्ति के हित का काम है, अपने देश की अर्थव्यवस्था में एक बड़ा आधार साबित हो सकता है। गौ तस्कर पर हमला होता है तो लींचिंग की बात उठाकर होहल्ला होता है और गौ तस्कर जब हमला करते हैं, हिंसा करते हैं उस पर आवाज नहीं उठती। यह दोगली प्रवृत्ति छोड़नी चाहिए।

इन सब का समाधान यही है कि गाय के बारे में लोगों में जागृति लाना। उसके क्या-क्या उपयोग हैं। सारी बातें आजकल कागजों में मौजूद है, वैज्ञानिकों में शोध हुआ उसके दस्तावेज उपलब्ध हैं और गौरक्षा का काम करने वाले लोग, सात्विक प्रवृत्ति से इस एक काम को बढ़ा रहे हैं, वह बढ़ेगा। जो उपद्रवी तत्व हैं, उनके साथ जोड़कर उनको देखना नहीं है इतना कर लें हम और समाज को जागृत करें तो गौरक्षा का काम होगा, देश का लाभ होगा। गाय के सानिध्य का यह प्रत्यक्ष अनुभव है, हाथों से गौ सेवा करने वाले की आपराधिक प्रवृत्ति कम हो जाती है, जेल की गौशालाओं में ये प्रयोग हो चुके हैं। देश का यह अपराध वगैरह भी कम हो जाएगा। ऐसा मुझे लगता है।

*क्या जनसंख्या से विकास प्रभावित हो रहा है? संघ इसे कैसे देखता है?

संघ का इसके बारे में प्रस्ताव है उसी का वर्णन मैं करता हूं। जनसंख्या का विचार जैसे एक बोझ के रूप में होता है। मुंह बढ़ेंगे तो खाने को तो देना ही पड़ेगा। रहने को जगह देनी पड़ेगी, पर्यावरण का उपयोग ज्यादा होगा, लेकिन जनसंख्या काम करने वाले हाथ भी देती है। अभी भारत तरुणों का देश है। 56 प्रतिशत तरुण हैं और हमको बड़ा गर्व है दुनिया में सर्वाधिक तरुण भारत में हैं। 30 साल बाद यही तरुण जब बूढ़े हो जाएंगे तब इनसे ज्यादा तरुणों की संख्या नहीं होगी नहीं तो भारत बूढ़ों का देश हो जाएगा जैसे आज चीन है। इसलिए जनसंख्या का विचार दोनों दृष्टि से करना चाहिए। तात्कालिक नहीं। एक पचास साल का प्रोजेक्शन मन में लाकर यह सोचना चाहिए कि कितने लोगों को खिलाने की हमारी क्षमता होगी, रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य यह जो गृहस्थ की आवश्यकताएं छह रहती हैं वे देने की क्षमता हमारी क्या होगी। उस समय हमारा पर्यावरण कितना भार सहन कर सकेगा। कैसे उसकी क्षमता हम बढ़ा सकते हैं। उस समय ये सारा काम करने वाले हाथ हमको कितने चाहिए और जनसंख्या की चर्चा तो हम सब करते हैं जन्म देने का काम माताओं को करना पड़ता है। वे कितनी सक्षम हैं, कितनी प्रबुद्ध हैं, भरण पोषण की व्यवस्था उसके हाथ में कितनी है यह सारा विचार करते हुए और एक महत्व की बात दूसरे प्रश्न में जो पहले प्रश्न में ही आई है डेमोग्रैफिक बैलेंस। अब हम इसे माने या न माने यह महत्व की चीज तो सब जगह मानी जाती है। इसकी बात न करने वाले भी लोग हैं लेकिन वह इसका महत्व भी समझते हैं। डेमोग्रैफिक बैलेंस भी रहना चाहिए।

