टूटते नैतिकता के फिजूल पैमाने

आज की भारतीय नारी नैतिकता के पुराने पैमानों के आगे जा चुकी है। परंपरा और संस्कृति के नाम पर उसके मन में गढ़े गए गलत विचारों से आज वह बाहर आ चुकी है। यह आधुनिक नारी की अस्मिता का प्रतीक है। समाज को इसे ठीक से जान लेना चाहिए।

ज के युग में फैशन अत्यंत महत्वपूर्ण विषय बन गया है। पुरुषों की बनिस्बत महिलाएं फैशन के मामले में आगे दिखाई देती हैं। पाश्चात्य देशों की तरह जीन्स पैन्ट, टॉप, शॉर्ट टॉप, स्कर्ट, ब्लाउज जैसे आकर्षक पहनावों में महिलाएं सहजता से दिखाई देती हैं। भारत में महिलाओं के वस्त्रों की परंपरा घूंघट से लेकर जीन्स तक पहुंची है। पहनावे की यह आजादी अत्यंत संघर्ष के बाद महिलाओं ने हासिल की है। फैशन से जुड़े पहनावों को लेकर महिलाओं को अविरत संघर्ष करना पड़ा है।

सिर्फ भारत में ही नहीं तो यूरोप, अमेरिका के इतिहास पर गौर करें, तो दिखाई देगा कि दुनिया भर की महिलाओं को कोई भी अधिकार जन्म से अथवा सहजता से नहीं मिला है- चाहे वह मतदान का अधिकार हो, अपनी पसंद का अधिकार हो, अर्थार्जन का अधिकार हो, या अपनी इच्छा के अनुसार पेहराव पहनने का अधिकार हो। सभी बातों की आजादी उन्हें संघर्ष करने के बाद ही मिली है। भारत से लेकर यूरोप या अमेरिका तक सभी जगह महिलाएं अपनी आजादी की लड़ाई लड़ी हैं।

आजकल फैशन का सभी जगह बोलबाला है। न केवल युवतियां बल्कि विवाहित महिलाएं भी उत्साह एवं शौक से इसे अपनाती है। बड़े शहरों के साथ देश के छोटे-छोटे शहरों और कस्बों में भी लड़कियां और महिलाएं परिधानों व अलंकारों को लेकर कई पुरानी बंदिशों को तोड़ रही हैं। इसकी क्या वजह है? क्या यह महिलाओं की आजादी की अभिव्यक्ति है, या समय के इस मोड़ पर हो रहा यह एक विस्फोट है?

स्त्री जाति पर पुरुष-प्रधान समाज ने जो विचार थोपे हैं, उससे महिलाओं के मन में घर कर बैठी एक प्रकार की नैतिकता अब ध्वस्त हो रही है। पुरुष प्रधान संस्कृति ने भारत में स्त्री चरित्र के बारे में ऐसी कल्पनाएं गढ़ी थीं, जिसने स्त्रियों को घर की चौखट के अंदर बांध रखा था। स्त्री को सिर से लेकर नाखूनों तक ढंक कर रखा था। स्त्री वही आदर्श मानी जाती थी जो घर की चारदीवारी में ही रहे। लज्जा, शालीनता, त्याग, समर्पण के थोपे गए गुणों के अनुसार भारतीय स्त्री अपना व्यक्तित्व ढालने लगी थी। वह भूल गई थी कि उसकी अपनी भी इच्छा है। सजना, संवरना, खुद को अलंकृत करना, आभूषण पहनना यह सब स्त्रियों की मूल प्रवृत्ति के ही अंग हैं। लेकिन, उनके मन की इच्छाएं दबी की दबी रह गईं।

