उपराष्ट्रपति पद के प्रबल दावेदार

साल १९६६ के दूसरे पखवाड़े की बात है। दो साल पहले हुई नेहरू की मौत के बाद देश को बड़ी ही कुशलता से प्रगति के पथ पर ले जा रहे दूसरे प्रधान मंत्री लालबहादुर शास्त्री की तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) के ताशकंद में मौत हो चुकी थी। १९६२ के घावों पर मरहम लगाने वाला सपूत संदिग्ध मृत्यु का शिकार हो चुका था। ‘जय जवान-जय किसान’ की अल्प काल में काल-कवलित होती विचारधारा का शोक मना रहे देश के मन में एक प्रश्न लगातार बना हुआ था कि, ‘‘अब कौन?’’

कुछ इसी तरह की मानसिकता से दो-चार हो रहा था तत्कालीन सत्तारूढ़ दल। कांग्रेस का उत्तर भारतीय धड़ा इंदिरा गांधी के पीछे लामबंद हो रहा था। लेकिन सब को पता था कि सत्ता की चाभी तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री, नेहरू के विश्वस्त परंतु स्पष्टवक्ता मित्र और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज के हाथों में थी। अपने अड़ियल और लालफीताशाही व्यवहार की वजह से मोरारजी देसाई पीछे छूट रहे थे (वैसे उनकी इसी प्रवृत्ति का खामियाजा आगे चल कर जनता पार्टी सरकार को चुकाना पड़ा।)। उसी समय बंबई (वर्तमान मुंबई) कांगे्रस के सर्वेसर्वा सदाशिव कानोजी पाटिल ने कामराज के कान में धीरे से कहा, ‘‘इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आप अपने कंधों पर क्यों नहीं लेते?’’

उनकी इस बात पर उस समय के सब से बड़े किंगमेकर फुसफुसाए, ‘‘No Hindi, no English. How?’’ ये पांच शब्द काफी हैं, यह बताने के लिए कि लुटियंस की राजनीति पर पकड़ बनाए रखने के लिए हिंदी और काफी हद तक अंग्रेजी का ज्ञान कितना आवश्यक हो जाता है। दक्षिण भारत के ज्यादातर राजनेताओं को इस समस्या से दो चार होना पड़ा है। लेकिन जिन चंद लोगों ने के.कामराज की उस फुसफुसाहट को ‘बीजमंत्र’ माना वे दिल्ली समेत समूचे भारत के लाडले बन कर उभरे। फिर चाहे पी.वी. नरसिंहराव हों या सुब्रह्मण्यम स्वामी। या वे तमाम नेता जिनका नाम उत्तर भारत के घर-घर में जाना पहचाना बन गया तथा वे अपने दलों की तरफ से महाराष्ट्र समेत उत्तर भारत में हिंदी में भाषण करते हैं तथा बड़ी रैलियों का हिस्सा बनते हैं। आज की राजनीति में ऐसे नेताओं में सब से बड़ा नाम उभर कर आता है वेंकैया नायडू का, जिन्हें सत्तारूढ़ दल ने उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। प्रतिस्पर्धा में कांग्रेस समर्थित गोपाल कृष्ण गांधी हैं।

उपराष्ट्रपति पद के लिए मतदान ५ अगस्त होना है और उसी दिन परिणाम घोषित होगा। वर्तमान उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी का कार्यकाल १९ अगस्त को खत्म हो रहा है। इसके बाद नए निर्वाचित उपराष्ट्रपति अपना पदभार ग्रहण करेंगे। उपराष्ट्रपति का चुनाव केवल लोकसभा और राज्यसभा के सदस्य ही करते हैं, जबकि राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए संसद के दोनों सदनों व देश भर की विधान सभाओं व विधान परिषदों के सदस्य वोट करते हैं। राष्ट्रपति चुनाव में मनोनीत सदस्यों को मतदान का अधिकार नहीं होता; जबकि उपराष्ट्रपति चुनाव में वे मतदान कर सकते हैं। उपराष्ट्रपति पद के वर्तमान चुनाव में लोकसभा व राज्यसभा के कुल ९७० सदस्य मतदान करेंगे। वर्तमान संकेतों से वेंकैया नायडू की जीत पक्की है।
१९७४ में आंध्र विश्वविद्यालय के छात्रसंघ के अध्यक्ष रहे वेंकैया नायडू की गणना देश के बड़े किसान नेताओं में होती रही है। पहली बार वे १९७२ में ‘जय आंध्र आंदोलन’ के दौरान सुर्खियों में आए। इस दौरान उन्होंने नेल्लोर के आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेते हुए विजयवाड़ा से आंदोलन का नेतृत्व किया। लोकनायक जयप्रकाश नारायण से प्रभावित होकर आपातकाल के दौरान संघर्ष में हिस्सा लिया तथा जेल गए। आपातकाल के पश्चात वे १९७७ से लेकर १९८० तक जनता पार्टी की युवा शाखा के अध्यक्ष रहे जबकि २००२ से २००४ तक भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष का भी उत्तरदायित्व संभाला। वे अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रहे तथा उपराष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने से ठीक पहले मोदी सरकार में शहरी विकास, आवास, शहरी गरीबी उन्मूलन तथा संसदीय कार्यमंत्री थे।

