लोकसभा चुनाव पासे बदल सकते हैं

2019 के लोकसभा चुनाव की अभी जो तस्वीर उभरती है वह काफी धुंधली है। न किसी के पक्ष में लहर है न किसी के विपक्ष में। किंतु यही स्थिति 2019 के चुनाव तक रहेगी इसकी गारंटी नहीं है। 2014 में जो चुनावी मुद्दें थे, वे भी लगभग बदल चुके हैं। इसके प्रभावों के बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी ही होगी।

 

भले 2019 का आम चुनाव अभी दूर हो लेकिन माहौल ऐसा बन गया है मानो दुुंदुभि बज गई है। हमें 2019 के आम चुनाव का पूर्वावलोकन करना है तो 2014 की ओर थोड़ा लौटना होगा। अगर पांच वर्ष पहले की स्थिति में लौटें तो अनुभव होगा कि वह समय था जब पूरा देश आलोड़ित था। नरेन्द्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए फरवरी 2013 से ही जनता के बीच जाकर अपनी बात रखने का अभियान आरंभ कर दिया था। तब उनको केन्द्रीय नेतृत्व का समर्थन नहीं था। वह अभियान उनकी अपनी क्षमता तथा उनके रणनीतिकारों की योजना से हो रहा था। कुछ महीने में ही देश नरेन्द्र मोदी मय होने लगा और जून आते-आते ऐसी स्थिति बन गई कि भाजपा को उन्हें चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष घोषित करना पड़ा। यह तब हुआ जब भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी इसके लिए तैयार नहीं थे और इसकी संभावना देखते हुए वे गोवा में होने वाले राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में नहीं आए। आडवाणी निश्चय ही देश की राजनीतिक अंतर्धारा को समझ नहीं पाए थे।

नरेन्द्र मोदी तब तक देश में अलग-अलग समूहों की बहुविध आकांक्षाओंं के प्रतीक बनकर उभर चुके थे। उनके आविर्भाव के पहले देश में कई स्तरों की निराशा थी। ऐसा लग रहा था कि कोई ऐसा व्यक्तित्व नहीं है, जिसे देश का नेता माना जा सके। यानी नेताविहीनता की स्थिति का सामूहिक मनोविज्ञान था। यूपीए सरकार के कार्यकाल में बार-बार प्रस्फुटित होते भ्रष्टाचार, विश्व मीडिया द्वारा मनमोहन सिंह सरकार को दिया जा रहा लकवाग्रस्त यानी निर्णय न करने वाली सरकार की छवि, अर्थव्यस्था की सुस्ती, विश्व स्तर पर भारत की कमजोर होती छवि, कश्मीर की बिगड़ती स्थिति आदि ने देश के सामूहिक मनोविज्ञान में परिवर्तन की चाहत बलवती कर दी थी। इसमें राष्ट्रीयता के बोध को कमजोर करने की कोशिशों ने उन सब लोगों के अंदर कांग्रेस और उसके सहयोगियों के प्रति गुस्सा पैदा किया। सरकार द्वारा हिन्दू या भगवा आतंकवाद के नाम पर की जा रही कार्रवाइयों ने भी उन सब लोगों के अंदर यह भाव पैदा किया कि मतदान द्वारा इस सरकार को बदलना आवश्यक है।

ऐसे लोग जो निराश होकर 2004 में बैठ गए थे वे नरेन्द्र मोदी में आशा की किरण देखते लगे। नरेन्द्र मोदी ने भी अपने भाषणों में देश के लिए विजन प्रस्तुत करना आंरभ किया। वे जिन्दगी से जुड़े और देश से संबंधित हर पहलुओं को छू रहे थे, समस्याओं को उठाते हुए उसके समाधान का विकल्प प्रस्तुत कर रहे थे, लोगों को विश्वास दिला रहे थे कि देश में इतनी अंतःशक्ति विद्यमान है कि यह स्वयं सारी समस्याओं से मुक्त हो सकता है तथा विश्व की पहली पंक्ति में खड़ा हो सकता है।

