हिंदी विवेक
  • Login
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
No Result
View All Result
हिंदी विवेक
No Result
View All Result
वेदों में पर्यावरण चिंतन

वेदों में पर्यावरण चिंतन

by प्रो. श्रीराम अग्रवाल
in पर्यावरण, वन्य जीवन पर्यावरण विशेषांक 2019, विशेष
1

वैदिक ॠषि कहते हैं है कि हम पृथ्वी वासी पर्यावरण को दूषित न करें, छिन्न न करें अन्यथा हमें उनसे दूषित अवगुण ही प्राप्त होंगे। यह एक ऐसा सत्य है जिसकी वर्तमान में अवहेलना कर हम पर्यावरण संतुलन को समाप्त करते जा रहे हैं।

पर्यावरण का सीधा- सरल अर्थ है प्रकृति का आवरण। कहा गया है कि ‘परित: आवृणोति’।  प्राणी जगत को चारों ओर से ढकने वाला प्रकृति तत्व, जिनका हम प्रत्यक्षत: एवं अप्रत्यक्षत:, जाने या अनजाने उपभोग करते हैं तथा जिनसे हमारी भौतिक, आत्मिक एवं मानसिक चेतना प्रवाहित एवं प्रभावित होती है, वही पर्यावरण है। यह पर्यावरण भौतिक, जैविक एवं सांस्कृतिक तीन प्रकार का कहा गया है। स्थलीय, जलीय, मृदा, खनिज आदि भौतिक; पौधे, जन्तु, सूक्ष्मजीव व मानव आदि जैविक एवं आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक आदि सांस्कृतिक तत्वों की परस्पर क्रियाशीलता से समग्र पर्यावरण की रचना व परिवर्तनशीलता निर्धारित होती है। प्रकृति के पंचमहाभूत-क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा- भौतिक एवं जैविक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। वेदों में मूलत: इन पंचमहाभूतों को ही दैवीय शक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है। मानव कृत संस्कृति का निर्माण मानव मन, बुद्धि एवं अहं से होता है। इसीलिए गीता में भगवान कृष्ण ने प्रकृति के पांच तत्वों के स्थान पर आठ तत्वों का उल्लेख किया है। ‘भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धि रेव च। अहंकार इतीयं में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥” (श्रीमद्भागवद्गीता अ-7/4)

वेदों में पर्यावरण से सम्ब्न्धित अधिकतम ॠचाएं यजुर्वेद तथा अथर्ववेद में प्राप्त होती हैं। ॠग्वेद में भी पर्यावरण से सम्बंधित सूक्तों की व्याख्या उपलब्ध है। अथर्ववेद में सभी पंचमहाभूतों की प्राकृतिक विशेषताओं व उनकी क्रियाशीलता का विशद्- वर्णन है। आधुनिक विज्ञान भी प्रकृति के उन रहस्यों तक बहुत बाद में पहुंच सका है जिसे वैदिक ॠषियों ने हजारों वर्ष पूर्व अनुभूत कर लिया था। इतना ही नहीं, वेदों में प्रकृति तत्वों से अनावश्यक व अमर्यादित छेड़छाड़ करने के दुष्परिणामों की ओर भी संकेत किया गया है तथा मानव को सीख भी दी गई है कि पर्यावरण संतुलन को नष्ट करने के दुष्परिणाम समस्त सृष्टि के लिए हानिकारक होंगे।

