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आदिशक्ति मैं इस जगत की

आदिशक्ति मैं इस जगत की

by प्रमिला मेंढे
in महिला, मार्च २०१५
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वि श्व में भारत ही ऐसा देश है जहां स्त्री को ‘मंगलानारायणी मां सप्तशक्तिधारिणी या जगत की आदिशक्ति’ के रूप में देखा गया है। विश्वमान्य ग्रंथ श्री भगवद्गीता के विभूतियोग नामक दसवें अध्याय के चौतीसवें श्लोक की व्दितीय पंक्ति में भगवान कहते हैं कि कीर्ति:श्रीर्वाक्च नारीणां स्मृतिर्मेधा धृति: क्षमा इन सप्तशक्तियों में मैं ही हूं। अर्थात् स्त्री में इन दैवी शक्तियों का अधिष्ठान है। सृजन, संवर्धन, संरक्षण, संप्रेषण ये उनके विशेष ऊर्जास्थान हैं। हमारे तत्वज्ञान में ऐसी भी मान्यता है की ईशतत्त्व को अनेक होने की इच्छा हुई तब जो संकेतरूप देहाकृति प्रकट हुई उसका आधा शरीर स्त्री का और आधा पुरूष का था। एक ही देह के दो भाग होने के कारण कोई श्रेष्ठ या कोई कनिष्ठ, सबल या दुर्बल यह प्रश्न नहीं था। अर्धनारीनटेश्वर की इसी अनोखी कल्पना से भारत का चिंतन समृद्ध बना है। अपने शरीर का कोई भी अंग दुुर्बल या अक्षम बनता है तो पूरे शरीर के व्यवहार बाधित होते हैं। यही है परस्परानुकूल, परस्परसंबध्द, परस्परावलंबी होने का महत्वपूर्ण संदेश।
श्रीमदाद्यशंकराचार्य महाराज के मन में एक बार विचार आया कि मैं स्वयं शक्ति के बिना काम कर सकता हूं। सुबह उठते ही उनके ध्यान में आया कि अपने शरीर की किसी भी प्रकार की हलचल करने की शक्ति उनमें नहीं रही है। सोचने पर उनके ध्यान में आया कि शक्ति की उपेक्षा करने के कारण ही ऐसा हुआ है। ‘शिव’ से स्त्रीत्व का इकार निकालने पर ‘शव’ शेष रहता है। वह अशुभ होता है। इकारयुक्त ‘शिव’ पवित्र है। कृति करने हेतु शिव को शक्ति की, कृति को अस्तित्व देने के लिए शिव की आवश्यकता होती है। व्याकरणशास्त्र में पुरूष का जीव या आत्मा और स्त्री की जीवी या आत्मी ऐसा प्रयोग नहीं है। क्रिया प्रयोग में भी स्त्री या पुरूषवाचक भेद नहीं है। ‘स: प्रणमति’- वह प्रणाम करता है, ‘सा प्रणमति’- वह प्रणाम करती है। पाणिनी को लिंग भेद का प्र्रयोग करना असंभव नहीं था। परंतु यह आवश्यक नहीं था।
परंतु आज ‘‘महिला सशक्तीकरण’’ यह विषय सुर्खी में है। महिला संस्थाओं में, प्रसार माध्यमों में जोरदार चर्चा होकर प्रस्ताव पारित किए जा रहे हैं। नेतागण अपनी सुविधा हेतु, गणमान्य व्यक्ति आवश्यकतानुसार टिप्पणियां देते रहते हैं। ‘‘राष्ट्रस्य सुदृढा शक्ति: समाजस्य च धारिणी’’, स्त्री अर्थात शक्ति के विविध रूप हैं दया, क्षमा, लक्ष्मी, विद्या, बुध्दि, शक्ति, आदि रूप ‘दुर्गा सप्तशती’ में वर्णित हैं।