यह कल्पना बहुत कम लोगों को थी कि भाजपा को अकेले 282 सीटें मिल जाएंगी। 1984 के आम चुनाव के बाद किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। 1991 में कांग्रेस को सबसे ज्यादा 232 सीटें मिलीं थीं। 2009 में उसे 206 सीटें मिलीं। विखंडित राजनीति का दौर चल रहा था। जो अति आत्मविश्वासी विश्लेषक थे वे भी यही मानते थे कि भाजपा को सबसे ज्यादा सीटें मिल जाएंगी लेकिन वह बहुमत से काफी दूर रहेगी। इवीएम ने ऐसे सारे पूर्व आकलनों को ध्वस्त कर दिया था। भाजपा को 17 करोड़ 16 लाख 57 हजार 549 मत मिले। यह कुल पड़े मतों का 31 प्रतिशत था। पिछले कई चुनावों में किसी पार्टी को इतना अधिक मत प्राप्त नहीं हुआ था। अगर तीन दशकों के दौर के अनुसार देखें तो भाजपा को असाधारण सफलता मिली थी।

इसके केन्द्र में कोई एक व्यक्तित्व था तो नरेन्द्र मोदी। उनकी सभाओं में आती भीड़ और बंधता समां संदेश दे रहा था कि देश करवट बदलने का निश्चय कर चुका है। कांग्रेस ने दुःस्वप्नों में भी कल्पना नहीं की होगी कि वह 44 सीटों तक सिमट जाएगी। इसके पूर्व 1999 में सोनिया गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस को तब तक सबसे कम 112 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस को 10 करोड़ 69 लाख 38 हजार 242 मत मिले जो कुल मतोंं का 19.3 प्रतिशत था। इतना कम मत प्रतिशत तो कांग्रेस को कभी मिला ही नहीं था।

सच यह है कि जहां-जहां भाजपा का जनाधार था वहां-वहां उसने सारी पार्टियोंं को धूल चटा दी। सपा, बसपा, राष्ट्रीय जनता दल, जद-यू, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, राष्ट्रीय लोकदल, हरियाणा लोकदल आदि पार्टियों के लिए 2014 एक सन्निपात बनकर आया। कई पार्टियों का लोकसभा में नामलेवा नहीं रहा। जहां भाजपा का जनाधार नहीं था वहां भी नरेन्द्र मोदी बड़े वर्ग के हीरो बनकर उभरे थे लेकिन वहां स्थिति ऐसी नहीं थी कि उनके उम्मीदवारों की विजय की संभावना बन सके। किंतु चाहे तमिलनाडु हो, उड़ीसा, केरल या आंध्र प्रदेश वहां भी मोदी की सभाओ में जनता का सैलाब उमड़ता था।

कहने का तात्पर्य यह कि 2014 का चुनाव अब तक के अनेक चुनावों से भिन्न पिच पर हुआ था। यह पूरा चुनाव धीरे-धीरे मोदी के पक्ष और विपक्ष के ईर्द-गिर्द सिमट गया था। 2019 के पूर्व की निर्मित होती स्थिति की हमें 2014 चुनाव पूर्व माहौल से तुलना करनी होगी। उस समय तक नरेन्द्र मोदी भारतीय राजनीति पर आच्छादित हो चुके थे। लेकिन भाजपा केन्द्र की सत्ता में नहीं थी। आज उनके नेतृत्व में केन्द्र की सरकार है तथा सबसे ज्यादा राज्यों में भाजपा या उसके गठजोड़ का शासन है। अब उम्मीदों की परिधि सिकुड़कर उनके पूरा होने और न होने के वृत्त में परिणत हो गई है।

अब मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में तथा भाजपा की सरकार के रूप में उनके किए गए कार्यों के आधार पर लोग मूल्यांकन करेंगे। राष्ट्रीय स्तर पर अभी भी कांग्रेस मुख्य पार्टी है। पहला मुकाबला 2014 में भी उससे था और आज भी है। किंतु 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व में सरकार थी। इसलिए ज्यादातर मुद्दोंं पर उसका रुख रक्षात्मक था। मोदी हमलावर थे और कांग्रेस के पास केवल जवाब देने का ही विकल्प था। आज वह स्थिति नहीं है। धीरे-धीरे कांग्रेस अपना खोया विश्वास पाने की कोशिश कर रही है। पहले उसकी मानसिकता यह थी कि जनता ने हमें नकारा है इसलिए हमें एक शांत और संयत विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए। धीरे-धीरे उसने अपनी रणनीति बदली तथा आक्रामकता धारण की।

