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  लोकगीतों और संगीत का हिंदी फिल्मों पर प्रभाव

  लोकगीतों और संगीत का हिंदी फिल्मों पर प्रभाव

by रतन शारदा
in फिल्म
1

 

अपना इतिहास अपने लोक गीतो में सुरक्षित है, वर्ना नया मार्क्सिस्ट इतिहास तो हमें मुग़लों और अंग्रेजों के शासन के अलावा कुछ बताता ही नहीं। राजस्थान के लोक गीत न होते तो मेवाड़ के राणाओं की गाथा और जौहर के किस्से तो मिथक ही कहलाते। आल्हा उदल की कहानी कहाँ खो जाती अगर लोक गीत न होते?

लगभग हर हिन्दुस्तानी बॉबी के मशहूर गाना ‘घे घे घे रे, घे रे सायबा प्यार में सौदा नहीं’ को जानता है, गुनगुनाता है। हमें यह गाना बड़ी खुशी देता है। परन्तु बहुत कम लोग जानते हैं कि वास्तव में इसके मूल कोंकणी गीत में पुर्तगाल और ईसाइयत की बर्बरता की त्रासदी छिपी है। मूल कोंकणी गीत का एक उद्धरण है।

     हंव सायबा पोल्तोद्दी वेतम,

     दाम्लूए लोग्नोकु वेतम,

     म्हाका सायबा वट्टू दकोई,

     म्हाका सायबा वट्टू कोलोना

लड़की नाविक से प्रार्थना करती है कि मुझे दामू की शादी में जाना है, उसका घर नदी के उस पार है। नाविक उसे मना करता है। उसे मनाने के लिए वह कहती है कि मेरी सोने की पान्जेब ले ले पर मुझे उस पार ले जा।

यह उस समय की बात है, जब हिन्दुओं का दमन चल रहा था, उन्हें जबरदस्ती ईसाई बनाया जा रहा था। ईसाई न बनाने पर और त्यौहार मनाने पर बड़ी यातनाएं दी जाती थीं। हिन्दू बड़ी संख्या में पोंडा द्वीप में अपने इष्ट देवों की मूर्तियाँ लेकर चले गए थे ताकि उनकी संस्कृति और धर्म सुरक्षित रहे। उनके नदी पार करने पर प्रतिबन्ध था, खासकर धार्मिक या सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए। यह सारी पीड़ा इस गीत में छिपी हुई है।

हम सनातन हैं, हमारी संस्कृति सनातन हैं, हमारा राष्ट्र सनातन है- यह हमें लोक गीतों से और लोक संगीत से ही पता चलता है। सारी राम चरित मानस लोकगीत ही है, जिसे गोस्वामी तुलसीदास ने अत्यंत सुन्दर शुद्ध ताल बद्ध तरीके से संजोया है। तभी तो इतनी सदियों से इसे सभी भारतीय वाल्मीकि रामायण से अधिक गाते और सुनते हैं।

इसी लोक संगीत और लोक गीतों ने हमारी संस्कृति सहेज कर रखी है। हमारी जड़ों को ज़मीनी खाद इन्ही लोक गीतों से मिल रही है। एक गजब की मस्ती हैं उनमें दिल को प्रफुल्लित कर देती है।

वर्षा के आने की आहट काले बादलों की गड़गड़ाहट से आती है। उस मस्ती को इस संगीत और गीत में कितनी खूबसूरती से कैद किया गया है-

हो उमड़ घुमड़ कर आयी रे घटा, कारे कारे बदरा सी छाई छाई रे घटा,

जब सनन पवन को लगा तीर, बादल को चीर निकला रे तीर,

झर झर धार बहे….

होली पर हम कई गीत गाते हैं, पर महफिल तब तक पूरी नहीं लगती जब तक अमिताभ जी का गाया लोकगीत – ‘रंग बरसे भीगी चुनर वाली रंग बरसे’ न गा लें। या उन्ही का गीत ‘होली खेलत रघुबीर अवध में होली खेलत रघुबीर’ रंग न जमा ले। इस पीढ़ी से पिछली पीढ़ी याद करते है तो गोदान से ‘होली खेलत नन्दलाल बिरज में होली खेलत नन्दलाल।’ शायद ही कोई भूल सकता है, न ही नवरंग के ‘अरे जारे हट नटखट न खोल मेरा घूँघट’ का जादू।

हमारे भारतीय समाज के संगीत और गीत के बिना कोई कार्यक्रम, कोई रीत पूरी नहीं होती – जन्म से लेकर मरण तक तभी तो हमारे फिल्में गीत और संगीत से सराबोर हैं। फिर इन में मस्ती अगर मन को सराबोर करती है तो इसमें लोक संगीत का बड़ा हाथ है। आज भी ऐसे गाने हर पीढ़ी गाती है और आनंद लेती है-

https://www.youtube.com/watch?v=bzcb4Xln8HI

     पान खाए सैयां हमार

     चलत मुसाफिर मोह लिया रे पिंजरे वाली मुनिया

     बिना बदरा के बिजुरिया कैसे चमके

जहां एक ओर रेगिस्तान का रोमांच हमें उन रेतीले टीलों में नायिका को नाचते दीखता है जब वह गाती है -“मोरनी बगान मा डोले सारी रात रे”। वहीं उस उल्लास के पीछे उसके जीवन की कठिनाइयों को भी संगीत में उजागर करती है, जब वह गाती है-

     “पीपल की मेरी घाघरी पनिया भरण हम जाई हैं”

     इस गीत के शब्द ध्यान से सुनें। वह आगे कहती है-

     सन सन सन जिया करे जब गगरी डूबे पानी में,

     अपना मुखड़ा नया लगे जब देखें हम पानी में।

पानी के भरने की आवाज ही उसके लिए रोमांचक है। अपना चेहरा भी धोने के बाद खिला हुआ लगता है, क्योंकि पानी ही नहीं मिलता उसे,अद्भुत शाब्दिक चित्रण है। इस त्रासदी को हंसी का पुट देते हुए इसी फिल्म का नायक अपनी शादी के समय नहाने से बचने के लिए कहता है, “अरे सात दिन पहले ही तो नहाया था!”

