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वन्य जीवों को भी जीने का अधिकार

वन्य जीवों को भी जीने का अधिकार

by अमोल पेडणेकर
in वन्य जीवन पर्यावरण विशेषांक 2019, विशेष, संपादकीय
1

वन्य जीवों के बारे में उत्तराखंड न्यायालय ने एक बड़ा अनूठा और अहम फैसला दिया है। न्यायालय ने इन प्राणियों को व्यक्ति का दर्जा देकर मनुष्य को उनका अभिभावक घोषित किया है। न्यायालय का आशय यह है कि मानव अपने स्वार्थ के लिए पशुओं के साथ ज्यादति न करें।  आधुनिकता की अंधी दौड़ और मानव के बढ़ते कदमों ने विकास के नाम पर जंगल काट डाले, नदियों के पात्र सुखा दिए, पहाड़ों को ज़मींदोज़ कर दिया, अनेक वनस्पतियों, जीव-जंतुओं हमेशा के लिए खत्म कर दिया।

भारत के विभिन्न शहरों में, गावों में अथवा अलग-अलग जगहों पर तेंदुए, बाघ, हाथी जैसे प्राणी और मानव के बीच टकराव के प्रसंग हमेशा दिखाई देते हैं। भोजन की तलाश में जंगल की सीमा लांघ कर शहर की ओर रुख करने वाले तेंदुओं या अन्य प्राणियों को पीट-पीट कर अथवा गोली मार कर मार डालने की खबरें हम अक्सर पढ़ते रहते हैं। इन घटनाओं से पता चलता है कि मानव और प्राणियों के बीच का संघर्ष बदतर स्थिति में पहुंच चुका है। वन्य प्राणियों पर बार-बार होने वाले खूनी हमलों से यह पता चलता है कि जानवरों से होने वाले खतरों से मनुष्य अब अधिक सतर्क होने लगा है। लेकिन, सच तो यह है कि मनुष्य खुद ही इस समस्या की जड़ है। जंगलों को नष्ट कर पर्यावरण के विनाश को हमने जो निमंत्रण दिया है, उसीसे यह समस्या निर्माण हुई है। समस्या की इस असली वजह को मानव नजरअंदाज कर रहा है। विकास के नाम पर जंगल की सीमा में मनुष्य ने जैसे-जैसे घुसपैठ करना प्रारंभ किया है वैसे-वैसे वन्य प्राणियों के शिकार के क्षेत्र में बदलाव आता गया है। प्राणियों को भी जीने के लिए परिस्थिति से तालमेल बिठाना होता है। इसी कारण भोजन की तलाश में ये प्राणी आदमी की बस्तियों की तरफ आ जाते हैं।

बाघों की संख्या बढ़ाने में हम सफल रहे इस बात पर हम खुशियां मनाते हैं। कुछ करोड़ पेड़ लगाकर वनीकरण करने का दावा हम सरकारी एवं सामाजिक स्तर पर करते हैं। लेकिन, मानव जाति की ओर से दिन-ब-दिन वन्य प्राणियों की हत्या की जा रही है। विकास के नाम पर जंगलों को नष्ट किया जा रहा है। ऐसी स्थिति में जब हम किसी वन्य जीव की हत्या करते हैं तब मनुष्य का वन और वन्य जीवों के कल्याण का दावा खोखला, ढकोसला साबित होता है।

वन, वन संपदा और वन्य जीवों के बिना मानव जीवन सुनिश्चित और निरंतर नहीं हो सकता। इस बात को हमारे समाज के विविध क्षेत्रों के महामानवों ने बार-बार दोहराया है। फिर भी जाने- अनजाने में विकास की घुड़दौड़ में हम इस बात को नजरअंदाज करते आए हैं।  यह बात तो हमारी भारतीय परंपरा में सदियों से समाहित है। जो बात हमारी भारतीय संस्कृति में है, इससे आगे बढ़कर जो बात हमारी मानव जाति के हित में है, आज उसे ही भूल कर हम अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का काम कर रहे हैं।

