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दिल ही तो है….    

दिल ही तो है….    

by संगीता जोशी
in फिल्म
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 शायरी के शब्दों के पीछे भी गहरा मतलब छिपा रहता है इसलिए तो वह शायरी या कविता कहलाती है। वह गहरा अर्थ समझने पर ही पाठक को असली आनंद आता है। पुराने गीत अच्छी शायरी हुआ करती

उर्दू शायरी में दिलचस्पी रखने वालों की संख्या आजकल कम नहीं है । इतनी दिलचस्पी लोगों को है कि आज वे उर्दू स्क्रिप्ट भी सीखना चाहते हैं। उर्दू शायरी में इश्क मोहब्बत के साथ साथ सामाजिक या सियासत पर भी टिप्पणी मिलती है। लेकिन इश्क-मोहब्बत की बातें लोग जियादा पसंद करते हैं।

उर्दू शायरी में जो आशिक चित्रित किया जाता है वह हमेशा परेशान रहता है। क्योंकि उसे प्रेमिका या महबूब, उसे बहुत सताती है। वादे करती तो है लेकिन निभाती नहीं। उससे इन्तजार करवाती है। इतना ही नहीं, वफा के बदले जफा करती है। मजबूर आशिक उसके सितम झेल ही नहीं पाता, बल्कि उसके दिए हुए दुख से भी प्यार करता है, और रुसवाई को भी खुशी से गले लगाता है। गाता भी है-

दिले–नादां तुझे हुआ क्या है?

                  आखिर इस दर्द की दवा क्या है?….

             हमको उनसे वफा की है उम्मीद

            जो नहीं जानते वफा क्या है।….

गालिब के जमाने से आशिक की हालत यही थी। लेकिन जमाना बदलता रहता है। बात जब हिंदी सिनेमा तक आ पहुंची तब  चित्र एकदम उल्टा हो गया। यह बात तब की है जब सिनेजगत का  ‘बॉलिवुड’ नहीं बना था! उस जमाने के हीरो ने शायद बदला लेना सोच लिया था। तब के हीरोज् ने हिरोइन्स को रोने के लिए छोड़ देते थे। फॉर्टीज् और फिफ्टीज् में, कुछ हद तक सिक्स्टीज् में यह सिलसिला जारी रहा। बेचारी हिरोइन्स गम सहती रहती थी। किसी ‘कसम’ की वजह से चुप रहती थी। ठुकराई जाने पर भी उसका प्यार कम नहीं होता था। वह गाती थी-

तू प्यार करे या ठुकराए हम तो हैं तेरे दीवानों में

 चाहे तो हमें अपना न बना लेकिन न समझ बेगानों में….

ऐसी सिच्युएशन्स में फंसी हिरोइन्स पर तरस आता था। उनका दुख देखा न जाता था। लेकिन उनकी ऐसी परिस्थितियों ने ही हमें अच्छे अच्छे गाने दिए। शायरों को उनके दुख से प्रेरणा मिली। अगर, ‘एक था राजा, एक थी रानी; दोनों मिल गए खतम कहानी’ ऐसा होता, तो हम ‘पुराने गीतों के खजाने’ से वंचित रह जाते। है न?

अगले दो गीत  ऐसे ही हैं। अब तक आपको विश्वास हो गया होगा कि पुराने गीत अच्छी शायरी का नमूना होते थे। देखिए-

तेरी याद न दिल से जा सकी।

                आती थी यूं कभी कभी

                      आज तो वो भी न आ सकी..॥

उस प्रेमी की याद तो दिल से निकली ही नहीं। दिल में दबी रही। उसे दिल की सतह पर आने का मौका प्रेमिका नहीं दे सकी। क्योंकि रोजमर्रा जिंदगी के झमेले में उसे इतनी मोहलत शायद न मिली हो। उस से बिछड़ कर कहीं वह पराये घर में या किसी अनचाहे माहौल में आ गई है ।

दोनों मिल कर रंगीन सपने तो सजाते रहते हैं, लेकिन साजन अगर दूर चला जाए तो सपना क्या नींद भी दुशमन हो जाती है।

तारों के साये में कितने सपने

                देखे थे मिल के हमने तुमने

                    रूठ गए तुम सपने भी रूठे

                       उनको भी मैं ना मना सकी…1

ये बातें पुराने जमाने की हैं। आजकल तो ‘रिलेशनशिप’ का अनुभव ट्रायल-बेसिस पर  लिया जाता है। फिर बात न बनने पर बड़ी सहजता से ‘ब्रेकअप’ भी हो जाता है। आज की कोई ‘हिरोइन’ रोती नहीं रहती।

