नरेन्द्र मोदी ने भारतीय राजनीति को बदलने और महात्मा गांधी के उपरांत पहली बार उसे फिर से सामाजिकता और रचनात्मकता से जोड़ने की पहल की है। आम आदमी की अहमियत फिर से कायम हो रही है। नैराश्य का माहौल खत्म हो चुका है और भविष्य सुनहरा दिखाई दे रहा है। मोदीजी के तीन साल पर विचार करें तो ऐसी बहुत-सी बातें उभरकर सामने आती हैं।
मोदी सरकार के तीन साल पूरे हो गए हैं। इन तीन वर्षों में उनकी उपलब्धियों का लेखाजोखा लेना अनिवार्य है। यह देखना होगा कि मोदी सरकार पूर्ववर्ती सरकारों से किन मायनों में भिन्न है। विकास, सुशासन इत्यादि ऐसे क्षेत्र हैं जिनकी चर्चा आम तौर पर की जाती है। लेकिन ये क्षेत्र ऐसे हैं जिनमें तुलना केवल गति को लेकर हो सकती है।
सबसे बड़ा प्रश्न इस देश के आम आदमी का है। पिछले कुछ साल से आम आदमी हाशिए पर पहुंच रहा था। वह धीरे-धीरे सरकार के पूरे सिस्टम से ही बाहर हो रहा था और तथाकथित प्रगति की दौड़ में पिछड़ कर अपना नाम व पहचान दोनों ही खो रहा था। मोदी सरकार ने जन धन योजना के माध्यम से इस आम आदमी की पहचान ही नहीं स्थापित की बल्कि उसे प्रतिष्ठा भी प्रदान की। जन धन योजना का अर्थ केवल बैंक में खाता खुल जाना नहीं है। उस खाते के साथ भविष्य व वर्तमान की सुरक्षा के लिए अनेक योजनाएं जुड़ी हुई हैं। भविष्य बीमा योजना है और अग्रिम धन राशि निकालने की सुविधा है। देश का आम गरीब आदमी, जिसे बैंक वाले भी आज तक बैंक के समीप खड़े नहीं होने देते थे, उसे मोदी सरकार ने देश के बैंकिंग सिस्टम से जोड़ा है। कभी राजीव गांधी ने कहा था कि सरकार की ओर से गरीब के लिए जो एक रुपया चलता है, वह गरीब तक पहुंचते- पहुंचते चार आना रह जाता है। लेकिन अब यह गरीब भी बैंकिंग सिस्टम का हिस्सा है, अतः इसके लिए चला एक रुपया सीधा इसके बैंक खाते में जमा हो जाएगा।
देश में कुछ लोग औद्योगिक विकास को जन विरोधी और कृषि विरोधी बताने का प्रयास करते रहे हैं। उद्योग को और उद्योगों को वे अब भी मार्क्सवादी शब्दावली में सर्वहारा के शत्रु के रूप में देखते हैं। इसी नजरिए के कारण देश औद्योगिक उन्नति में भी पिछड़ गया और उसके कारण रिसर्च एंड डिजाइन में भी ज्यादा प्रगति नहीं हुई। दरअसल उद्योग और कृषि एक दूसरे के पूरक हैं। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पिछले एक साल से देश में नए उद्योगों की स्थापना, विदेशी निवेश, और मेक इन इंडिया के अभियान को सफल बनाने का प्रयास किया है। विदेश से भारत में निवेश हो इसके लिए सरकार ने अनेक सुविधाएं प्रदान की हैं। मोदी की विदेश यात्राओं का मुख्य उद्देश्य चाहे दिशाहीन हो चुकी विदेश नीति को गतिशील बनाना होता है, लेकिन इसके साथ ही उससे सरकारी व गैर सरकारी स्तर पर आर्थिक अनुबंध करना भी होता है। इसमें सरकार को पर्याप्त सफलता मिली है। लेकिन विपक्ष इस नीति को किसान विरोधी समझने की जिद कर रहा है। इससे भी हैरानी की बात यह है कि विपक्ष ने मोदी को किसान विरोधी सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी सोनिया गांधी और उनके बेटे पर डाल दी है। यही कारण है कि जब मां- बेटा भारत के किसानों की जान लेने का दावा करते हैं तो स्थिति गंभीर होने की बजाए हास्यस्पद दिखाई देने लगती है। युवा पीढ़ी को रोज़गार चाहिए, और बिना औद्योगिक विकास के रोजगार के अवसर बढ़ना मुश्किल है। मोदी इसी दिशा में गतिशील हैं। सरकार इस हेतु देश में आधारभूत संरचना के निर्माण की दिशा में गतिशील हैं।