कांग्रेस की रणनीति साफ है-नरेन्द्र मोदी की छवि को धक्का दो। उनकी ईमानदार और बेदाग चेहरे को कलंकित बताओ, उन्हें उनके कथन के विपरीत गरीबों का, आम आदमी का नहीं, उद्योगपतियों एवं कारोबारियों को लाभ पहुंचाने वाला साबित करो, विकास पुरुष के दावे की धज्जियां उड़ाओ, विदेश नीति में भारत को नुकसान पहुंचाने वाला सिद्ध करो आदि। दलित तथा अल्पसंख्यक विरोधी का आरोप तो भाजपा पर पहले से विरोधी लगा रहे थे उसे जितना उठा सकते हो उठाओ। और सबसे बढ़कर हिन्दुत्व के नाम पर ठगने वाला बताओ तथा मोदी और भाजपा से हिन्दुत्व का मुद्दा हड़पो। यानी जनता तक यह संदेश दो कि हमारा हिन्दुत्व असली है, जबकि भाजपा का नकली।

नरेन्द्र मोदी पर सबसे बड़ हमला राफेल लड़ाकू विमान सौदे को लेकर है। इसे कांग्रेस बोफोर्स दलाली कांड की राजनीतिक पुनरावृत्ति करना चाहती है। लगातार यह स्पष्ट होने के बावजूद कि यह दो सरकारों के बीच का सौदा है, जिसमें कोई बिचौलिया नहीं, कांग्रेस इसे सबसे बड़ा घोटाला कह कर प्रचारित कर रही है। जब बिचौलिया नहीं तो दलाली का प्रश्न कहां है। रिलायंस बनाने वाली दसॉल्ट एविएशन कंपनी ने रिलायंस डिफेंस को साझेदार बनाया। इसे इस तरह कांग्रेस प्रस्तुत कर रही है मानो सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी एचएएल की जगह रिलायंस को आगे करके यह सौदा करवाया। हालांकि दसॉल्ट ने भारत की कई कंपनियों के साथ साझेदारी की है लेकिन उनकी चर्चा हो ही नहीं रही है। इसे कांग्रेस और धीरे-धीरे पूरा विपक्ष एक बड़ा मुद्दा बना रहा है। यह चुनावी मुद्दा बन चुका है। सरकार एवं भाजपा इसका किस ढंग से काट करती है यह महत्वपूर्ण होगा।         राफेल चुनावी मुद्दा बनेगा यह कल्पना भाजपा को भी नहीं थी। सारे तटस्थ विश्लेषक इसमें भ्रष्टाचार नहीं मानते लेकिन विपक्ष अगर लगातार इसे भ्रष्ट सौदा बताएगा तो मतदाताओं के अंदर संदेह पैदा होगा। अभी यह कहना कठिन है कि 2019 के मतदान पर इसका कितना असर होगा किंतु यह बिल्कुल प्रभाव नहीं डालेगा ऐसा कहना इस समय कठिन है। कांग्रेस के अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक सभा में प्रधानमंत्री को चौकीदार नहीं चोर कह दिया। राहुल गांधी ने चौकीदार नहीं भागीदार है का शब्दयुग्म भी उछाल दिया है। उसके बाद से कांग्रेस के सारे नेता उनको चोर कह रहे हैं। इससे राजनीतिक विमर्श का स्तर निस्संदेह नीचे आ गया है। 2014 में यूपीए सरकार पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोप थे और वे विपक्ष से ज्यादा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक तथा न्यायालय के माध्यम से सामने आए थे, फिर भी प्रधानमंत्री के रुप में मनमोहन सिंह को किसी ने चोर नहीं कहा था। हां, उनको रीढ़विहीन, परिवार का दरबारी, 10् जनपथ का आदेशपाल आदि कहा था। यह भी कहा गया था कि वे ऐसे ईमानदार हैं जिनके नेतृत्व में काम करने वाले मंत्री और अधिकारी लूट करते रहे और वे देखते रहे।

वैसे भी मनमोहन सिंह के नाम पर जनता को मतदान तो करना नहीं था। इसलिए मुख्य हमला मोदी सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी पर करते थे। अब भाजपा को वोट नरेन्द्र मोदी के नाम पर मिलना है इसलिए सबके निशाने पर वही हैं। नरेन्द्र मोदी ने ‘न खाउंगा न खाने दूंगा’ का नारा दिया था। कांग्रेस एवं कुछ विपक्षी दल उस नारे का उपहास उड़ाने में लगे हैं। लंबे समय से प्रचारित किया जा रहा है कि मोदी ने अपने उद्योगपति दोस्तों को कई लाख करोड़ का कर्ज माफ कर दिया। यह सफेद झूठ है लेकिन चल रहा है। इसी तरह बैंकों की दशा यूपीए सरकार के कार्यकाल में ही खराब हो गई। मोदी सरकार में तो उस दौरान की एनपीए का सही हिंसाब आया है। किंतु कांग्रेस आरोप लगा रही है कि मोदी सरकार की गलत नीतियों की वजह से एनपीए बढ़ गया।