यजुर्वेद में पृथ्वी को ऊजार्र् (उर्वरकता) देने वाली ‘तप्तायनी’ तथा धन -सम्पदा देने वाली ‘वित्तायनी’ कह कर प्रार्थना की गई है कि वह हमें साधनहीनता/दीनता की व्यथा व पीड़ा से बचाए ‘तप्तायनी मेसि वित्तायनी मेस्यवतान्मा नाथितादवतान्मा व्यथितात्।’-(यजुर्वेद 5/9)।अथर्ववेद के पृथ्वीसूक्त में ‘क्षिति’-पृथ्वी- तत्व का मानव जीवन में क्या महत्व है तथा वह किस प्रकार अन्य चार प्रकृति तत्वों के संग, समायोजन पूर्वक क्रियाशील रह कर, उन समस्त जड़-चेतन को जीवनी शक्ति प्रदान करती है जिनको वह धारण किए हुए है, की विशद व्याख्या उपलब्ध है। अथर्ववेद में पृथ्वी को, अपने में सम्पूर्ण सम्पदा प्रतिष्ठित कर, विश्व के समस्त जीवों का भरण पोषण करने वाली कहा गया है। ‘विश्र्वम्भरा वसुधानी प्रतिश्ठा हिरण्यवक्षा जगतों निवेषनी’- (अथर्ववेद 12/1/6)।  जब हम पृथ्वी की सम्पदा (अन्न, वनस्पति, औषधि, खनिज आदि) प्राप्त करने हेतु प्रयास करें तो प्रार्थना कह गई है कि हमें कई गुना फल प्राप्त हो परन्तु चेतावनी भी दी गई है कि हमारे अनुसंधान व पृथ्वी को क्षत विक्षत (खोदने) करने के कारण पृथ्वी के मर्मस्थलों को चोट न पहुंचे। अथर्ववेद में पृथ्वी से प्रार्थना की गई है ‘यत्ते भूमे विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु। मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम्॥’-(अथर्ववेद 12/1/35)-इसके गम्भीर घातक परिणाम हो सकते हैं। आधुनिक उत्पादन व उपभोग एवं अधिकतम धनार्जन की तकनीक ने पृथ्वी के वनों-पर्वतों को नष्ट कर दिया है। खनिज पदार्थों को प्राप्त करने हेतु अमर्यादित विच्छेदन कर पृथ्वी के मर्मस्थलों पर चोट पहुंचाने के कारण पृथ्वी से जलप्लावन व अग्नि प्रज्ज्वलन, धरती के जगह – जगह फटने व दरारें पड़ने के समाचार हमें प्राप्त होते रहते हैं। खानों में खनन करते समय इसी प्रकार की दुर्घटनाओं ने न जाने कितने लोगों की जानें ही नहीं ली अपितु उन क्षेत्रों के सम्पूर्ण पर्यावरण का विनाश कर उसे बंजर ही बना दिया है।

वेदों में अग्नि (पावक) तत्व को सर्वाधिक शक्तिशाली एंव सर्वव्यापक माना गया है। उसे समस्त जड़-चेतन में ऊर्जा, चेतना तथा गति प्रदान करने वाला एवं नव सृजन का उत्प्रेरक माना गया है। अथर्ववेद में कहा गया है कि ‘यस्ते अप्सु महिमा, यो वनेशु य औशधीशु पषुश्वप्स्वन्त:। अग्ने सर्वास्तन्व: संरभस्व ताभिर्न एहिद्रविणोदा अजस्त्र:॥’ (अ. 19/3/2)-हे अग्निदेव आपकी महत्ता जल में (बड़गाग्नि रूप में), औषधियों व वनस्पतियों में (फलपाक रूप में), पशु व प्राणियों में (वैश्वानर रूप में) एवं अंतरीक्षीय मेघों में (विद्युत रूप में) विद्यमान हैं। आप सभी रूप में पधारें एवं अक्षय द्रव्य (ऐश्वर्य) प्रदान करने वाले हों। यजुर्वेद के अनुसार यही अग्नि द्युलोक (अंतरिक्ष से भी ऊपर परम प्रकाश लोक) में आदित्य (सूर्य) रूप में सर्वोच्च भाग पर विद्यमान होकर, जीवन का संचार करके धरती का पालन करते हुए, जल में जीवनी शक्ति का संचार करता है। -‘अग्निर्मूूर्धा दिव: ककुत्पति: पृथ्व्यिा अयम्। अपांरेतां सि जिन्वति।’ (3/12)

पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति एवं समस्त गृह नक्षत्र मंडल सहित पृथ्वी द्वारा सूर्य की परिक्रमा के जिस तथ्य को आधुनिक विज्ञान आज केवल लगभग 200 वर्ष पूर्व ही समझ पाया है, उस भौगोलिक व सौर्य मण्डल के रहस्यपूर्ण तथ्य को हमारे वैदिक ॠषि हजारों वर्ष पूर्व अनुभूत कर चुके थे। अथर्ववेद में ॠषियों ने कहा है -‘मल्वं विभ्रती गुरूभृद् भद्रपापस्य निधनं तितिक्षु:। वरोहण पृथिवी संविदाना सूकराय कि जिहीते मृगाय॥’(अ0वे0-12/1/48)- अर्थात गुरूत्वाकर्षण शक्ति के धारण की क्षमता से युक्त, सभी प्रकार के जड़ चेतन को धारित करने वाली, जल देने के साथ मेघों से युक्त सूर्य की किरणों से अपनी मलीनता (अंधकार) का निधन (निवारण) करने वाली पृथ्वी सूर्य के चारों ओर भ्रमण करती है।