सोनिया कांग्रेस की सरकार ने देश में निराशा का वातावरण पैदा कर दिया था। मंत्रिमंडल में व राजनैतिक नेतृत्व प्रदान करने वालों ने कारपोरेट जगत के साथ मिल कर एक प्रकार से देश के संसाधनों की लूट मचा दी थी। इससे पूरे देश में व्यवस्था को लेकर ही अविश्वास पनपने लगा था। पूर्व सरकार का कोलगेट स्कैंडल तो मात्र इसका एक उदाहरण कहा जा सकता है। इस मामले में तो मोर्चेबंदी इतनी मज़बूत थी कि मनमोहन सिंह जैसा प्रधानमंत्री भी असहाय बना रहा और परोक्ष रूप से इसमें सहायक ही सिद्ध होने लगा था। मोदी सरकार ने एक साल के भीतर ही देश को निराशा के उस वातावरण में से निकालने का ऐतिहासिक काम किया है। चुनाव में लोगों की आशाएं आसमान छूने लगीं थीं, इसलिए इस दिशा में सरकार की गति को लेकर तो बहस हो रही है, लेकिन सरकार की नीयत को किसी ने प्रश्नित नहीं किया। विपक्ष भी ज्यादा हल्ला गति को लेकर ही डाल रहा है, नीयत को लेकर नहीं। सरकार की दिशा निश्चित है। मोदी देश को उस दिशा में ले जाने का प्रयास कर रहे हैं। पूर्व में सरकार एक प्रकार से दिशाहीन ही हो गई थी। इसलिए उसमें जड़ता आ गई थी। दिशा को लेकर मत विभिन्नता होना लाजिमी है। वह वैचारिक मुद्दा है।
लेकिन ऐसे मौलिक क्षेत्र जिनसे नरेन्द्र मोदी सरकार ने देश की राजनीति की दिशा ही बदलने की कोशिश की हो, उन्हें चिन्हित करना लाजिमी है। मोदी का स्वच्छ भारत अभियान, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ ऐसे ही क्षेत्र हैं। दरअसल मोदी के इस अभियान को उसके सही संदर्भ में समझना चाहिए। भारत के इतिहास में राजनीति एवं रचनात्मकता कभी अलग नहीं रही। राजनीति एवं सामाजिक प्रश्न आपस में एक दूसरे के पूरक रहे हैं। विदेशी आक्रमणकारियों के कारण जिनमें ज्यादातर अरब, तुर्क, मंगोल, अफ़ग़ान थे, देश की सामाजिक-राजनैतिक संरचना कहीं-कहीं भंग हुई लेकिन मोटे तौर पर ये विदेशी शासक देश की सामाजिक संरचना की भीतरी आत्मा को हिला नहीं सके। लेकिन यूरोपीय जातियों के आक्रमणों और कालांतर में अंग्रेज़ों द्वारा देश के अधिकांश हिस्से पर कब्जा जमा लेने के उपरांत १८५७ में ब्रिटेन का सीधा-सीधा हिन्दुस्तान पर कब्जा हो गया। उसके बाद जो आधुनिक पृष्ठभूमि में पहला राजनैतिक दल हिन्दुस्तान में स्थापित हुआ, वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस था जिसकी स्थापना २८ दिसम्बर १८८५ में मुंबई में हुई थी, जो देश में कांग्रेस के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस दल के स्थापित होने पर ही यह बहस शुरू हो गई थी कि क्या राजनैतिक प्रश्नों के दायरे में देश के सामाजिक प्रश्न भी आते हैं या नहीं?
इतिहास साक्षी है कि प्रारंभिक काल में कांग्रेस के अधिवेशन में ही सामाजिक सम्मेलन होता था। यह सम्मेलन एक प्रकार से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का हिस्सा ही माना जाता था। लेकिन कुछ सालों में ही इस बात पर बहस शुरु हो गई कि राजनैतिक अधिकार और सामाजिक अधिकार, इन दोनों में से किसको प्राथमिकता दी जाए। एक समूह का मानना था कि हिन्दू समाज में सामाजिक सुधारों की गति को तेज किया जाना चाहिए और यह जरूरी है कि समाज में व्याप्त कुरीतियों को पकड़ा जाए। लेकिन दूसरा समुदाय यह मानता था कि समाजिक सुधार तो होते रहेंगे उसके कारण राजनैतिक अधिकारों की लड़ाई को धीमा नहीं किया जा सकता। कांग्रेस के भीतर की इस लड़ाई में समाज सुधारकों का समुदाय धीरे-धीरे हाशिए पर जाने लगा और राजनैतिक अधिकारों की वकालत करने वाला समुदाय अग्रणी भूमिका में आ खड़ा हुआ। कांग्रेस के भीतर कहा जाने लगा, पहले विदेशियों से सत्ता छीन ली जाए, उसके बाद घर में बैठ कर सामाजिक सुधार किए जा सकते हैं। कांग्रेस का आठवां अधिवेशन १८९२ में प्रयागराज में हुआ था। डब्ल्यू सी बनर्जी ने उसकी अध्यक्षता की थी। तब तक कांग्रेस के भीतर सामाजिक सुधार व राजनैतिक अधिकार का प्रश्न भी उग्र हो चुका था। बनर्जी ने अपने अध्यक्षीय भाषण में इस विवाद का अंत कर दिया और निर्णय राजनैतिक अधिकारों की लड़ाई को प्राथमिकता