सिनेमा और वायु सेना की साझी उड़ान

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हम देखते हैं कि रजतपट के रंगीन होने के बाद सिनेमा ने भारतीय वायु सेना को भी अपने बहुविध विषयों की माला के मनके के रूप में शामिल किया है। सिनेमा और वायु सेना के साझे सफर की यह उड़ान आगे चलकर कहां तक पहुंचेगी, यह देखना दिलचस्प होगा।

रियल से रील पर

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इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करने का वक्त अब जा चुका है। अब वक्त उसे ठीक करने का है। इसमें दर्शक वर्ग की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। यदि वे अच्छे कंटेंट को अपना समर्थन देंगे तो उसी तरह का कंटेंट बनाने के लिए फिल्मकार मजबूर होंगे। आज का दर्शक जागरूक है। अब वे किसी बात को ऐसे ही स्वीकार नहीं करता है। ये बात ‘शेरशाह’ को मिली सफलता और ‘भुज द प्राइड‘ को मिली असफलता से सिद्ध हो जाती है। वहीं जिस तरह से ‘द एम्पायर’ का विरोध हो रहा है, उससे आगे की कड़ियों को बनाने से पहले निर्माताओं को अवश्य सोचना पड़ेगा।

फिल्मों में बढ़ती अभारतीयता और इस्लामिक प्रभाव

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सच पूछिए तो अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर फिल्मों ने एक मीठे जहर की तरह हमें हमारे ही विरुद्ध कब खड़ा कर दिया गया पता ही नहीं चला। आज भगवान का मज़ाक उड़ाती ‘ओह माई गॉड’, ‘पीके’ जैसी फिल्मों को देख कर लोग ताली बजाते हैं। लेकिन क्या कभी अल्लाह का मज़ाक उड़ाती किसी फिल्म को आपने देखा है?

अभिनय में भी झंडे गाड़ रहे कास्टिंग डायरेक्टर अभिषेक बनर्जी

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"वन्स अपॉन ए टाइम इन मुम्बई"। फ़िल्म में उनके काम को सराहा गया और बतौर कास्टिंग डायरेक्टर उन्होंने पहली फ़िल्म की विद्या बालन, नसीरुद्दीन शाह और इमरान हाशमी जैसे सितारों से सजी "डर्टी पिक्चर"। अपनी टीम के साथ उन्होंने कई फिल्मों की कास्टिंग की। एक अभिनेता के रूप में..

बॉलीवुड हॉरर फिल्में भी हैं दर्शकों की ख़ास पसन्द

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बॉलीवुड में फिल्में तो हर शुक्रवार रिलीज़ होती हैं लेकिन वो फिल्में जो जनता को सिनेमा घर से लेकर अपने घर तक एक डर के साये से घेर लें, हर हफ्ते देखने को नहीं मिलतीं - जी हाँ "हॉरर फिल्में" अपनी विशिष्टता के कारण लोगों में एक क्रेज़ पैदा करतीं हैं।

 क़लम के बादशाह – कैफ़ी

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 1951 में फ़िल्म 'बुज़दिल' से फ़िल्म इंडस्ट्री में बतौर गीतकार प्रवेश करने वाले और फिर वर्षों तक गीतों की दुनिया पे राज करने वाले कैफ़ी आज़मी ने अपने जीवन में पहली बार शायरी तब की थी जब वे मात्र ग्यारह वर्ष के थे।

फिल्मों में बढ़ता देशभक्ति का ज्वार

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आज जिस प्रकार समाज में राष्ट्रीय विचारों की, देशभक्ति की, सेना के प्रति आदर की प्रबल भावना दिखाई देती है, उसका ही प्रतिबिम्ब फिल्मों में भी दिखता है।

गीतों की रिमझिम

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कहते हैं कि शब्दों में बहुत ताकत होती है इतनी की अगर प्रेम के हों तो ज़िन्दगी खुशियों से रौशन हो जाती है और अगर नफ़रत की हों तो वही ज़िन्दगी अंधेरे में डूब जाती है। शब्द ही हैं जो अपने पराये का भेद समझा जाते हैं।

नायक को नायक ही रहने दो – कोई नाम न दो

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क्या ये कह देना भर काफी है कि कमर्शियल सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन है, स्कूली शिक्षा बाँटना नहीं! और यदि येे काफी है तो फिर क्या ऐसा मनोरंजन देकर, विद्यालयों में दी जा रही  शिक्षा को भी अनावश्यक सिद्ध नहीं किया जा रहा ?

बख्तर में जावेद अख्तर

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     डॉ. हेडगेवारजी ने कांग्रेस के सभी गतिविधियों में भाग लिया था।गणतंत्र दिवस के दौरान सभी संघ कार्यालयों पर तिरंगा लगाया जाता है।गत कुछ वर्षों से गणतंत्र दिवस पर संघ का संचलन होता है और उस समय संघ अधिकारियों का भाषण भी होता है।अख्तर साहेब को बख्तर से बाहर आकर और गजल के शब्द ढूंढने के कष्ट से थोड़ा बाहर आकर इन विषयों पर अभ्यास करना चाहिए।

तेरे बज्म में आनेसे ऐ साकी….

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‘उर्दू गजल’ के चाहनेवाले दिन-ब-दिन बढते ही रहे हैं; और यह बडी खुशी की बात है । इस में पुरानी फिल्मों के संगीत का बडा योगदान रहा है। संगीतकार मदनमोहन, नौशाद, सी. रामचंद्र जैसे कई महान संगीतकारों ने इस विषय में अपनी छाप छोडी है । जगजितसिंग, अनुप जलोटा, तलत…

  लोकगीतों और संगीत का हिंदी फिल्मों पर प्रभाव

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  अपना इतिहास अपने लोक गीतो में सुरक्षित है, वर्ना नया मार्क्सिस्ट इतिहास तो हमें मुग़लों और अंग्रेजों के शासन के अलावा कुछ बताता ही नहीं। राजस्थान के लोक गीत न होते तो मेवाड़ के राणाओं की गाथा और जौहर के किस्से तो मिथक ही कहलाते। आल्हा उदल की कहानी…

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