२१वीं सदी के ज्यादातर दिग्गज नेताओं में इमरजेंसी के संघर्ष से निकले और निखरे नेताओं की बहुतायत है। ‘जय आंध्र आंदोलन’ और ‘आपातकाल’ के दौरान नायडू भी जनसंघ के बड़े नेताओं तथा के.एन. गोविंदाचार्य की नजर में आ गए थे। इसीलिए १९७८ के आंध्र विधानसभा चुनाव में उन्हें उनके गृह जनपद नेल्लोर की उदयगिरि सीट से प्रत्याशी बनाया गया तथा वे कांग्रेस के जानकीराम मादला को नौ हजार से अधिक मतों से हरा कर विधायक बने जबकि १९८३ में कांग्रेस के ही राजामोहन रेड्डी को २० हजार से अधिक मतों से पराजित कर मजबूत जनाधार वाले नेता के तौर पर उभरे। १९९६ तक वे आंध्र की राजनीति के बड़े चेहरे के तौर पर सामने आ चुके थे। उसी साल पहली बार भाजपा ने केंद्रीय सत्ता का नेतृत्व किया जो कि मात्र १३ दिनों तक ही चल पाया। उस समय भाजपा के कर्णधारों को एक बात अच्छी तरह समझ में आ गई कि राजनीतिक स्थिरता का विकल्प बनने के लिए अपनी राष्ट्रवादी विचारधारा को राजनीतिक तौर पर चौतरफा स्थापित करना पड़ेगा। इस दिशा में बहुत तेजी से काम शुरू हुआ तथा दो साल बाद एक बार फिर भाजपा सत्ता की सिरमौर बनी। इस बार उसके प्रवक्ता थे वेंकैया नायडू। १९९९ में केंद्र की भाजपानीत एनडीए सरकार में ग्रामीण विकास मंत्री बने। यही वह दौर था जब कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में जहां कि बीजेपी सब से निचले पायदान पर रहती थी, मजबूती से अपने पांव पसारे। इसमें वेंकैया का काफी महत्वपूर्ण योगदान रहा। १९९९ के चुनाव में भाजपा ने आंध्र प्रदेश में छ: लोकसभा सीटें जीतीं।

अटल सरकार की प्रमुख उपलब्धियों में से एक ‘प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना’ के जमीनी शिल्पकर वेंकैया नायडू ही थे। उस योजना के तहत देश के दूरस्थ ग्रामीण हिस्सों तक पहली बार सड़कें पहुंचीं। वर्तमान सरकार ने अगले दो सालों में जितने शहरों को स्मार्ट सिटी के तौर पर विकसित करने के लिए चुना था, उनके चयन में भी नायडू का बड़ा योगदान रहा है। अपने काम के प्रति समर्पण तथा समय पर सही तरीके से काम पूरा करने की क्षमता के कायल विपक्षी भी रहे हैं।

नायडू की सब से बड़ी खासियत यह है कि वे १९७२ से राजनीति में हैं लेकिन इतने लम्बे राजनीतिक प्रवास के बावजूद दागहीन और विवादों से कोसों दूर हैं। उन पर किसी प्रकार का सामाजिक या आर्थिक लांछन नहीं लगा है। उनकी दोनों संतानें राजनीति से दूर हैं। ऐसे समय में जबकि बिहार में लालू के बेटे नीतिश कुमार के गले की फांस बन भ्रष्टाचार के नाले में गोते लगा रहे हैं, नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के लिए झक उजले उम्मीदवार प्रेषित कर भाजपा की ‘पार्टी विथ डिफरेंस’ तथा भ्रष्टाचार मुक्त किए जा रहे भारत की भावना को और मजबूती प्रदान की है।

वेंकैया नायडू को संसदीय कार्य में महारत तो हासिल ही है, साथ ही विपक्षी दलों के साथ भी उनके मधुर संबंध हैं। अपनी हाजिर जवाबी के लिए मशहूर नायडू जीएसटी बिल पर विपक्ष का समर्थन मांगने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के घर भी गए थे। राष्ट्रपति चुनाव के दौरान भी वे श्रीमती गांधी से मिले। विपक्षी दलों के साथ उनके अच्छे संबध राज्यसभा का कामकाज सुचारु तरीके से चलाने में मदद करेंगे, क्योंकि २०१९ तक एनडीए को राज्यसभा में बहुमत का आंकड़ा पार करने की संभावना कम ही है। नायडू को कुछ लोग सरकार का संकटमोचक भी कहते हैं। कई बड़े मुद्दों पर वे ससंद में विपक्ष पर मजाकिया अंदाज में तंज कसते रहे हैं तथा विपक्ष द्वारा हमलावर रुख अपनाने पर भी सामने आते रहे हैं। इस चुनाव की सबसे बड़ी खासियत यह रहेगी कि दस साल बाद कोई राजनीतिक शख्सियत वाला व्यक्ति इस पद पर आसीन होगा जो कि नव प्रगति की राह पर अग्रसर भारतवर्ष के प्रति उच्च सदन की जिम्मेदारी को और मजबूती प्रदान करने में नि:संदेह सहायक सिद्ध होगा

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