इसको ध्यान में रखकर जनसंख्या के बारे में एक नीति हो। अभी जो नीति है उसमें देखा जाए कि यह सारा उसमें विचारित है कि नहीं, सुविचारित है कि नहीं। ये पचास साल की स्थिति की कल्पना हुई क्यों, और उस नीति में जो तय होता है वह सब पर समान रूप से लागू किया जाए किसी को उसमें से छुट्टी न हो। जहां समस्या है वहां पहले उपाय हों यानी जहां बच्चों को पालन करने की क्षमता नहीं है लेकिन बहुत बच्चे हो रहे हैं, परवरिश ठीक नहीं होगी तो अच्छे नागरिक नहीं बनेंगे। जहां नहीं है वहां लागू तो करना है सब पर लेकिन थोड़ा बाद में भी किया तो चलेगा। लेकिन कानून बनाकर लागू करने से लोग इसे स्वीकार करेंगे ऐसा नहीं है।

मैं स्वयं एक साल सरकारी नौकरी में था और परिवार नियोजन अभियान तब जोरों से चल रहा था। हम सब किसी भी डिपार्टमेंट के हों हमें काम करना पड़ता था। गांव-गांव में जाकर मैंने इसका प्रचार किया है और देहातियों के प्रश्न सब मैंने सुने हैं। मन बनाना पड़ेगा। सब का मन बनाना पड़ेगा। धैर्य से सोचना, ठीक से सोचना, जो तय किया है उसके बारे में मन बनाना और इसको समान रूप से सब पर लागू करना ये उसके उपकार ही होंगे, फायदे होंगे।

इसमें एक बात और ध्यान में रखना चाहिए कि जन्मदर एक बात है, अब हिन्दुओं का जन्मदर घट रहा है या बढ़ रहा है जो भी आप कहेंगे इसके लिए केवल नीति जिम्मेवार नहीं होती, सोच भी जिम्मेदार होती है। उचित सोच क्या हो, परिवार में संतान यदि कितनी है यह केवल देश का ही प्रश्न नहीं है, यह एक-एक परिवार का भी प्रश्न है। उसका संतुलित विचार कैसे करना है इसका भी प्रशिक्षण समाज को मिलना चाहिए। लेकिन दूसरी दो बाते हैं। डेमोग्राफिक असंतुलन मतांतरण के कारण भी होता है। घुसपैठ के कारण भी होता है। मतांतरण के बारे में मैं बोल चुका हूं। घुसपैठ सीधा सीधा अपने देश की संप्रभुता को चुनौती देने वाला विषय है। उसका कड़ाई से बंदोबस्त होना चाहिए।

* आरक्षण पर संघ का क्या मत है और आरक्षण कब तक जारी रहेगा?

सामाजिक विषमता को हटाकर समाज में सबके लिए अवसरों की बराबरी प्राप्त हो इसलिए सामाजिक आरक्षण का प्रावधान आरक्षण में किया है। संविधान सम्मत सभी आरक्षणों को संघ का पूरा समर्थन है। बीच-बीच में वक्तव्य होते हैं, उनमें से अर्थ निकाले जाते हैं। यह बात ध्यान में रखिए कि सामाजिक विषमता दूर के लिए संविधान में जितना आरक्षण दिया गया है उसको संघ का पूरा समर्थन है और रहेगा। आरक्षण कब तक चलेगा इसका निर्णय जिनके लिए आरक्षण दिया गया है वही करेंगे। उनको जब लगेगा कि अब आवश्यकता नहीं है इसकी तब वे देखेंगे। लेकिन तब तक इसको जारी रहना चाहिए ऐसा संघ का बहुत सुविचारित और जब से ये प्रश्न आया है तब से मत है। उसमें बदलाव नहीं हुआ है।

अब क्रीमीलेयर को क्या करना? और लोग मानते हैं कि सामाजिक आधार पर आरक्षण संविधान में है। सम्प्रदायों के आधार पर नहीं है। क्योंकि सभी समाज कभी न कभी अग्रणी वर्गों में रहे हैं अपने यहां। तो उनके आरक्षण का क्या करना? अब और भी जातियां आरक्षण मांग रही हैं उनका क्या करना? इसका विचार करने के लिए संविधान ने पीठ बनाए हैं, फोरम बनाए हैं। वे उनका विचार करें और उचित निर्णय दें।