वेदों में सभी ॠषियों ने सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में सूर्य की केन्द्रीय सत्ता को वैज्ञानिकता प्रदान की है जिसे कि आधुनिक विज्ञान अब क्रमश: समझ सकने में सक्षम हो पा रहा है। ॠग्वेद में कहा है -‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुशश्र्च’-( ़ॠ.वे.-1.115.1)-सूर्य समस्त सृष्टि की आत्मा /जन्मदाता है। सूर्य से पदार्थों को पूर्णता तथा ज्योतिष विज्ञान के अनुसार मानव के जन्म के समय सूर्य तथा उसके आश्रित ग्रहों की स्थिति से मानव को समस्त गुण-सूत्र प्राप्त होते हैं। अथर्ववेद में सूर्यदेव को समस्त सृष्टि का प्रादुर्भावकर्ता, अवलम्बनकर्ता एवं स्वामी माना गया है। ‘सवा अन्तरिक्षादजायत तस्मादन्तरिक्ष जायत’-(अ.वे.-13/7/3)-अर्थात सूर्य अंतरिक्ष से उत्पन्न हुए एवं अंतरिक्ष उनसे उत्पन्न हुआ है। आगे कहा गया है -‘तस्यामू सर्वानक्षत्रा वषे चन्द्रमसा सह’ ’-(अ.वे.-13/6/7)-अर्थात चन्द्रमा सहित समस्त नक्षत्र उनके ही वश में हैं। वे सूर्यदेव दिन, रात्रि, अंतरिक्ष, वायुदेव, द्युलोक, दिशाओं, पृथ्वी, अग्नि, जल, ॠचाओं एवं यज्ञ से प्रगट हुए हैं एवं ये सब भी सूर्य से ही प्रगट हुए हैं। उपरोक्त सभी के अंश, गुण व अणु सूर्य में विद्यमान रहे हैं एवं रहेंगे इसीलिए सूर्य से ये समस्त पदार्थ एवं पंचभूत उत्पन्न हुए हैं। सूर्य ही एक ऐसे देव हैं जिनसे आकाश (नक्षत्रलोक), जल एवं ऊर्जा एवं प्रकाश तथा कीर्ति एवं यश ( ‘यश-अपयश विधि हाथ’ -सूर्य राशि के अधीन) समस्त अन्न एवं उपभोग सामग्री, वनस्पति एवं औषधि इत्यादि सृष्टि को प्राप्त हुआ है। ‘कीर्तिश्र्च यषश्र्चाम्भश्र्च नभश्र्च ब्राह्मणवर्चसं चान्नं चान्नाद्यं च। य एतं देवमेकवृतं वेद। (अथर्ववेद 13/5/1 से 8)

निष्कर्ष रूप में, यह सम्पूर्ण पर्यावरण, प्रकृति आवरण, ही है जो विलक्षण दैवीय शक्तियों से व्याप्त है जिससे सृष्टि के समस्त जंगम एवं स्थावर, प्राणी व वनस्पति को चेतना, ऊर्जा एवं पुष्टि प्राप्त होती है। -‘द्योश्च म इदं पृथिवी चान्तरिक्षं चमेव्यच:। अग्नि: सूर्य आपो मेधां विश्र्वेदेवाश्र्च सं ददु:।’ (अथर्ववेद 12/1/53)-अर्थात द्युलोक, पृथ्वी, अंतरिक्ष, अग्नि, सूर्य, जल एवं विश्व के समस्त देवों (ईश्वरीय प्रकृति शक्तियों) ने सृष्टि को व्याप्त किया है॥ इसीलिए यजुर्वेद में कहा गया है कि पृथ्वी इन समस्त शक्तियों को ग्रहण करे एवं इन सभी शक्तियों के लिए भी सदैव कल्याणकारक रहे। पृथिवी-पृथिवीवासी- इन दैवीय शक्तियों को प्रदूषित न करे।