आज महिलाएं बदल रही हैं। आधुनिकता के इस युग में पूरी दुनिया के साथ भारत में भी इस बदलाव की रफ्तार तेज हो गई है।   दुनिया, समाज और व्यक्ति के संदर्भ में जो वैश्विक परिवर्तन हो रहा है, उस परिवर्तन को महिलाएं भी समझ रही हैं, महसूस कर रही हैं। यह बदलाव सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं है। शिक्षा से महिलाओं को जो दृष्टि प्राप्त हुई है, उस दृष्टि को समाज में प्रस्तुत करने का साहस भी महिलाएं जुटा रही हैं। पढ़ने, लिखने के साथ अपना प्रोफेशन चुनने की आजादी भी महिलाएं निभाने लगी हैं। वे डिफेंस सर्विस से लेकर आधुनिक कहे जाने वाले तमाम क्षेत्रों में अपना अधिक से अधिक योगदान दे रही है। आज के समय में तमाम महिलाओं के मन में सवाल निर्माण होता है कि महिलाओं के वस्त्रों को ही ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ क्यों लागू है? परिवार से लेकर धार्मिक गुरुओं तक सभी महिलाओं को पहनावों को लेकर बांध कर क्यों रखना चाहते हैं?

आज महिलाओं में आधुनिकता का मतलब उनकी डिग्री और नौकरी नहीं है। वे इसके साथ-साथ फैशन, खुद का प्रेजेंटेशन, मेकअप का भी तालमेल चाहती हैं। अब महिलाएं नौकरी करती हैं। शादी, कुशल गृहिणी, अच्छी मां और समर्पित सहचर होने के साथ अपने आपको सही ढंग से सजाना भी चाहती हैं। अपनी इच्छा से वह हर ऐसे क्षेत्रों में काम करना चाहती है, जिस पर कल तक उस पर पाबंदी थी। अपने स्वयं के बारे में वह सोचने लगी है। यह परिवर्तन है। उसकी सब से बड़ी वजहें दो हैं- एक शिक्षा और दूसरी उनकी नौकरी। भारत के औद्योगिक क्षेत्र में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान है।

दुनिया के बाजारों में तेजी से बढ़ रही आर्थिक रफ्तार का सब से बड़ा कारण यह है कि अब महिलाएं जॉब अथवा बिजनेस में क्षेत्र में अधिक संख्या में आ रही हैं। कहीं-कहीं संख्या के मामले में कामकाजी महिलाएं पुरुषों को पीछे छोड़ रही हैं। पहले पुरुषों की तुलना में स्त्रियों के वेतन में बहुत बड़ा अंतर होता था। अब वह अंतर कम होता जा रहा है। मैनेजमेंट में उच्च पदों पर महिलाओं की संख्या पहले के मुक़ाबले अब उल्लेखनीय स्तर तक पहुंच गई है। सर्वे के मुताबिक दुनिया भर में उपभोक्ता सामानों पर खर्च में 65% हिस्सा महिलाओं का है। यह बाजार में महिलाओं के बढ़ते दबदबे को रेखांकित  करता है।

भारत के साथ दुनिया भर में महिलाओं की क्रय शक्ति तेजी से बढ़ रही है। बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करने वाली एक महिला ने कहा कि यह सोच बिल्कुल गलत है कि महिलाएं सिर्फ ग्लैमर, फैशनेबल जिन्सों से जुड़ी खरीदारी ही करती हैं। सच यह है कि, ये चीजें महिलाओं के विश्वास को और बढ़ावा देती हैं। अगर कोई चीज आपकी प्रस्तुति को और बेहतर बनाती है तो उनका इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाना चाहिए?

एक स्कूल प्रिंसिपल कहती हैं, हम महिलाएं अपनी फैशन पर जम कर खर्च करती हैं। पर हमारी प्राथमिकता बचत की भी होती है। फैशन महिलाओं को न केवल उनकी पारंपारिक छवि को एक नई पहचान देती है, बल्कि उनको आत्मनिर्भर भी बनाती है, मानसिकता के तौर पर मजबूत भी बनाती है। आज महिलाओं के वेतन पैकेज चौंकाने वाले हैं। वे अपनी तनख्वाह के हिसाब से खर्च कर रही हैं। उन महिलाओं की तस्वीर पेश करती है, जो शिक्षा और मेहनत से बेहतरीन जगह पर नौकरी कर रही हैं। इन महिलाओं की क्रय शक्ति संपूर्ण दुनिया की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रही है। इसे देखते हुए यकीन ही नहीं होता कि हमारे देश में किसी समय महिलाओं को अनेक बंधनों में रखा गया था या उन्हें आर्थिक मामलों में कोई स्वतंत्रता नहीं थी।