आरक्षण समस्या नहीं है। आरक्षण की राजनीति यह समस्या है। भई अपने समाज का एक अंग पीछे है ऐतिहासिक सामाजिक कारणों से। शरीर पूरा स्वस्थ तब कहा जाता है जब उसके सब अंग आगे जाना है तो आगे जाते हैं। मैं आगे जाने को होता हूं हाथ हिलने लगते हैं लेकिन पैर पीछे रह जाते हैं तो मुझे पैरालिटिक कहा जाता है। इसलिए उसको बराबरी में लाने की आवश्यकता है। समाज मे यह बराबरी कब आएगी? तो जो ऊपर हैं वे नीचे झुकेंगे और जो नीचे हैं वे ऊपर उठेंगे, हाथ से हाथ मिलाकर गड्डे में जो गिरे हैं उनको ऊपर लाया जाएगा। समाज को आरक्षण का विचार इस मानसिकता से करना चाहिए। आज हमको मिल रहा है या नहीं मिल रहा है यह नहीं सोचना चाहिए। सब को मिलना चाहिए। सामाजिक कारणों से हजारों वर्षों से लगभग स्थिति है कि हमारे समाज का एक अंग पूर्णतः निर्बल हमने बना दिया है उसको ठीक करना आवश्यक है। हजारों वर्षों की बीमारी को ठीक करने में अगर हमको 100-150 साल नीचे झुककर रहना पड़ता है तो ये कोई महंगा सौदा बिल्कुल नहीं है। यह तो कर्तव्य है हमारा। ऐसा सोचकर इसका विचार करना चाहिए तो इन सारे प्रश्नों के हल मिलेंगे और इस प्रश्न को लेकर राजनीति नहीं करनी चाहिए। यह समाज की स्वस्थता का प्रश्न है। इसमें सबको एकमत से चलना चाहिए। ऐसा संघ को लगता है।

* हाल में आए फैसले के बाद धारा 377 और समलैंगिकता का मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ है।

समाज का प्रत्येक व्यक्ति की अपनी विशिष्टता है। वे भी अपने सम्प्रदाय के साथ समाज के एक अंग हैं। ये जो विशिष्टता है उसके साथ ऐसी कुछ बातें भी समाज में कुछ लोगों में हैं, लेकिन वे हैं तो समाज के अंग। उनकी व्यवस्था करने का काम फिर से समाज में करना चाहिए और अपनी परम्परा में अपने समाज में ये काम हुआ है। अब समय बदला है तो अलग प्रकार की व्यवस्था करनी पड़ेगी, करनी चाहिए। उसकी बड़ी चर्चा कर वही देश की प्रमुख समस्या है इतना बढ़ाकर होहल्ला करने से काम नहीं होगा। यह सहृदयता से देखने की बातें हैं। जितना उपाय हो सकता है वैसा करना, उनकी कोई न कोई व्यवस्था बने ताकि सारा समाज स्वस्थ मन से चल सके और किसी कारण ऐसी अस्वस्थता किसी के मन में है या अलगपन है तो उसके समाज से अलग-थलग पड़ जाने का और अपने जीवन में आगे न बढ़ पाने का कारण न बने। यह इस सारे समाज को देखना पड़ेगा। समय बहुत बदला है। इसलिए इसे सामाजिक स्तर पर हल करने के बारे में विचार हमको करना पड़ेगा। बाकी कानून अपनी जगह है- शब्दों के क्या-क्या अर्थ निकालकर करता है वह करता है। उसका इलाज नहीं। उसमें हम चर्चा करने जाएंगे तो बहुत सारी बातें निकलेंगी। समस्या वहीं की वहीं रहेगी। इसलिए सहृदयता से इन सब लोगों को देखते हुए और समाज स्वस्थ रहे इस तरह से उनकी व्यवस्था कैसे की जाए ताकि वे भी केवल अपने अलगपन के कारण एकाकी होकर किसी गर्त में न गिर जाए इसे देखने की आवश्यकता मुझे लगती है।

* क्या संघ में मुस्लिम समाज को शत्रु के रूप में सम्बोधित किया गया है? क्या संघ इन विचारों से सहमत हैं? संघ को लेकर मुस्लिम समाज में जो भय है वह उसे कैसे दूर करेगा?