ऐसी पृष्ठभूमि होते हुऐ भारत में सशक्तीकरण की लहर चल पड़ी क्योंकि हम अपने मूल चिंतन से बहुत भटक गए हैं। जीवनदृष्टि, जीवनमूल्य बदल गए। भौतिकताप्रधान विचारधारा का प्रभाव वैश्वीकरण के कारण बढ़ता गया। स्त्री एक वस्तु- आगे चलकर बिकाऊ वस्तु, उपभोग-मनोरंजन की वस्तु बन गई। १९७५ में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने महिला दशक एवं १९७६ में ८ मार्च ‘महिला दिन’ के रूप में घोषित किया। विश्वपरिवार की धारणा वहां नहीं होने के कारण, व्यापारप्रधान दृष्टि होने के कारण, महिलाओं को किसी प्रकार के अधिकार तो क्या उनको प्राण हैं यह भी मान्यता नहीं थी। पुरूष के मनोरंजन हेतु स्त्री निर्माण की गई है, चाहे जैसा, चाहे तब तक उसका उपयोग करो और फेंक दो। शिक्षा या नागरिकता के मूलभूत अधिकारों से वह वंचित रही। इसलिए वहां यह आवश्यक था। परंतु इसी कारण से वहां के महिला जीवन में अधिकार प्रधानता आई। इसीलिए महिला सशक्तीकरण का आंदोलन निर्माण हुआ। हम भी पुरूष जैसे सशक्त बनें- यह विचार प्रभावी बना। यह शक्ति बाहर से कहीं से प्राप्त करना है ऐसे प्रयत्न हुए। इस विचार से भारतीय स्त्री भी प्रभावित हुई। ‘‘स्त्री जगत की आदिशक्ति है, परिवार, समाज राष्ट्रनिर्माण में उसकी महत्वपूर्ण भूमिका है’’ यह भारतीय भूमिका जो हम भूल गए हैं उसे आज प्रकट करना है। अग्नि पर राख जमने से वह दिखता नहीं -थोड़ीसी फूंक मारने पर राख उड़ जाती है, अग्नि प्रकट होती है, ऐसी ही यह क्रिया है। महाबली हनुमान भी उनकी शक्ति का स्मरण दिलाने पर असंभवसा लगनेवाला सागरोड्डान कर पाए।
एक तेज- द्वे नाम
स्वामी विवेकानंद ने भी स्त्री और पुरूष गरूड़ पक्षी के दो पंख है ऐसा कहा है। कविश्रेष्ठ सुब्रमण्यम् भारती भगिनी निवेदिता को अकेले मिलने गए थे तब उन्होंने कविराज से कहा कि, ‘‘जब तक आप महिलाओं को अपने धर्मकार्य में सम्मिलित नहीं कर लेंगे, तब तक आपको यश नहीं मिलेगा।’’ भारत में कोई भी धर्मकार्य करते समय पुरूष के दहिनी ओर स्त्री अर्थात् पत्नी का होना अनिवार्य है।
सुलभा – जनकराजा संवाद, गार्गी/मैत्रेयी – याज्ञवल्क्य संवाद – श्वेताश्वेतर उपनिषद में विद्यमान ‘‘परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते-स्वाभाविका ज्ञान-बल- क्रिया च-’’ यह उल्लेख, शंकराचार्य-मंडन मिश्र के चर्चा-विवाद में सरस्वती भारती को निर्णायक बनाना। ‘‘एक तेज – द्वे नाम’’, ‘‘अथ स इच्छते दुहिता में पंडिता जायेत’’ (बृहदारण्यक), गणेश जी द्वारा महिला सेना का निर्माण – युध्द क्षेत्र में प्रत्यक्ष सहभागी अपाला, कैकेयी, विश्वामित्र ॠषि के आश्रम में जया, सुप्रभा द्वारा शस्त्रास्त्रनिर्माण का उल्लेख है। मध्ययुग में भी संत, कवयित्री, राज्य संचालन क्षेत्र में राणी रूद्रम्मा, जिजामाता, चेन्नम्मा, रानी मां गाईदिनिन्ल्यू आदि अनेक नाम उपलब्ध हैं, जो महिलाओं की विविध क्षेत्रों में समर्थ भूमिका स्पष्ट करते हैं।
