पथ का चुनाव

आज फिर किसी विधुर का प्रस्ताव आया है। जवान बच्चों की माँ बनने के ख्याल से ही मन सिहर उठा। इस रिश्ते को ना कह कर अपने धनहीन दुर्बल पिता को संताप दूँ, या बन जा हमउम्र बच्चों की माँ्। सुना है तहसीलदार है। शायद पिता की वे मदद भी करें उनकी दुसरी बेटियों के निर्वाह मे्ं। आज कॉलेज में भी मन नहीं लगा था। घर की तरफ जाते हुए पैरों में कम्पन महसूस की थी उसने।

घंटे की टनकार, मंदिर से उठता हवन का धुँआ, कदम वहीं को मुड़ गये।  250 सीढ़ियाँ, ऐसे चढ़ गई जैसे सारी साँसें आज इन्हीं को सुपुर्द करनी है। पहाड़ पर  मंदिर के, चारों ओर खाई्। बिलकुल किनारे मुंडेर पर जाकर खड़ी हो गई्। क्या करें, नीचे खाई में कूद जाये, या वापस घर जाकर तहसीलदार के बच्चों की माँ बने, या अपनी बी. ए. की पढ़ाई पूरी कर कोई ट्यूशन, या नौकरी।

हथेलियों में पसीना भर आया और आँखों में आँसू। उसने महसूस किया कि वह किसी भी हाल में जिंदा रहना चाहती है। वह मरना नहीं चाहती।

मंदिर की घंटी अब शांत हो चुकी थी। चढ़ाई से दुगुना जोश उसका अब सीढ़ियों से उतरने में था। साँसें काबू में थी।

‘पापा, मै तब तक शादी नहीं करूँगी जब तक कोई नौकरी ना मिले मुझे।‘ आस्तित्व के प्रति धर्माचरण का पालन करते हुए, अब दृढ़ता से अपने पथ का चुनाव कर चुकी थी।

 

कान्ता रॉय

भोपाल्।

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