अल्पसंख्यक इस शब्द की परिभाषा अभी स्पष्ट नहीं है अपने यहां। जहां तक रिलीजन, लैंग्वेज का सवाल है अपने देश में पहले से ही अनेक प्रकार हैं। लेकिन हमने कभी स्वतंत्रता के या अंग्रेजों के आने के पहले अल्पसंख्यक शब्द का उपयोग नहीं किया। हम सब एक समाज के थे। एक मान्यता लेकर चलते थे। हां, ये बात जरूर है कि दूरियां बढ़ी हैं। तो मैं विचार करता हूं कि अल्पसंख्यकों को जोड़ना ऐसा नहीं है। अपने यहां समाज के बंधुओं को जो बिखर गए हैं उनको जोड़ने की बात ठीक है। भाषा भी परिणाम करती है। अल्पसंख्यक हैं, आप अलग हैं हमको जुड़ना है तो जुड़ना है, जुड़ने से कल्याण होगा। तो क्या कल्याण नहीं होगा? एक दूसरे को छोड़ देंगे क्या? अरे भाई, हम एक देश की संतान हैं। भाई भाई जैसा रहें। इसलिए अल्पसंख्यक के बारे में ही संघ के रिजर्वेशन्स हैं, संघ इसको नहीं मानता। सब अपने हैं। और जुड़ गए तो जोड़ना है। इस भावना से हम बोलते हैं।

मुस्लिम समाज में इसके बारे में भय है तो कल मैंने बात की है। उस बात पर मत जाइये। आप आइये संघ को अंदर से देखिये। जहां जहां संघ की अच्छी शाखा है वहां पर यदि पास में मुसलमान बस्ती है तो मैं आपको दावे के साथ बताता हूं कि उनको यहां ज्यादा सुरक्षितता महसूस होती है। इसलिए आप देखिए कि हमारा आवाहन राष्ट्रीयता का है। जो भारत के मुसलमानों की, ईसाइयों की सब की परम्परा का है उसका है। उसके प्रति गौरव का है। मातृभूमि के प्रति गौरव का है, वही हिन्दुत्व है। बिना कारण भय बनाकर रखना, एक बार आकर देखिए। बात करके देखिए। संघ के कार्यक्रमों में आकर देखिए, क्या क्या होता है। क्या क्या बात होती है। मेरा तो अनुभव है कि जो जो आते हैं उनके विचार बदल जाते हैं। आप आइए, देखिए और हमारी कोई बात गलत है या आपके विरोध से प्रेरित है तो फिर हमसे पूछिए। यदि बात सही है, आपको पसंद नहीं आएगी तो भी हम बोलेंगे। परम्परा से राष्ट्रीयता से, मातृभूमि से, पूर्वजों से हम सब लोग हिन्दू हैं। यह हमारा कहना है और यह हम कहते रहेंगे। उस शब्द को हम क्यों नहीं छोड़ते इसे कल मैंने बताया है। लेकिन इसका मतलब हम आपको अपना नहीं मानते ऐसा नहीं है। हम आपको अपना मानने के लिए ऐसा कह रहे हैं। किस आधार पर हम आपको अपना नहीं माने? वह पंथ- सम्प्रदाय नहीं है, भाषा नहीं है, जाति नहीं है, कुछ नहीं है। मातृभूमि, संस्कृति, पूर्वज ये हैं। उन पर हम जोर देते हैं। उसको हम अपनी राष्ट्रीयता के घटक मानते हैं। इसलिए आकर देखिए। कुछ बातें जो बोली जाती हैं वे परिस्थिति विशेष, प्रसंग विशेष के सम्बन्ध में बोली जाती हैं। वे शाश्वत नहीं होती हैं। एक बात तो यह है कि गुरुजी के जो शाश्वत विचार हैं उनका एक संकलन प्रसिद्ध हुआ है। श्री गुरुजी विजन एंड मिशन। उसमें तात्कालिक संदर्भ से आने वाली सारी बातें हमने हटाकर उनके जो सदा काल के उपयुक्त विचार हैं वे रखे हैं। उसको आप पढ़िए। उसमें आपको मिलेंगे। दूसरी बात है कि संघ बंद संगठन नहीं है। समय बदलता है, संगठन की स्थिति बदलती है, हमारा सोचना भी बदलता है और बदलने की हमें डॉ. हेडगेवार से अनुमति मिलती रही है। नहीं तो डॉ. हेडगेवार पहले ही दिन बता देते कि हमको राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ चलाना है। शाखा शुरू करो। उन्होंने एक भी चीज नहीं बताई। कार्य बताए। तरुण कार्यकर्ताओं ने प्रयोग किए। जो उचित लगा, रखा; जो नहीं लगा वह नहीं रखा। और संघ ऐसे ही बढ़ते चले जा रहा है। जब आप संघ को एक बंद संगठन मानकर विचार करते हैं तब आपके मन में शंका उत्पन्न होती है। मैं कहता हूं कि आज आप संघ के कार्यकर्ता क्या क्या कर रहे हैं उसका प्रत्यक्ष अनुभव लीजिए। वे क्या सोचते हैं कैसे सोचते हैं उसका अनुभव लीजिए। आपकी सारी शंकाएं दूर हो जाएंगी।