दुनिया भर में शायद ही ऐसी कोई जगह हो जहां पर महिलाओं को लेकर समाज ने मापदंड तय न किए हो। भारत से लेकर अमेरिका तक ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं कि, महिलाओं ने संघर्ष के बाद ही मनपसंद परिधानों का, खुद को अलंकृत करने का, आत्मविश्वास के साथ खुद को प्रस्तुत करने का अधिकार पाया है। पूरा विश्व महिलाओं के परिधानों  को लेकर अनेक बंदिशों में बंटा हुआ नजर आता है। ऐसी प्रथाएं हैं जहां सिर के घूंघट से लेकर पांव की बिछिया तक पाबंदियां ही पाबंदियां हैं। एक ओर स्त्रियों की काया का हर कोना नापने वाले और दूसरी ओर महिलाओं की सिर्फ आंखें ही दिखाई दे इस तरह के परिधानों की पाबंदियां महिलाओं पर पुरुषों के दबाव-तंत्र को इंगित करता है। महिलाओं और पुरुषों में यह संघर्ष निरंतर चल रहा है।

1850 के दौर में अमेरिका और यूरोप में महिलाओं को कंधों से लेकर पांव तक ढंकने वाला गाउन या घाघरा जैसा पहनावा करना पड़ता था। हवा से वह वस्त्र उड़े ना और महिलाओं का शरीर का कोई हिस्सा दिखाई ना दे इसलिए उसे वजनी कपड़े से बनाया जाता था। इस भारी भरकम पहनावे के साथ महिलाओं को घर के सभी कामकाज करने पड़ते थे। तब पंखें या ए.सी. नहीं थे। ऐसे में आप कल्पना कर सकते हैं कि इन वस्त्रों का कितना बुरा असर महिलाओं के मन और स्वास्थ्य पर  होता होगा।

एलिजाबेथ स्मिथ मिलर नामक महिला ने सर्वप्रथम पहनावे की प्रथा के विरुद्ध आंदोलन किया। वह किसी काम की वजह से स्विट्जरलैंड गई थीं। वहां की महिलाओं को अत्यंत सुविधाजनक कपड़ों में अपना दैनिक कार्य करते हुए उन्होंने देखा। यह पहनावा घर में और घर के बाहर भी महिलाओं के लिए आरामदायक था। पहनावा घुटने तक का गाउन और पायजामा जैसा था। इससे एलिजाबेथ प्रभावित हुई और उसने इस बारे में जानकारी हासिल की जैसे इसे किस तरह बनवाया जाता है, किस तरह का कपड़ा उपयोग में लाया जाता है, वह कैसे पहना जाता है आदि।

एलिजाबेथ ने अपने मुल्क में लौटने पर इस संदर्भ में महिलाओं को जागृत करना शुरू किया, जगह-जगह व्याख्यान देना प्रारंभ किया।  इस पहनावे को पहन कर ही वह अपना विषय रखने के लिए खड़ी होती थी। यह एक तरह से उस परिधान की नुमाईश ही थी। इसे पहनकर पाश्चात्य महिलाएं भी आराम महसूस करने लगीं। उन्होंने अपने संपूर्ण अंग को ढंकने वाला भारी-भरकम पहनावा छोड़ कर, घुटने तक आने वाला फ्राक और पायजामा पहनना शुरू किया।  यह परिवर्तन आनन-फानन में नहीं हुआ। ‘समाज क्या कहेगा?’ इस पर यूरोप की पारंपारिक महिलाएं गहराई से सोच रही थीं, क्योंकि ब्लूमर पहनने वाली महिलाओं को परिवार, रिश्तेदार, पड़ोसियों से बहिष्कृत किया जाता था। ब्लूमर पहनने वाली महिलाओं पर पानी फेंका जाता था। उन पर अंडे फैंके जाते थे। ब्लूमर पहनने वाली मैडम सिगरेट पी रही है, और उसका पति खाना बना रहा है, इस प्रकार के व्यंग्यचित्र उस समय के अखबारों में प्रकाशित होते थे। एक वाक्य में ही कहना हो तो, ब्लूमर पहनने वाली को बदतमीज महिला माना जाता था। उसे पत्रकारों से लेकर धर्मगुरुओं तक सभी का विरोध था। यह पहनावा पहनना यानी परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने जैसा है, इस तरह का प्रचार चर्च से धर्मगुरूओं से होता था। यूरोप, अमेरिका जैसे प्रगतिशील पाश्चात्य देशों में यह स्थिति थी। पोशाक तो एक निमित्त था। पर स्त्रियों को पुरुषों के बराबर आने का कोई भी मौका देना नहीं चाहिए, स्त्रियों को पुरुषों की मर्यादा से दूर ही रखना चाहिए यह पुरुष प्रधान भावना इसका प्रमुख कारण है।