इसी तरह सरकार पर किसान विरोधी होने का भी आरोप लग रहा है। सच यह है कि किसानों और कृषि पर वर्तमान आर्थिक ढांचे में मोदी सरकार ने जितना फोकस किया है उतना हाल के वर्षों में किसी सरकार ने नहीं किया। किंतु लंबे समय की अनदेखी एवं गलत नीतियों के कारण आम छोटे किसानों की हालत इतनी खराब है, उनके अंदर इतना असंतोष है कि उनको जज्बात में बहाना तथा भड़काना आसान है। कृषि वैसे भी राज्यों का विषय है। केन्द्र की योजनाओं के ठीक प्रकार से नीचे पहुंचने में भी समस्याएं हैं। पिछले दो वर्षों में देश भर में किसानों के नाम पर उग्र आंदोलन हुए हैं। यह बात अलग है कि कुछ समय के हंगामों के बाद वे शांत होते भी देखे गए हैं।       इस तरह के सारे मुद्दों में विस्तार से जाना यहां संभव नहीं। कहने का तात्पर्य यह कि 2019 में विपक्ष द्वारा उठाए गए इन सारे नकारात्मक आरोपों का सामना मोदी सरकार एवं भाजपा को करना है जो 2014 में नहीं थे। ये कितना नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा के खिलाफ जाएंगे इस समय इसका पूर्ण आकलन संभव नहीं है।

भारत में चुनाव परिणाम केवल ठोस तथ्यों से ही निर्धारित नहीं होते, धारणाओं की उनमें बड़ी भूमिका होती है। कोई भी व्यक्ति जब राष्ट्रीय राजनीति के पटल पर उभरता है तो उस समय जैसा आकर्षण उसके प्रति होता है वह समय के अनुसार वैसे भी घटता जाता है। हमेशा एक ही प्रकार का आकर्षण किसी के प्रति भी कायम नहीं रहता। नरेन्द्र मोदी इसके अपवाद नहीं हो सकते हैं। 2019 में 2014 जैसी सफलता पाने के लिए मोदी के प्रति लोगों का आकर्षण चुनाव आते-आते कायम हो यह आवश्यक है। आप देश में कहीं भी चले जाइए पिछले चुनाव में मोदी के लिए निःस्वार्थ भाव से काम करने वाले लोग यह कहते हुए मिल जाएंगे कि इस बार वह मानसिकता ही पैदा नहीं हो रही। अगर यह भाव यूं ही बना रहा तो इसका असर चुनाव पर होगा।

विपक्ष 2014 के मोदी समर्थकों के इस भाव को और घनीभूत करने की रणनीति पर काम कर रहा है। नरेन्द्र मोदी के बारे मेंं यह आम धारणा थी कि वे समाज में जो पीछे रह गए हैं उनके कल्याण के लिए तो काम करेंगे लेकिन जातिवाद की राजनीति पर प्रहार कर उसे कमजोर करेंगे। ऐसी धारणा रखने वालों को, वे किसी भी जाति के हों, पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने, अन्य पिछड़ा वर्ग में अति पिछड़ा वर्ग की उपजातियां पैदा करने तथा अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलटने से निराशा हुई है। हालांकि अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण कानून पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को पलटने पर सारी पार्टियां संसद में एकमत थीं पर चूंकि सरकार ने विधेयक लाकर इसकी अगुवाई की इसलिए सवर्णों एवं कुछ पिछड़ी जातियों का गुस्सा इनके खिलाफ है। यह गुस्सा 6 सितंबर के भारत बंद तथा उसके बाद भी दिख रहा है। यह भाजपा का ठोस वोट आधार था। कोई पार्टी संसद के फैसले को पलटेगी नहीं, लेकिन इनका गुस्सा शांत नहीं हुआ तो इनका बड़ा वर्ग भाजपा के विरुद्ध मतदान कर सकता है। 2019 के चुनाव पर विचार करते समय इस कारक को बिल्कुल नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विपक्ष की पूरी कोशिश इस स्थिति का लाभ उठाने की है।