* संघ की नीति में आंतरिक सुरक्षा क्या है और उसका समाधान क्या है?

आंतरिक सुरक्षा के लिए आंतरिक फसाद खड़ा करने वालों के प्रति समाज आकर्षित न हो इसलिए समाज में विकास की धारा सर्वत्र पहुंचाना, शासन प्रशासन अपना है, जवाबदेह है, ऐसा लगना, और इस देश में अपना जीवन चल सकता है, उन्नत हो सकता है यह विश्वास उसके मन में रहना ये काम शासन प्रशासन को भी करना होता है, समाज को भी करना होता है। क्योंकि इसमें कमियों का लाभ लेकर सुरक्षा के लिए चुनौतियां उत्पन्न करने वाले लोग सर्वत्र हैं। यहां भी हैं। उनकी न चले ऐसा करना पड़ता है। देश के संविधान, कानून को लागू करने के विरोध में खुला चलने वालों का बंदोबस्त कड़ाई से होना चाहिए। अपने समाज की स्थिति यह भी एक चुनौती आंतरिक सुरक्षा का विचार करते समय सामने आती है। शासन की कार्रवाई पर्याप्त सत्य हो, पर्याप्त सीधी हो, गोली से बात नहीं होगी तो बोली से हो सकती है। बोली इस तरफ जानी चाहिए कि भारत देश अखंड रहे। इस रवैये से सब को चलना चाहिए। इसमें जो कभी कभी आगे पीछे होता है उसके परिणाम घातक होते हैं। और इसलिए सरकार की दृढ़ नीति, समाज और सरकार का सब लोगों तक पहुंचना, सब तक विकास का पहुंचाना और अपनत्व का एक भरोसा सबमें उत्पन्न करना ये महत्वपूर्ण बाते हैं। सख्त कानून आवश्यक हैं। लेकिन कानूनों के अमल में सुरक्षा को खतरा उत्पन्न करने वालों, कानून तोड़ने वालों, देशद्रोह की भाषा करने वालों की तरफ से अपने ही समाज से उनका समर्थन करने वाले लोग खड़े न हों, यह भी आवश्यक है। समाज का मन ऐसा बने कि ऐसी बात करने वाले अलग-थलग पड़ जाए। यह भी साथ साथ होना चाहिए। ये दोनों बातें जब होती हैं तो फिर आंतरिक सुरक्षा मजबूत रहती है।

* समान नागरिक संहिता के सम्बन्ध में संघ का क्या मत है?