रातें वो रातें ना दिन वो दिन हैं

             मंज़िल है मुश्किल राहें कठिन हैं

                  निस दिन रो के भी मैं अपने मन की

                        आग न हाए बुझा सकी….2    

आखिर की दो पंक्तियां प्रेमिका की हालत स्पष्ट कर देती हैं। प्रेम कामयाब ना होने पर प्रेमिका रात-दिन रोती रहती है; आंसुओं का पानी बहता है, उस पानी से भी दिल की आग बुझ नहीं पाती है।

दूसरी नायिका इस तरह घायल और दुखी है कि वह रो भी नहीं सकती है। जब दुख हद से गुजर जाता है तो आंसू भी जम जाते हैं, आंखों से बह नहीं पाते। अंदर ही अंदर घुटन महसूस होती है।

जल के दिल खाक हुआ आंखों से रोमा न गमा

            जख्म ये ऐसे जले फूलों से सोया न गया…

फूल के माध्यम से कवि ने प्रेमी दिल की हालत बताई है-

आसरा देके हमें आस का दिल तोड़ दिया

           लाके साहिल पे अकेला हमें क्यूं छोड़ दिया

         बींच मंझधार में क्यूं हम को डुबोया न गया…

पहले तो प्रेम जताया; आस दिलाई; फिर आसभरा दिल तोड़ दिया। दोनों साथ साथ नाव पर सफर करके किनारे पा आए। वहां लाकर प्रेमी प्रेमिका को क्यों छोड़ गया मालूम नहीं। खुद आगे चला गया। प्रेमिका कहती है, इससे बेहतर था कि मुझे मंझधार में डुबो देते तो यह दुख तो नहीं सहना पडता!

हंसते देखा न गया बाग के माली से हमें

            धूल में फेंक दिया तोड़ के डाली से हमें

            फूले–नादान को माला में पिरोया न गया…

फूल की आड़ से कवि ने लिखा है। फूल को माली ही ने तोड़ कर धूल में फेंक दिया है। शायरी में आने वाले शब्दों का अर्थ वह नहीं होता है जो ऊपर ऊपर लगता है। यहां माली याने घर वाले हो सकते हैं, जिन्होंने नायिका के प्रेम को नहीं स्वीकारा। शायद उसे घर से बेघर भी कर दिया। नादान फूल को माला में पिरोने के बदले धूल में फेंक दिया। अब प्रेमिका कहती है-

हम खतावार है, या हमको बनाने वाला

        चांद के मुखड़े पे भी दाग है काला काला

        कितनी बरसातें हुईं फिर भी वो धोया न गया…

   

प्यार करना यह कोई खता या गुनाह है क्या? गुनाहगार तो वो है जिसने हमारे नसीब में प्यार की नाकामयाबी लिखी। अगर प्अ

प्यार करना दोष है या गुनाह है, तो हो। उसकी बना हर चीज पर कुछ न कुछ दाग जरूर है। जिस चांद को खुदा ने बनाया वह भी निष्कलंक नहीं है; उस पर भी दाग है। तो हम कैसे पूरी तरह निर्दोष हो सकते हैं?

कितनी बरसातें हो गईं पर चांद के दाग भी धुल नहीं गए। अगर प्रेम करना बुरी आदत है, यह धब्बा है तो भी मंजूर है।

शायरी के शब्दों के पीछे भी गहरा मतलब छिपा रहता है इसलिए तो वह शायरी या कविता कहलाती है। वह गहरा अर्थ समझने पर ही पाठक को असली आनंद आता है। इस दूसरे गाने के कवि हैं केशव त्रिवेदी और संगीतकार थे शैलेश मुखर्जी। इन दोनों का नाम इतना मशहूर नहीं हुआ। लेकिन लताजी का गाया, फिल्म ‘परिचय’ (1954) का यह गाना बहुत लोकप्रिय हो गया।

लताजी का गाया पहला गाना फिल्म से है। शैलेंद्र का लिखा यह गीत सलील चौधरी ने संगीतबद्ध किया था। धर्मेंद्र और तनुजा ने इसे पर्दे पर पेश किया।

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