‘सन्तेवायुर्मातरिश्र्वा दधातूत्तानाया हृदयं यद्विकस्तम्। यो देवानां चरसि प्राणथेन कस्मैदेव वशडस्तु तुभ्यम्॥ (यजुर्वेद-11/39)-अर्थात् उर्ध्वमुख यज्ञकुण्ड की भांति पृथ्वी अपने विशाल हृदय को मातृवत प्राणशक्ति संचारक वायु, जल एवं वनस्पतियों से पूर्ण करें। वायुदेव दिव्य प्राणऊर्जा से संचारित होते हैं। अत: पृथ्वी (अपने दूषित उच्छवास-कार्बन उत्सर्जन) से उन्हें दूषित न करें। वर्तमान में अन्यथा की स्थिति के कारण ही वायु की प्राण पोषक शक्ति-ऑक्सीजन दूषित होकर सृष्टि के जीवन को दुष्प्रभावित कर रही है।

इस पर्यावरण के जनक इन पंचमहाभूतों से ही प्राणिमात्र की 5 ज्ञानेन्द्रियां प्रभावित एवं चेतन होती हैं। इन पंचमहाभूतों के गुण ही हमारी ज्ञानेन्दियों के माध्यम से प्राण, मन, बु़िद्ध, कौशल, अहं अर्थात् भौतिक, जैविक, आत्मिक एंव संस्कारिक पर्यावरण का निर्माण करते हैं। आकाश का गुण शब्द; वायु का गुण शब्द एव स्पर्श़़; तेज (पावक-अग्नि) का गुण शब्द, स्पर्श एवं रूप; जल का गुण शब्द, स्पर्श, रूप एवं रस (स्वाद) तथा पृथ्वी समस्त उपरोक्त चारों गुण सहित सुगंध गुण भी अर्थात समस्त गुणों का धारण करती है। इसी कारण पृथ्वी के प्राणी पंचमहाभूतों के 5 गुणों को धारित करते हैं एवं उनसे प्रभावित भी होते हैं। अत: आवश्यक है कि हम पृथ्वी वासी पर्यावरण को दूषित न करें, छिन्न न करें अन्यथा हमें उनसे दूषित अवगुण ही प्राप्त होंगे। यह वैदिक ॠषियों द्वारा प्रस्तुत एक ऐसा सत्य है जिसकी वर्तमान में अवहेलना कर हम पर्यावरण संतुलन को समाप्त करते जा रहे हैं।

ॠषियों ने न केवल पर्यावरण को प्रदूषित करने के मानव जीवन एवं सृष्टि पर पड़ने वाले हानिकारक विनाशक परिणामों की ओर संकेत किया अपितु पर्यावरण की रक्षा एवं, हम जो कुछ प्रकृति देवों से प्राप्त कर रहे हैं उसे उन्हें लौटा कर, पर्यावरण को प्रदूषित करने की अपेक्षा, उसे संरक्षित एवं सवंर्धित करने का भी आदेश दिया है। ”यदीमृतस्य पयसा पियानो नयन्नृृतस्य पथिभीरजिष्ठै:। अर्यमा मित्रो वरूण: परिज्मा त्वचं पृन्चन्त्युपरस्य योनौ॥”-ॠग्वेद/1/79/3-(हे अग्निदेव) आप यज्ञ के रसों से चराचर जगत का पोषण करते हैं।

यज्ञ के प्रभाव को सरल मार्गों से अंतरिक्ष में पहुंचाते हैं। तब अर्यमा, मित्र, वरूण एवं मरूद्गण, मेघों के उत्पत्ति स्थल पर इनकी त्वचा में जल को स्थापित करते हैं। प्रकृति चक्र सब जगह व्याप्त है। यह चक्र प्राणियों के लिए अन्नादि पोषक पदार्थों को, उपज रूपी शकट के माध्यम से पहुंचाता है। प्रजाओं (मानवों), को इन्द्रादि देवों द्वारा प्रदत्त अनुदानों (प्रकृति प्रदत्त संसाधनों) को यज्ञों-कर्मों के माध्यम से पुन: सब देवों तक पहुंचा कर सृष्टि चक्र संचालन में देवों का सहयोगी बनना चाहिए।