संविधान का मार्गदर्शक तत्व तो है और इस दृष्टि से इसको कहा जाता है कि एक देश के लोग एक कानून के अंतर्गत रहें। एक कानून के अंदर रहने का मन बने समाज का। समान नागरिक संहिता की चर्चा आती है तो उनका रूप रहता है हिंदू और मुसलमान। लेकिन केवल इतना नहीं है। सब की परम्पराओं में कुछ न कुछ परिवर्तन आएगा। हिन्दुओं की भी। फिर आज संवाद भी चलता है और मीताक्षरा भी चलता है। अपने जनजातीय बंधुओं के परम्परागत कानून भी चलते हैं। इन सब विविधता को ध्यान में रखते हुए संविधान में अनुमति है। यह सारा ध्यान में रख कर किसी एक के लिए समाज का मन बने यह प्रयास होना चाहिए और वास्तव में देश की एकात्मता को समान नागरिक संहिता की बात पुष्ट करती है लेकिन उस एकता के लिए, उसके लागू करने से समाज में और गुट तैयार नहीं होने चाहिए इसकी चिंता करते हुए धीरे-धीरे उसको लाना चाहिए, यह बात मैं भी कर रहा हूं लेकिन ऐसी ही बात अपने संविधान के मार्गदर्शक तत्वों ने संविधान में बताई है कि सरकार इस तरफ ले जाए मामले को। ले जाने की यह पद्धति है। सब का ठीक से विचार करते हुए ऐसी संहिता हो उसका विचार करना, समाज में उसके लिए मन बनाना और उसको लागू करना चाहिए।

* नोटा के प्रावधान को संघ किस तरह देखता है?

संविधान सभा में चर्चा चली तो कुछ, आज जिनको हम अल्पसंख्यक कहते हैं, उनके प्रतिनिधियों में भी यह बात चली थी कि अल्पसंख्यक शब्द निकाल दो आप। क्योंकि इसी बात को लेकर देश का विभाजन हुआ था और आगे और बंटना कोई नहीं चाहता। लेकिन मुझे लगता है कि यह बात संविधान निर्माताओं के मन में आती होगी कि जिनकी संख्या ऐसी कम है, उनको जरा विशेष अवसर दिए जाए। इसलिए ऐसा प्रावधान किया गया। लेकिन जैसा मैं कह रहा हूं कि अल्पसंख्यक शब्द बहुत संदिग्ध है तो कश्मीर में अल्पसंख्यक कौन हैं? देश में हर जगह अलग-अलग बात है। अब कानून में जो होगा, सो होगा तो ये न करें। ऐसी बातें निकालते हैं तो फिर से मनमुटाव शुरू हो जाता है। समाज में यह प्रयोग चलना चाहिए कि कोई अल्पसंख्यक बहुसंख्यक नहीं है। हम सब एक देश में एक-दूसरे के भाई-भाई हैं और अलग-अलग प्रकार रहना ये हमारी विशेषता है, उसको साथ लेकर चलें। भाई जैसे चलें। एक मार्ग में मिलकर चलें ये होना चाहिए। बहुत करना पड़ेगा उसके लिए।