आत्मभान हो जाग्रत
वर्तमान परिस्थिति में मातृशक्ति में आत्मभान जाग्रत करने हेतु विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है। परंतु आजकल तथाकथित प्रबुद्ध व्यक्ति, लेखक, प्रचार माध्यम ‘मातृत्व’ का अर्थ जैविक यानी केवल बालक को जन्म देने तक ही सीमित रखकर विकृत प्रचार कर रहे हैं। परंतु मातृत्व एक मानसिकता है। वह निर्माण होना आवश्यक है-चाहे वह पुरूष भी क्यों ना हो। किसी भी राष्ट्र को सम्मान का स्थान प्राप्त करने हेतु तीन महत्वपूर्ण ऊर्जाओं से समृद्ध होना आवश्यक है। वे हैं ज्ञान – धन – जनसंगठन की विश्वकल्याणकारी भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित ऊर्जा।
ज्ञानशक्तिस्वरूपिणी मां
ज्ञानऊर्जा की प्रतीक है मां सरस्वती। मां के रूप में आत्मपरिचय, जीवितकार्य-उसमें साफल्य, मैं कौन? कहां से आया/आई? मेरा जीवितकार्य क्या है? उसकी सार्थकता कैसी होगी? यह प्रारंभिक रूप में वही और बाद में शिक्षक सिखाते हैं। हर स्त्री मां के रूप में, मां की मानसिकता में यह जानकारी दे। मैं अमुक कुल की संतान, पर मेरा मूल परिचय है मैं भारत माता की संतान। इस सनातन तेजस्वी हिंदू राष्ट्र के नागरिक के नाते-उसका गौरव बना रहे-बढ़ता रहे ऐसी जीवनरचना करने के संस्कार देने में मेरी क्षमता पूर्व काल में प्रकट हुई है-वही क्षमता आज प्रकट करनी है। उसका प्रारंभिक प्रयोग क्षेत्र है परिवार। उसमें आपसी स्नेह-संवाद रखना मेरा ही कर्तव्य है। परिवार में विसंवाद होता है तो वही विविध स्तर पर, सामाजिक-धार्मिक संस्थाओं, राजनीतिक संगठनों, शासन-प्रशासन यंत्रणा में परावर्तित होता हैं, इसका अनुभव हम ले ही रहे हैं।
घर में संस्कार के चार स्रोत हैं चित्र-वस्त्र-पात्र-क्षेत्र- घर में लगाए जाने वाले चित्र, पहने जानेवाले वस्त्र, उपयोग में लाए जानेवाले पात्र (बर्तन), टहलने के-भ्रमण के क्षेत्र (स्थान) मनोव्यापार नियंत्रित करते हैं। अत: महिला में यह समझ हो कि –
१.वह क्या सुनें – क्या सुनवाएं,
२.क्या देखें – क्या दिखाएं,
३.क्या बोलें – क्या बुलवाएं,
४.क्या पहनें – क्या पहनाएं,
५.क्या पढें – क्या पढवाएं,
६.क्या करें – क्या करवाएं,
७.क्या खाएं – क्या खिलाएं,
८.कहां जाएं – ले जाएं,
आदि के बारें में महिलाओं की जागरूकता, सर्वसमावेशक भारतीय जीवनदृष्टि देते हुए मानव को देवत्व की ओर ले जाएगीे। ‘सच्चा ज्ञान करा देे मां’, यह अपेक्षा है सब की। हर स्त्री मां है और जहां जहां से अपना पोषण होता है वह भी मां है। इसीलिए उसका सम्मान करना चाहिए ऐसा भाव महिलाओं के मन में जगने पर हर क्षेत्र में यह संस्कार प्रबल होगा – वर्तमान दुरवस्था नष्ट होगी।