वन और वन्य प्राणियों की सुरक्षा, उनका संवर्धन जैसी बातों का अपने सामाजिक जीवन में उत्तरदायित्व की तरह जब हम निर्वहन करने का प्रयास करेंगे, तभी सही मायने में मानव अपने उत्कर्ष की ओर अग्रसर होता दिखाई देगा। भारतीयों ने हजारों वर्षों से वनों का उपयोग अपनी जीवन शैली के अनुकूल किया है। उसमें आदिवासियों का बहुत बड़ा योगदान है। पर जब गांव का शहरीकरण होने लगा, तब एक झटके में हजारों पेड़ काटे जाने लगे। चिपको आंदोलन के दौरान 200 या 300 पेड़ काटने पर भी, उस कटाई को रोकने के लिए आंदोलन किया जाता था। इस पर चर्चा होती थी। पर अब किसी परियोजना के लिए हजारों पेड़ काटे जाते हैं, तब भी  मानव जाति के संहार का कारण बनने वाली ऐसी बातों की खबर तक किसी को नहीं होती। इस विषय पर कोई राष्ट्रीय नीति न होने के कारण प्रत्येक राज्य अपने-अपने ढंग से इस विषय को निपटाने का प्रयास करता है।

आज जरूरत इस बात की है कि विकास के सही अर्थ को हम समझें। वसुंधरा को हम जब एक परिवार मानते हैं तो उस परिवार में केवल मनुष्य ही शामिल नहीं है। बल्कि पशु पक्षी जगत, वन-वनस्पति को भी शामिल किया गया है। एक परिवार के सदस्य होने के नाते सभी के जीवन जीने के समान अधिकार का सम्मान हमें करना चाहिए। मानव जाति को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने जीवन की सुविधा के लिए पर्यावरण से जुड़े विभिन्न अंगों के जीने का अधिकार ही छीन लें। जानवरों के, वनों के जीने के अधिकार ने इंसान के जीने के अधिकार को कभी सीधे चुनौती नहीं दी है। जानवरों को आज जंगल क्षेत्र से बाहर आकर अपना भोजन खोजना पड़ता है तो मानना चाहिए कि ये वन्य पशु मानो मानव जाति की ओर से हो रहे अपने शोषण का एक तरह से निषेध ही कर रहे हैं। जब प्राकृतिक बाढ़, सूखा, पानी की समस्या जैसी विभिन्न आपदाएं आती हैं तब भी प्रकृति मानव द्वारा जंगलों के संहार जैसे अपने शोषण का निषेध ही करती होती है।

मानव जाति के उज्ज्वल भविष्य के लिए हमें विकास की ओर निरंतर बढना है। हमें स्मार्ट सिटी निर्माण करने हैं। हमें रेल मार्गों,  सड़कों का निर्माण करना है। हमारे जीवन को सुलभ बनाने के लिए विकास से जुड़ी सभी बातों का उपयोग हमें करना है। यह बात करते हुए हमें एक बात ध्यान में रखनी चाहिए कि हमारा जीवन सुलभ बनाते समय प्राणी जगत और वन संपदा के सहअस्तित्व का अधिकार हमें ध्यान में रखना चाहिए। ‘स्वस्थ विकास’ यह हमारी संकल्पना है। मानव के साथ प्रकृति से जुड़े वन्य प्राणियों और वनों के सह-जीवन की सोच जब आ जाएगी तभी सही मायने में वह स्वस्थ विकास कहा जाएगा। अन्यथा, बाघों की संख्या बढ़ाने, करोड़ों पौधें लगाने का दावा करना, सोशल मीडिया पर ऐसे झूठे दावों को फॉरवर्ड करने वाली सरकारी या सामाजिक व्यवस्था और हम सब झूठे करार दिए जाएंगे। पर्यावरण के प्रति हमारे गलत नजरिये के कारण हम ढोल  पीटते हैं और घड़ियाली आंसू बहा देते हैं। यह रवैया क्या कभी बदलेगा?

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अमोल पेडणेकर

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