अमेरिका और रूस की तरह प्रणाली की बात हम करते हैं तो भारत की प्रणाली भारत जैसे हो, अमेरिका जैसे क्यों हो? भारत के सब लोग मिलकर जो तय करते हैं वैसा हो। क्योंकि कैसी प्रशासन की पद्धति लागू करने से मैं उसका लाभ लेकर अपने जीवन को बना सकता हूं यह भारत का सामान्य व्यक्ति जानता है। उससे बात करनी चाहिए और जो कान्सेंसेस निकलता है वैसा ही चलना चाहिए। अभी तक तो ठीक ही चला है। सारी दुनिया यह कहती है कि अपेक्षा नहीं थी लेकिन सर्वाधिक यशस्वी प्रजातंत्र दुनिया का भारत है। अब जानने वाले, सोचने वाले लोग विचार करते हैं और कुछ रिफार्म्स की बात करते हैं। जरूर उस पर विचार होना चाहिए और जो स्वीकृत होता है वह करना चाहिए। इसमें हमारी भी इच्छा है, सभी की इच्छा है, हिस्सा है। उसके लिए सुझाव आए हैं बहुत प्रकार के। लेकिन पद्धति में ही बदलाव करो ऐसा सुझाव कहीं से नहीं आया है। चुनाव की पद्धति में सुधार करो, ऐसा सुधार करो वैसा सुधार करो ऐसा आया है। ये होना चाहिए और ये यूनिफार्म होना चाहिए ऐसा मुझे लगता है। इसमें एक बात नोटा की है कि खड़े हुए पांच लोग और एक भी मुझे पसंद नहीं है, ऐसा कहना अब एक बात है। प्रजातांत्रिक राजनीति में हमेशा ‘अवेलेबल बेस्ट’ को ही चुनना पड़ता है। ‘हंड्रेड पर्सेंट बेस्ट’ बहुत कठिन बात है। आकाश पुष्प जैसी बात है। मैं आज की बात नहीं कर रहा हूं यह महाभारत के समय से है। कौरव पांडवों का युद्ध हो गया तो यादवों की सभा में चर्चा चली कि किसका समर्थन करें। कुछ लोग कौरवों के पक्ष में थे और कुछ लोग पांडवों के पक्ष में थे और कौरवों के अधर्म की चर्चा चल रही थी तो लोग कह रहे थे कि पांडव कौन से धुले चावल के हैं। कोई अपनी पत्नी को दांव पर लगाता है क्या? इन्होंने बहुत गलतियां की हैं। इनको कैसे धार्मिक कहा जाए। बलराम जी ने कहा कि कैसे आप चर्चा कर रहे है और आप सब को मालूम है कि कृष्ण जो कहेगा वही करेंगे। वह तो चुप है उसको पूछो। फिर कृष्ण से पूछा गया। उसके बाद कृष्ण ने फिर भाषण दिया राज्यसभा में। उसमें यहां से शुरू किया उन्होंने कि राजनीति ऐसी चीज है कि यहां तो आपको सौ प्रतिशत अच्छे लोग मिलना बड़ी कठिन बात है। मिल जाए तो दीनदयाल जी जैसा कोई, (यह उन्होंने नहीं कहा यह मैं कह रहा हूं) तो अच्छी बात है। लेकिन इसलिए लोगों के सामने एक ही चारा रहता है कि ‘अवेलेवल बेस्ट’ को चुनो। फिर उन्होंने पाण्डवों के पक्ष में अपना मत दिया। अब जब हम नोटा करते हैं तो हम ‘अवेलेवल बेस्ट’ को भी किनारे कर देते हैं और इसका लाभ जो ‘अवेलेवल वर्स्ट’ हैं उनको ही मिलता है। इसलिए यद्यपि नोटा का प्रावधान है, फिर भी मेरा मत है कि नोटा का प्रयोग बिल्कुल नहीं करना चाहिए। ‘अवेलेबल बेस्ट’ के पक्ष में जाना चाहिए।

* यदि संघ और राजनीति का सम्बंध नहीं है तो भाजपा में संगठन मंत्री हमेशा संघ ही क्यों देता है?