धन ऊर्जा
महिलाओं की धन ऊर्जा जागृत होने का अर्थ है लक्ष्मी माता की भूमिका में आना। उसके रूप का वर्णन है ‘शुभ्रवर्णा रजतजा-हस्तिनादप्रबोधिनी’ वर्तमान भ्रष्टाचार-अप्रामाणिकता, कालाबाजार, ठगी, तस्करी, करचोरी, घूस, आदि के युग में गृहलक्ष्मी को अपनी भूमिका का भान होना अति आवश्यक है। मेरे घर परिवार में इस प्रकार का दुर्व्यवहार करने वाला कोई नहीं होगा। प्रामाणिकता से, न्याय मार्ग से धन कमाओ और निरासक्त भाव से समाजहित में व्यय करो। यह धन केवल मेरे लिए ही नहीं है ऐसे संस्कार हों। समाज परिवार में ‘कोई न हो भिखारी- कोई रहे न भूखा’ यह मानसिकता निर्माण होने पर उसका प्रभाव समाज में दिखाई देगा। महिलाओं में आर्थिक समानता, स्वतंत्रता की घातक होड़ कम होगी। इसके साथ देश की आर्थिक उन्नति इसके लिए यह अनिवार्य नहीं कि वह स्वयं अर्थार्जन की अंधी दौड़ में लगे परंतु वह अर्थतंत्र को सही दिशा देने में सक्षम हो। आज पश्चिमी देशों में भी ‘होम मेकर’; के साथ मॉम एट होम; यह परिचय महिलाओं को सम्मानप्रद लग रहा है।
आर्थिक दृष्टि से सजग स्त्री राष्ट्र की आर्थिक स्थिति प्रभावित कर सकती हैं। अपनी आय से थोड़ी तो भी बचत करने की उसकी वृत्ति ने आर्थिक संकट से देश को बचाया है। स्वदेशी, घरेलू उद्योगों को प्रोत्साहन उसके माध्यम से ही मिलता है। दैनंदिन उपयोग की वस्तुएं स्वदेशी ही खरीदेंगे ऐसा उसका निश्चय -अपना पैसा विदेश में अनावश्यक रूप में जाने से रोका जा सकता है, स्वदेशी उद्योगों को प्रोत्साहन दे सकता है। ‘मेक इन इंडिमा’; डंाम पद प्दकपंद्ध में वह हाथ बंटा सकती है। अन्न, वस्त्र की धामिर्र्क या सामाजिक उत्सव प्रसंगों में- प्रतिष्ठा की विपरीत कल्पनाओं के कारण- होने वाली बरबादी को रोका जा सकता है, सीमित उपयोग की प्रेरणा दी जा सकती है। महिलाओं को आर्थिक विषयों में सहभागी न कराने की वृत्ति आज भी दिखाई देती है। परंतु अर्थ-संपत्ति-समृध्दि की प्रमुख एक स्त्री- लक्ष्मीदेवी है यह वे भूल जाते हैं। परंतु उनकी सही धारणा हो इसलिए महिलाएं भी सक्रिय, सतर्क होकर राष्ट्र का बजट केवल स्त्री-लाभी नहीं अपितु राष्ट्रलाभी हो ऐसा अपना मत आग्रहपूर्वक प्रस्तुत कर सकती हैं, परंतु उसको इसकी विस्मृति हुई है। उसका धनलक्ष्मी, वैभवलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, धैर्यलक्ष्मी, शौर्यलक्ष्मी, संतानलक्ष्मी रूप प्रकट होना आवश्मक है।
मतिं धर्मे- गतिं शुभाम्
सामाजिक दृष्टि से भी स्त्री का सामर्थ्य दुर्गामाता के रूप में प्रकट होने की नितांत आवश्यकता है। वह मां है, समाजविघातक दुष्ट प्रवृत्तियां रोक सकती है। दुर्गासप्तशती में बहुत सुंदर वर्णन है- वह ‘मतिं धर्मे-गतिं शुभाम्’ का संदेश देती है तो दुष्ट प्रवृत्तियां नियंत्रित एवं दंडित करती है। व्यक्ति से नहीं, प्रवृत्ति से विरोध है।