अब जरा चुनावी समीकरणों की संभावनाओं पर विचार करें। नरेन्द्र मोदी सरकार गठित होने के बाद विपक्ष को वैसे ज्यादातर राज्यों की विधानसभा चुनावों में भी पराजय मिली है जहां भाजपा का जनाधार है। कर्नाटक में भले भाजपा सरकार बनाने से वंचित हो गई लेकिन वह सबसे बड़ी पार्टी आज भी है। विपक्ष अभी भी यह मानता है कि राष्ट्रीय स्तर पर तथा अनेक राज्यों में अकेले मोदी के व्यक्तित्व को चुनौती देकर भाजपा को पराजित करना संभव नहीं है। इसलिए विपक्षी महागठबंधन की अवधारणा पैदा हुई।

भाजपा को जो 282 सीटें तथा राजग की सीटें 330 को पार कर गई उसमेंं मुख्य भूमिका उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, गुजरात, राजस्थान एवं मध्यप्रदेश की थी। राजग को 223 तथा भाजपा को 195 सीटें केवल इन्हीं राज्यों से थीं। उत्तर प्रदेश में 80 में से 71 अकेल भाजपा तथा दो सहयोगी अपना दल को, महाराष्ट्र की 48 में से 23 भाजपा एवं 18 शिवेसना को मिली थीं। इसके अलावा गुजरात की सभी 26 राजस्थान की सभी 25 तथा मध्यप्रदेश की 29 में से 27 भाजपा को मिली थीं। इन सभी राज्यों में भाजपा या राजग की सरकारें हैं। अगर और विस्तारित करें तो दिल्ली की सभी सात, हरियाणा की 10 में से 7, छत्तीसगढ़ की 11 में 10, झारखंड की 14 में 12, उत्तराखंड की सभी 5, हिमाचल की सभी 4 सीटें भाजपा के खाते गईं थीं। कहने का तात्पर्य यह कि इन राज्यों में भाजपा ने अधिकतम सीमा को छु दिया था। इससे आगे तो बढ़ नहीं सकती।

दिल्ली को छोड़कर इन सभी राज्यों में उसकी या राजग की सरकारें हैं। इसलिए 2019 में केन्द्र एवं राज्य दोनों सरकारों के कार्यों का मूल्याकन मतदाता करेंगे। ध्यान रखिए, इनमें जहां भी विधान सभा के चुनाव 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए उनमें उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड तथा एक हद तक महाराष्ट्र को छोड़कर भाजपा अपनी पुरानी सफलता नहीं दुहरा सकी। गुजरात विधान सभा चुनाव में कांग्रेस ने जबरदस्त टक्कर दी है।

अगर कुछ राज्यों में वाकई विपक्षी गठबंधन हो गया तो फिर भाजपा के लिए 2019 में 2014 दोहराना कठिन हो जाएगा। मायावती ने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश एवं राजस्थान विधान सभा चुनावों में जो रुख कांग्रेस के खिलाफ अपनाया है वह विपक्षी महागठबंधन पर प्रश्नचिह्न अवश्य खड़ा करता है। लेकिन उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा एवं रालोद का गठबंधन हो गया तो फिर एक सशक्त चुनौती भाजपा को मिलेगी। चूंकि लोकसभा में बसपा साफ हो गई तथा विधानसभा मेें भी उसे केवल 19 सीटें मिलीं, इसलिए मायावती गठबंधन करेंगी एवं कांग्रेस या तो मजबूरी में उसमें शामिल होगी या फिर उसके लिए ये कुछ सीटें छोड़ देंगे। बिहार और झारखंड मेें भी पूर्ण विपक्षी गठबंधन की संभावना है। यहां तक कि दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी एवं कांग्रेस के बीच अंदर से बातचीत चल रही है। इसका विस्तार पंजाब तक भी हो सकता है।

जाहिर है, अभी की अवस्था में इन राज्यों के चुनाव परिणाम 2014 की तरह रहेंगे ऐसी भविष्यवाणी कठिन है। वैसे भी उत्तर प्रदेश के तीनों लोकसभा उप चुनाव भाजपा हार गई है। किंतु इनमेंं कांग्रेस के लिए भी झारखंड के अलावा अकेले कहीं भी सीटों की दृष्टि से बेहतर संभावना नहीं है। तेलांगना विधान सभा चुनाव में तेलुगू देशम ने कांग्रेस के साथ गठबंधन कर लिया है। यह पहले अकल्पनीय था। अगर यह लोकसभा चुनाव में भी कायम रहा एवं आंध्र प्रदेश में विस्तारित हो गया तो एक मजबूत गठबंधन हो सकता है। आंध्र एवं तेलांगना दोनों जगहों से कांग्रेस खत्म है। उसके लिए कुछ संभावना हो सकती है। कर्नाटक में जद-से एवं कांग्रेस एक साथ लड़ सकते हैं और भाजपा को चुनौती मिलेगी। इस तरह इन सारे राज्यों के चुनाव परिणाम नए गठबंधनों से प्रभावित हो सकते हैं।