इसी कारण, ॠषियों ने सम्पूर्ण प्राकृतिक शक्तियों को शांत करने व लोक कल्याणकारी बनाए रखने की प्रार्थना की है। अथर्ववेद में उल्लेखित शांति सूक्त का पर्यावरण रक्षण में अपरिमित महत्व है-‘षान्ता द्यौ: षान्ता पृथ्वी षान्तमिदमुर्वन्तरिक्षम्।षान्ता उदन्वतीराप: षान्ता न: सन्त्वोशधी:॥(अ.वे.-19/9/1 ) षं नो मित्र: षं वरूण: षं विश्णु: षं प्रजापति:। षं नो इन्द्रो बृहस्पति: षं नो भवत्वर्यमा॥ (अ.वे.-19/9/6) ‘पृथिवी षान्तिरन्तरिक्षं षांतिर्द्यौ: षान्तिराप: षान्तिरोशधय: षांतिर्वनस्पतय: षांतिर्विश्र्वे मे देवा: षान्ति: सर्वे में देवा: षान्ति: षान्ति: षान्ति: षान्तिभि:। ताभि: षान्तिभि: सर्वषान्तिभि: षमयामोहं यदिह घोरं यदिहक्रूरं यदिह पापं तच्छान्तं तच्छिवं सर्वमेव षमस्तु न:॥’- ( अ.वे-19/9/14)-अर्थात् घुलोक, पृथ्वी, विस्तृत अंतरिक्ष लोक, समुद,्र जल, औषधियां ये सभी उत्पन्न होने वाले अनिष्टों का निवारण करके हमारे लिए सुख शांति दायक हों। दिन के अधिष्ठाता देव सूर्य (मित्र) रात्रि के अभिमानी देव वरूण, पालनकर्ता विष्णु, प्रजापालक प्रजापति, वैभव के स्वामी इन्द्र, बृहस्पति आदि सभी देव शांत हों एवं हमें शांति प्रदान करने वाले हों। पृथ्वी, अंतरिक्ष, द्युलोक, जल, औषधियां, वनस्पतियां एवं समस्त देव हमारे लिए शांतिप्रद हों। शांति से भी असीम शांति प्रदान करे। हमारे द्वारा किए गए घोर-अघोर कर्म, क्रूरकर्म, पापकर्म के फलों का शमन कर, शांत होकर हमारे लिए कल्याणकारी एवं मंगलकारी बने।

Share this:

  • Twitter
  • Facebook
  • LinkedIn
  • Telegram
  • WhatsApp
Tags: hindi vivekhindi vivek magazineselectivespecialsubjective

प्रो. श्रीराम अग्रवाल

Next Post
किसानों और नौकरी पेशा लोगों पर केंद्रित बजट

किसानों और नौकरी पेशा लोगों पर केंद्रित बजट

Comments 1

  1. RASHMI RANJAN says:
    5 years ago

    आपको आभार व्यक्त करती हूँ जो आपने इतने अमूल्य व अतुलनीय लेख को प्रकट किया, प्रस्तुत किया है.

    Reply

Leave a Reply to RASHMI RANJAN Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

हिंदी विवेक पंजीयन : यहां आप हिंदी विवेक पत्रिका का पंजीयन शुल्क ऑनलाइन अदा कर सकते हैं..

Facebook Youtube Instagram

समाचार

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लोकसभा चुनाव

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

लाइफ स्टाइल

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

ज्योतिष

  • मुख्य खबरे
  • मुख्य खबरे
  • राष्ट्रीय
  • राष्ट्रीय
  • क्राइम
  • क्राइम

Copyright 2024, hindivivek.com

Facebook X-twitter Instagram Youtube Whatsapp
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वाक
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण
  • Privacy Policy
  • Terms and Conditions
  • Disclaimer
  • Shipping Policy
  • Refund and Cancellation Policy

copyright @ hindivivek.org by Hindustan Prakashan Sanstha

Welcome Back!

Login to your account below

Forgotten Password?

Retrieve your password

Please enter your username or email address to reset your password.

Log In

Add New Playlist

No Result
View All Result
  • परिचय
  • संपादकीय
  • पूर्वांक
  • ग्रंथ
  • पुस्तक
  • संघ
  • देश-विदेश
  • पर्यावरण
  • संपर्क
  • पंजीकरण

© 2024, Vivek Samuh - All Rights Reserved

0