समिति की प्रार्थना में स्त्री शक्ति के दो रूपों का वर्णन है –
१. दुराचार-दुर्वृर्त्ति-विध्वंसिनी
२. सुमार्गं प्रति प्रेरयन्ती
दोनों भी रूप प्रकट होना आवश्यक है। भारतीय जीवन सर्वथैव कानून या शासन आधारित नहीं है। वह एक सहायक घटक है इसलिए उसकी सही जानकारी और वह मानने की प्रवृत्ति भी एक नागरिक के नाते होना चाहिए। स्त्री सुरक्षा के प्रत्यक्ष तंत्र और मंत्र उसको प्रयोग रूप में पाना हैं। परंतु स्वसुरक्षाक्षम होने का अर्थ व्यापक है-स्वदेह के साथ साथ परिवार, समाज, राष्ट्र, धर्म, संस्कृति का रक्षण करने की शक्ति, बुद्धि उसमें जागृत होनी चाहिए। दुराचार, दुर्वृत्ति का मतलब है- भारतीय जीवन मूल्यों के प्रति उपेक्षा या अनादर की भावना। राष्ट्र के मानबिंदु जिसमें महिला भी है, उनका अपमान, शोषण, दुर्व्यवहार-आदि समाहित है। कन्या भ्रूणहत्या से महिला पुरूष संख्या के अनुपात में असंतुलन, इसके कारण निर्माण होने वाली गंभीर समस्या में अर्थात् उसका बलात् अपहरण, धर्मांतरण, हिंसक तस्करी या आतंकवाद में लगाना, जबरदस्ती से देह व्यापार में लगाना, विवाह न करते हुए पति पत्नी जैसे एक साथ रहना, सरोगसी जैसे नए नए अनिष्ट प्रकार रूढ़ हो रहे हैं। महिला की इसके विरोध में खड़े होने की क्षमता निर्माण हो।
बलवानों को विश्व पूजता है
आजकल समाज की सहनशीलता, संयम बाधित होने के अनेकों उदाहरण समाचारों में देखते हैं, पढ़ते हैं। छोटे से कारण से उत्तेजित होकर मित्र, दर्शक या परिवारजनों से मारपीट करना-गोली से उड़ा देना, शासकीय, सार्वजनिक स्थान-सम्पत्ति की तोड़फोड करना-या आग लगा देना, एकतरफा प्रेम को प्रतिसाद नहीं मिलने पर लड़की पर एसिड फेंकना, दुर्वव्यवहार करना नित्य की बात हुई है। युवतियां, महिलाएंं अपने आपको असहाय मान कर अपकीर्ति के भय से चुपचाप रहती हैं। सब प्रकार के प्रचार माध्यम भी इसी प्रकार की घटनाओं को और भड़काऊ बनाकर प्रसिद्ध करते हैं। इसी समय महिलाओं को अपनी दुर्गामाता का असुरवृत्तिनाशिनी का रूप धारण करने की आवश्यकता है। एक और बात इस कार्य में संपर्क, संवाद के माध्यम से मन परिवर्तन तो दूसरी ओर सामूहिक अभियान के माध्यम से दबाव निर्माण करना- शासन प्रशासन को इस संदर्भ में और अधिक संवेदनशील बनाना है। हम जानते हैं कि १९०५ का वंगविच्छेदन-प्रखर सामूहिक देशव्यापी विरोध के कारण ही विदेशी शासन को भी रद्द करना पड़ा। अब तो परिस्थिति बदली है। शासन प्रशासन की एक ही प्रकृति होती हैै यह मानने पर भी ध्यान में रखेंगे कि ‘‘बलवानों को विश्व पूजता है- बलहीनों को नहीं।’’