उड़ीसा में किसी तरह की गठबंधन की संभावना नहीं है, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी यद्यपि भाजपा के विरुद्ध एक उम्मीदवार की बात कर रही हैं, लेकिन वह कांग्रेस एवं वामदलों के साथ गठबंधन को तैयार नहीं हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों में भाजपा अभी भी मजबूत है तथा क्षेत्रीय दल उसके साथ हैं। इन राज्यों भाजपा बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। कांग्रेस के लिए इनमें कहीं से भी उम्मीद नहीं है। कांग्रेस के लिए गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ मेेें 2014 के मुकाबले थोड़ी बेहतर संभावनाएं अभी दिख रही हैं। हालांकि आगे क्या होगा कहना कठिन है। इन सबको एक साथ मिला दे ंतो 2019 के चुनाव परिणाम की जो तस्वीर उभरती है वह अभी काफी धुंधली है। न किसी के पक्ष में लहर है न किसी के विपक्ष में। देशव्यापी एक प्रकार का वातावरण भी नहीं है।

किंतु यही सारी स्थिति 2019 के चुनाव तक रहेगी इसकी गारंटी नहीं है। लोगों को देश के लिए नेता और सरकार चुनना है। क्या वे फिर से ऐसी स्थिति पेैदा करना चाहेंगे जिसमें गठबंधन दलों पर टिकी हुई ऐसी कमजोर सरकार बने जिसका प्रधानमंत्री जनप्रियताविहीन हो? एक तो यह कारक मतदान का निर्धारक होगा। दूसरे, हिन्दुत्व के मुद्दे पर मोदी सरकार ने खुलकर अभी तक कुछ नहीं किया है। हालांकि हिन्दुत्व के विरुद्ध भी कुछ नहीं किया है। हिन्दू आतंकवाद के नाम पर मालेगांव, समझौता विस्फोट की प्रायोजित जांच की दिशा बदल गई है। आरोपित बाहर छूटे हैं। यह विषय हिन्दुत्व समर्थकों के बीच होगा। वैसे मोदी ने विदेशों मेंं भारतीय संस्कृति और सभ्यता का जिस शानदार ढंग से चित्रण किया है वह अभूतपूर्व है। राहुल गांधी देश के मंदिरों की तथा मानसरोवर की यात्रा करके अपनी एक छवि बनाने की कोशिश कर रहे हैं। रामजन्म भूमि पर भी कांग्रेस अनुकूल बयान दे रही है। उच्चतम न्यायालय 29 अक्टूबर से प्रति दिन सुनवाई करने जा रहा है। उसने मंदिर के पक्ष में फैसला दे दिया तो देश देखेगा कि मंदिर बनाने के लिए भाजपा सक्रिय होती है या कांग्रेस या सपा या बसपा। इस समय कोई मंदिर के खिलाफ बोल ही नहीं रहा है। कम से कम नरेन्द्र मोदी की उपस्थिति ने 2019 के चुनाव पूर्व ऐसी स्थिति पैदा तो कर दी है। यदि अनुकूल फैसला नहीं आया और भाजपा ने संसद में विधेयक लाकर मंदिर बनाने की पहल की तो फिर सारे समीकरण पलट सकते हैं। इसके साथ संविधान में संशोधन कर आरक्षण के लिए आर्थिक आधार जोड़कर आर्थिक रूप से पिछडे़ सवर्ण वर्ग को आरक्षण के दायरे में लाने का कदम सरकार ने उठा दिया तो सारे समीकरणों और रणनीतियों पर ये दो कदम भारी पड़ जाएंगे। और कश्मीर मामले पर ज्यादा कठोर कार्रवाई का विकल्प भी सरकार के पास बना हुआ है। यह भी हो गया तो 2019 का परिदृश्य कैसा होगा इसकी कल्पना आप आसानी से कर सकते हैं। इसलिए कोई भविष्यवाणी करने के पूर्व थोड़ी प्रतीक्षा करिए।

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  1. प्रोफेसर श्री राम अग्रवाल झाँसी

    अति व्यापकता लिये हुये बेबाक विश्लेषण यद्यपि मोदी के अनुरूप ।

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