के पक्ष में सुना दिया। बनर्जी के भाषण का वह अंश द्रष्टव्य है- ‘‘मैं उन लोगों को कतई नहीं मानता जो कहते थे कि सामाजिक व्यवस्था को सुधारे बिना हम राजनैतिक व्यवस्था नहीं सुधार सकते। मुझे दोनों में कोई तालमेल नजर नहीं आता। क्या हम इसलिए राजनैतिक सुधार नहीं कर सकते कि क्योंकि हमारी विधवाएं अविवाहित रह गईं या हमारी लड़कियों की शादियां दूसरे देशों की तुलना में जल्दी हो जाती हैं। (बाबासाहब डॉ. आंबेडकर, सम्पूर्ण वाड्मय, खण्ड १, पृष्ठ ५६)’’ भीमराव रामजी आंबेडकर बनर्जी के इस भाषण को सामाजिक सुधार सम्मेलन की मृत्यु पर पढ़ा गया शोक संदेश बताते हैं।
आंबेडकर मानते थे कि सामाजिक प्रश्न भी राजनीतिक प्रश्नों से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। कहीं-कहीं तो वे राजनैतिक प्रश्नों से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। लेकिन कांग्रेस इससे सहमत नहीं थी। इसलिए उसने पार्टी को देश के सामाजिक व रचनात्मक गतिविधियों से अलग कर लिया। १९१५ में महात्मा गांधी दक्षिण अ़फ्रीका से वापस भारत आए। १९२१ तक वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेता स्वीकार कर लिए गए। (यह स्थिति उनकी लगभग १९४७ तक रही)। गांधी जी ने कांग्रेस को एक बार फिर सामाजिक प्रश्नों व रचनात्मक मुद्दों से जोड़ा। अस्पृश्यता निवारण आंदोलन, खादी आंदोलन उनके इसी प्रकार के रचनात्मक प्रयास थे। यह अलग बात है कि गांधी जी के समय में भी कुछ लोग उनके इन प्रयासों पर नाक-भौं सिकोड़ते थे और इन्हें फालतू के काम कहते थे, जिनका राजनैतिक दलों से कोई ताल्लुक़ नहीं है। गांधी जी के जाने के बाद कांग्रेस ने ने इन सामाजिक व रचनात्मक आंदोलनों से तौबा कर ली और इसका काम सरकारी आश्रय में रहकर फलने-फूलने वाले तथाकथित एन जी ओ के हवाले कर दिया। बाद में सभी राजनैतिक दल इसी राह पर निकले। यही कारण था कि राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलवाला हुआ, वह निष्ठुर हो गई, उसका दूसरा नाम ही छलकपट और जोड़तोड़ हो गया।
नरेन्द्र मोदी ने भारतीय राजनीति को बदलने और महात्मा गांधी के उपरांत पहली बार उसे फिर से सामाजिकता और रचनात्मकता से जोड़ने की पहल की है। शायद कुछ लोगों को ध्यान होगा कि प्रधानमंत्री बनने के बाद जब वे पहली वार लाल किले की प्राचीर से देशवासियों से बात कर रहे थे तो उन्होंने कहा था कि हमें अपने आसपास सफाई रखनी चाहिए। अपना घर और बाहर भी सफाई और स्वच्छता को अधिमान देना चाहिए। उन्होंने कहा था कि हम भारतीय घर को तो साफ रखते हैं लेकिन घर की गंदगी बाहर फेंक देते हैं। हम अपनी नदियों की पूजा भी करते हैं और सबसे ज्यादा गंदी भी हम ही करते हैं। उन्होंने लाल किले से स्वच्छ भारत का आह्वान किया था। तब बहुत से राजनैतिक विश्लेषक चौंके थे। राजनैतिक दल के नेता और देश के प्रधानमंत्री को यहां से राजनैतिक दिशा की चर्चा करनी चाहिए लेकिन ये तो तो गलियों और सड़कों की सफाई की बातें कर रहे हैं। ये बेटी बचाने और लड़कियों को पढ़ाने की बात कर रहे हैं?
१९४७ से देश की राजनीति ने जो दिशा ग्रहण कर ली थी और देश के जनमानस की आम समस्याओं से कट गई थी उसी का परिणाम था कि इन राजनैतिक पंडितों को मोदी की बातें समझ नहीं आ रहीं थीं। कांग्रेस और साम्यवादी दल इस बात को समझ नहीं सकते थे क्योंकि ये राजनैतिक दल विदेशी मानस और विदेशी मिट्टी से उपजे थे। महात्मा गांधी ने कांग्रेस का भारतीयकरण करने की कोशिश जरूर की, उसमें उन्हें सफलता भी मिली लेकिन १९४७ के बाद यह परम्परा टूट गई। जहां तक साम्यवादी दलों का सवाल था, न उनके पास कोई गांधी था और न ही उन्हें इसकी जरूरत थी। नरेन्द्र मोदी ने भारतीय राजनीति को जो यह सकारात्मक दिशा दी है, इस पर विस्तृत चर्चा कभी बाद में।