परतु, वहां की महिलाओं ने इसका पुरजोर विरोध कर पुरुषों, धर्मगुरुओं, मीडिया सब की धज्जियां उड़ाईं। भाषण में, सभाओं में, अखबारी लेखन में हर जगह स्त्रियों ने जबरदस्त अभियान छेड़ा। आखिरकार ब्लूमर के रूप में स्त्रियों को पहनावे की आजादी मिलने लगी। आगे चलकर यह आंदोलन ‘ब्लूमरीजन’ नाम से पूरी दुनिया में जाना गया और दोहराया गया। वजनी घाघरा जैसे पारंपरिक वस्त्रों से छुटकारा पाकर स्त्री अपने लिए सुविधाजनक और विभिन्न तरह के पहनावे का उपयोग करने लगी। इसलिए एलिजाबेथ स्मिथ मिलर,  एलिजाबेथ केडिस्टेंन, सुजान एंथोनी और अमेलिया ब्लूमर के पहनावे की आजादी के आंदोलन से आज की महिलाओं को अवश्य प्रेरणा लेनी चाहिए। लेकिन, सुविधाजनक पहनावे और शरीर को प्रदर्शित करने वाले पहनावे के अंतर को समझना चाहिए और अपनी प्रतिष्ठा की राह चलनी चाहिए।

अमेरिका और यूरोप में उन्मुक्तता की सीमा रेखा अवश्य थी। ब्लूमर वाली बात पुरानी है, पर आज के युग में भी अमेरिका के सीनेट के सदन से एक महिला पत्रकार को सिर्फ इसलिए बेदखल कर दिया गया, क्योंकि उसने स्लीवलेस कपड़े पहने थे। इस घटना को लेकर वहां ड्रेस कोड का विवाद बड़ी जोर-शोर से खड़ा हो गया। उस महिला ने अमेरिकी सीनेट से कहा कि, मैं आज यहां से जा रही हूं; पर स्लीवलेस पहनावे को लेकर आप मेरे प्रोफेशन को जलील कर रहे हैं। यह बात महिलाओं का सम्मान करने वाली नहीं है। उसने इस विषय को लेकर आंदोलन खड़ा किया।आंदोलन में महिला सांसदों के साथ  अमेरिकी महिलाओं ने भी इसमें अपनी पूरी क्षमताओं के साथ सहयोग दिया। स्लीवलेस पहनावे को पहन कर ही जगह-जगह पर महिलाओं ने प्रदर्शन किए। इस घटना से समाज की कुंठित मानसिकता दिखाई देती है। इसके खिलाफ सभी जगह पर महिलाएं पूरी ताकत के साथ खडी दिखाई देती हैं।

फ्रांस में औरतें अपने शरीर को ढंकने वाली स्विमिंग ड्रेस बुर्कानी पहनने के अधिकार के लिए संघर्ष कर रही हैं, तो ईरान में जबरदस्ती हिजाब पहनाने के विरुद्ध ‘मेरी पक्की आजादी’ नामक अभियान  चल रहा है। युगांडा में सरकारी महिला कर्मचारियों को स्कर्ट जैसे कपड़े न पहनने का निर्देश है। इस पर वहां की महिलाएं सरकार के इस निर्देश के विरोध में रास्ते पर उतर कर आंदोलन कर रही हैं। भारत में कई प्रांतों में साड़ी को लेकर कभी बड़ी धमाचौकड़ी मची थी। इसकी चर्चाएं उस समय के अखबारों में पढ़ने को मिलती है। महाराष्ट्र में नौ गजी साड़ी पारंपरिक साड़ी मानी जाती थी। समाज उसे पहनने को परंपराओं का पालन करना मानता था। नौ गजी साड़ी को पहनना यानी शालीनता और कुलीनता का प्रमाण माना जाता था। नौ गजी साड़ी की जगह पांच गजी साड़ी आ गई और उस साड़ी का स्वीकार महिलाओं ने किया तब समाज में घमासान मच गया। पर महिलाओं ने उनके लिए सुविधाजनक पांच गजी साड़ी को ही स्वीकार किया। ऐसा करते वक्त नौ गजी साड़ी को उत्सव एवं समारोह में सम्मान का स्थान भी दे दिया है।