भारत के इतिहास के ऐसे पृष्ठ तो जरा पलटकर देखें। बहुत पुरानकाल की बात छोड़ भी दे तो भी रानी चेन्नम्मा, रानी रूद्रम्मा, देवी अहल्याबाई, रानी लक्ष्मीबाई, रानी मां गाइदिन्ल्यु का शौर्य, प्रशासन कौशल्य पुन: देखें। महिला शिक्षा के लिए काम करने वाली सावित्रीबाई फुले, समाज सुधार के लिए रमाबाई, विधवाओं की असहायता दूर कर उनके जीवन को सार्थ दिशा देनेवाली मातृसेवा संघ की प्रतिष्ठात्री पद्मश्री कमलाताई होस्पेट-शहीदे आज़म भगत सिंह की माता विद्यावती, दुर्गाभाभी, कस्तुरबा गांधी, जगद्धात्री के रूप में मान्यता प्राप्त शारदामाता तथा वं. मौसीजी केलकर और अनेक- आज भी गत दो दशकों में महिलाओं ने राष्ट्र जीवन के-उद्योग, बैंक, यातायात, शिक्षा, सैना आदि- विविध क्षेत्रों में अपनी योग्यता प्रकट की है।
जीवन रथ की सारथी स्त्री
वं. मौसी जी ने भी समिति कार्य प्रारंभ करते समय यह सोचा कि स्त्री राष्ट्र का महत्वपूर्ण घटक है, यह जागरूकता लाने पर ही वह अपनी भूमिका समर्थता से निभा सकेगी। मातृशक्ति जागरण, संगठन अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए हो, इसी उद्देश्य से राष्ट्र सेविका समिति का प्रारंभ हुआ।
आत्मदीपो भव
अंत में वं. मौसी जी ने १९५३ में समिति द्वारा आयोजित ‘भारतीय स्त्री जीवन विकास परिषद’ में प्रस्तुत संकल्पना पर चिंतन करें। स्त्री की ओर देखने का समाज का और उसका अपना भी दृष्टिकोण सकारात्मक एवं आत्मसामर्थ्ययुक्त हो। वं. मौसी जी ने कहा था कि स्त्री जीवनरथ की सारथी है। सारथी से अपना गंतव्य स्थान, वहां पहुंचने के सही मार्ग, उनकी दूरी, वह पार करने हेतु लगनेवाला समय, जिस वाहन से जाना है उसकी कार्यक्षमता, उसका ईंधन, ब्रेक, ऍक्सिलरेटर, स्टिअरिंग पर पूर्ण नियंत्रण के साथ कुशलतापूर्वक सहजता से गाड़ी को गंतव्य स्थान पर ले जाना अपेक्षित है। एक क्षणार्ध की असावधानी जानलेवा दुर्घटना कर सकती है। वैसा ही है हमारी स्त्रीशक्ति का दायित्व है। राष्ट्र जीवनरथ कौन से स्थान पर सुरक्षित कैसे ले जाना है उसकी पूरी जानकारी एवं क्षमता आवश्यक है उसके लिए औपचारिक-अनौपचारिक संस्कार प्राप्त करना है। यह वह तो करेगी ही – ‘आत्मदीपो भव’ की प्रक्रिया भी समझ लेगी। परंतु समाज का भी दायित्व है कि स्त्री की इस दृष्टि से सक्षम, समर्थ बनने की महत्वपूर्ण प्रकिया में मनोभाव से सहयोग दें।
हम सब महिलाएं भी विचलित न होते हुए अपना तेजस्वी हिंदू राष्ट्र पुनर्निर्माण का ध्येय साधने हेतु अपनी चित्शक्ति सदैव जागृत एवम् कार्यक्षम रखें और आल्हादिनी शक्ति का परिचय दें।
भूत उदर से तेरे निर्मित
वर्तमान अंकों पर लेटत
भविष्य आशा से है देखत – राह देवि तेरी
Tags: empowering womenhindi vivekhindi vivek magazineinspirationwomanwomen in business

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