चाहे मौसम हो या आपसी संबंध, यह लोक संगीत हमारे जीवन में रंग भरते हैं, दिल को छूते हैं, आंखें नम करते हैं। कोई संगीत इसकी जगह नहीं ले सकता। यहाँ तक कि देशभक्ति का जज्बा भी लोक संगीत से अधिक कोई नहीं जगा सकता-

“मेरा रंग दे बसंती चोला मेरा रंग दे चोला” पंजाब का बच्चा-बच्चा गाता है, होली में गाते हुए नाचता है। इस लोक संगीत को और सुर देने की कोशिश श्री ए आर रहमान ने की, अत्यंत सिद्धहस्त संगीतकार पर वह आत्मा नहीं जगा पाए, जो जमीन से जुड़ी लाल ने जगाई थी।

कौन सा ऐसा व्यक्ति है जो “ऐ मेरे प्यारे वतन,ऐ मेरे बिछड़े चमन,तुझपे दिल कुर्बान” पर अपनी आँखें नम न कर ले, खासकर यदि वह अपने वतन से दूर है। क्योंकि यह गीत उसके पास उसकी देश की मिट्टी की सुगंध लेकर आता है।

वहीं गोदान का गीत, “पिपरा के बतवा सरीखे मोर मानव के हियरा में उठत हिलोर” नायक के मन में अपने गाँव की हूक जगाता है, अपने गाँव की सोंधी सुगंध को याद कराता है। वैसे ही जैसे “मेरे देश में पवन चले पुरवाई ओ मेरे देश में” कराता है।

प्रेम के कोमल रस को तो लोक गीत अपने ही तरीके से हमारे दिल में घोलते हैं –

मत जइयो नौकरिया छोड़ के, तोरे पैयाँ पडून बलमा या नदी नारे न जाओ शाम पैय्यां पडून या फिर मोरा गोरा रंग लई ले’ मोहे शाम रंग दई दे।

ये लोक संगीत की तरंग ही है कि स्वर्गीय नौशाद एक ही फिल्म में ठेठ भोजपुरी में सुनाते हैं – नैन लड़ गयी है तो मनवा मान खटक होई बे करी तो उसी नायक नाईक से पंजाबी ताल पर भी गँवा देते हैं – मिले जब जब जुल्फें तेरी और किसी दर्शक को यह बात खटकती भी नहीं। आज दशकों बाद भी ये दोनों गाने हमें आनंदित करते हैं।

ऐसा नहीं कि आज के ज़माने के संगीतकार लोक संगीत और गीत से दूर गए हैं। उनके पास शायद जड़ से जुड़ी धुनों के बिना सदाबहार गीत देने मुश्किल ही हैं, वर्ना इतनी सुपरहिट फिल्में लोकसंगीत से ही पहचानी नहीं जाती-

पद्मावत घूमर गीत के बिना अधूरी है, इंग्लिश विंगलिश की भावुकता बिना ‘नवराई माझी लाडा ची’ दिल को पकड़ न पाती। माचिस को याद करते ही ‘चप्पा चप्पा चरखा चले’ अपने आप होंठों पर आ जाता है। मिशन कश्मीर ‘भुम्बरो’ के बिना पूरी नहीं लगती। हम दिल दे चुके सनम में निम्बुडा निम्बुडा’ ही नायिका की भोली अल्हड़ता को उभार सकता है।

इतना ही नहीं, फिल्म न चले लेकिन उसके लोकगीत उसे हमारे यादों में बसा देते हैं। चाहे वह दिल्ली 6 का ससुराल गेंदा फूल हो या फुकरे का अम्बर्सरिया हो, दुश्मनी का बन्नों तेरी अखियाँ सुरमेदानी। कोई बार-बार देखो,देखे न देखे पर ‘काला चश्मा’ बार-बार देखता है। तीसरी कसम तो अमर बनी ही उसके लोकसंगीत के कारण।

हिंदी फिल्मों में जो केवल मसाला से हटकर फिल्मे बन रही हैं, उसका श्रेय छोटे शहरों से, भारत की मिट्टी में खेले तरूण लेखकों, गीतकारों और दिग्दर्शकों को ही जाता है,जिनके दिल लोकगीतों से धड़कते हैं। आप किसी भी उम्र की टोलियों की अन्ताक्षरी देख लें, 10-15 मिनट के भीतर वे पुराने गीतों पर लौट आते हैं क्यों? क्योंकि अमर गीत लोकसंगीत और शास्त्रीय संगीत के आधार के बिना बनाना लगभग नामुमकिन है।

तभी तो राजकपूर जी को अपनी फिल्म ‘जागते’ रहो में कहना पड़ा –

मैं कोई झूठ बोलेया, कोई ना, मैं कोई कुफर तोलेया कोई ना, मैं कोई जहर घोल्लेया ….

कोई ना भई कोई ना, भई कोई ना!

 

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रतन शारदा

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आदमखोर तेंदुआ

आदमखोर तेंदुआ

Comments 1

  1. Vinita Dogra says:
    6 years ago

    Truly explained.. we are forgetting our lok geet. From Punjab to kanyakumri.. every state has so many geets inherited there culture. But now this GEN is introduced with copied music using bad words and these ppl get awarded 🙁

    Reply

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