संघ, संगठन मंत्री जो मांगते हैं उनको देता है। अभी तक और किसी ने मांगा नहीं है। मांगेगे तो विचार करेंगे। काम अच्छा है तो जरूर देंगे। क्योंकि किसी दल का समर्थन हमने किया नहीं है। 93 सालों में हमने एक नीति का समर्थन जरूर किया है और हमारी नीति का समर्थन करने का लाभ जैसे हमारी शक्ति बढ़ती है वैसे राजनीतिक दलों को मिलता है, जि सको इसका लाभ मिलता है जो ले जाते हैं, जो नहीं ले जाते वे रह जाते हैं। इमरजेंसी के समय हमारा इमरजेंसी को विरोध था। जो इमरजेंसी के खिलाफ लड़ा ऐसे अनेक लोग थे। हमने ऐसा विचार नहीं किया कि जनसंघ को लाभ मिले। उसमें बाबू जगजीवन राम भी थे। उसमें एस एम जोशी, ना ग गोरे भी थे। उसमें गोपालन भी मार्क्सवादी पार्टी के थे। सबको लाभ मिला है। सबके लिए काम किया है स्वयंसेवकों ने। केवल एक चुनाव ऐसा हुआ था राम मंदिर की नीति का कि हम समर्थन कर रहे थे और केवल भाजपा ही उसके पक्ष में थी। तब केवल भाजपा को ही उसका लाभ मिला। यह प्रश्न होते हुए भी जब उनका गठबंधन वगैरह था तो गठबंधन में सबको लाभ मिला।

हम नीति का समर्थन करते हैं। दलों का न किया है, न करेंगे। अब हमारे समर्थन के कारण लाभ होता है तो कैसे ले जाना है यह सोचना उनका काम है। राजनीति वे करते हैं, हम नहीं करते। संघ का इस्तेमाल आपने किया है यह बड़ा कठिन कर्म है। यह हो नहीं सकता। हमने एक ऐसी कार्यपद्धति बनाई है जिसमें जो आता है वह कैसा भी हो, जैसा हमको चाहिए वैसा बनकर निकलेगा। नहीं तो स्वार्थ वगैरह मन में है तो किनारे हट जाएगा; लेकिन संघ के कार्य में जीवन भर रहने के बाद भी एक थैंक्यू भी कोई नहीं कहता। मिलने की बात तो दूर ही रही सब देना ही देना है।

हमारे प्रांत संघचालक थे महाराष्ट्र के बाबाराव भिड़े। वे स्वयंसेवकों को बताते थे कि संघ में ‘याद्या’ बनाते हैं। (मराठी शब्द) यादी यानी सूची, लिस्ट । लेकिन ‘याद्या’ शब्द को ‘या’ और ‘द्या’ इस तरह अलग कर दो तो मतलब होता है ‘आओ और दो’। तो संघ में ‘याद्या’ का काम है, लेने-देने का काम नहीं है। ऐसा संघ है। फिर भी बहुत विशेष चतुर बुद्धि रखने वाले एकाध दूसरे निकले तो हम क्या करें! लेकिन संघ में अगर आप आओगे और ज्यादा संघ के साथ रहोगे तो यह खतरा है कि आप संघ वाले बन जाओगे यह मैं आपको बताना चाहता हूं।

राजनीति लोक कल्याण के लिए चलनी चाहिए। लोक कल्याण का माध्यम सत्ता है। उतनी ही सत्ता की राजनीति चलनी चाहिए। उससे ज्यादा नहीं चलनी चाहिए। यह अगर हो गया, जो जयप्रकाश जी की आशा थी- जो गांधीजी की आशा थी, उसके अनुसार, अपने देश के अनुसार राजनीतिक वर्ग के लोग चलने लगे तो ये पांचवां प्रश्न जो है वह आएगा ही नहीं। शमशान, कब्रिस्तान, भगवा आतंकवाद ये सारी बातें होंगी नहीं। ये सारी बातें तब होती हैं जब राजनीति केवल सत्ता के लिए चलती है। सत्ता के माध्यम से लोक कल्याण के लिए नहीं चलती है। तो उस प्रकार का प्रशिक्षण वहां होने की आवश्यकता है जो लोग राजनीति में हैं वे उसका विचार करें।

 

 

Leave a Reply