अब साड़ी की जगह देसी विकल्प के रूप में सलवार कमीज यानी पंजाबी ड्रेस को स्वीकार किया जा रहा है। वर्तमान में सलवार कमीज को राष्ट्रीय पोशाक के रूप में पूरे भारतवर्ष में महसूस किया जा रहा है। साथ में लेगिंग्ज और टॉप, पैंट और टॉप को स्त्रियों ने अत्यंत सहज भाव से स्वीकार किया है। आधुनिक युग में भारतीय स्त्रियों ने अपने  पोशाक में परिवर्तन किया है। 1850  से लेकर 1900 तक के कालखंड में यूरोप और अमेरिका में महिलाओं को अपनी पोशाक में बदलावों को लेकर जितना संघर्ष करना पड़ा, उसके मुकाबले भारत में पोशाक का परिवर्तन अत्यंत सहजता से हुआ ऐसा लगता है। इसका कारण यह होगा 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में ही यूरोप और अमेरिका में परिवर्तन की लहर तेजी से निर्माण हुई थी। उस लहर ने भारत में पोशाक परिवर्तन को आसान बनाया।

शालीनतापूर्ण पहनावा दुनिया भर में यक्ष प्रश्न बना हुआ है। महिलाओं के मन में एक प्रश्न है, क्या वही कपड़े शालीन माने जाएंगे जिसे समाज के ठेकेदार स्वीकृती देंगे? आज की महिला सक्षम है कि वे अपनी शालीनता की परिभाषा खुद तय करें। ताकत के बल पर महिलाओं की पोशाक की स्वतंत्रता को दबाना महिलाओं की क्षमताओं का मजाक उड़ाने जैसा है। पुरुष-सत्ताक समाज की ऐसी विचारधारा का महिलाओं पर लंबे समय तक वर्चस्व कायम नहीं रह पाएगा। सवाल कपड़ों का नहीं है, फैशन का नहीं है, महिलाओं के अलंकृत होने का नहीं है। सवाल यह है, समाज ऊपरी तौर पर बदला है पर स्त्री के प्रति समाज का रवैया अब तक पूरी तरह से नहीं बदला है।

आज यौन अपराधों की संख्या बढ़ रही है। यदि शालीनता के कपड़े पहने जाए तो क्या ऐसे अपराधों में कमी आएगी? कुछ महिलाएं आधुनिकता और फैशन के नाम पर उत्त्तेजक पोशाक पहनना उचित मानती हैं। कोई सभ्य समाज इसकी अनुमति नहीं देता। समाज में आप एक नजर दौड़ाएंगे तो आपको महसूस होगा कि इस प्रकार की 1% प्रतिशत महिलाएं भी नहीं हैं। 99 प्रतिशत महिलाएं अपनी मर्यादाओं में फैशन के नए-नए ट्रेंड को अपना रही हैं ।अपना विश्वास प्रस्तुत कर रही है। अब महिला किसी की मान्यताओं के ऊपर और रुठने या खुश होने पर निर्भर होकर जीने को आज की महिला झूठी जिंदगी मानती है।

आधुनिकता के नाम पर आज की स्त्री अनैतिकता की ओर जा ही है, इस प्रकार के गलत विचार प्रस्तुत किए जाते हैं। पर आज की नारी नैतिकता के पुराने पैमानों के आगे जा चुकी है। परंपरा और संस्कृति के नाम पर उसके मन में गढ़े गए गलत विचारों से आज वह बाहर आ चुकी है। यह आधुनिक नारी की अस्मिता का प्रतीक है। उसे समाज को ठीक से इसे जान लेना चाहिए।

 

 

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