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जजिया

जजिया

by राजेन्द्र परदेसी
in कहानी
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समीक्षा बैठक की तिथि निर्धारित होने के पश्चात भी जहां अन्य अधिकारी सहज भाव से अपना दैनिक काम कर रहे थे, वही शशांक अपने कार्य की प्रगति को जोरदार ढंग से चीफ साहब के सम्मुख प्रस्तुत करने के लिए प्रत्येक अपर अभियंता प्रोग्रेस रिपोर्ट तैयार करने में व्यस्त रहा।
समीक्षा बैठक में चीफ साहब पहले उसी की ओर मुखातिब होकर बोले-मिस्टर शशांक, आपके यहां से राजस्व वसूली बिलकुल नहीं हो रही है।
“नहीं सर। आप रिपोर्ट देख लें, पिछले वर्ष से इस वर्ष वसूली दुगनी हो गई है।” साहस कर अपना पक्ष शशांक ने रखा तो चीफ साहब ने कहा- मुझे आंकडे मत समझाओ… अपने अपर अभियंताओं को कड़ा करो, अन्यथा लाचार होकर मुझे आपके खिलाफ रिपोर्ट करनी पड़ेगी।”
अपनी सफाई में शशांक ने कुछ और तर्क देना चाहा तो दंडात्मक तेवर में इशारे से उसे यह कहते हुए बैठा दिया कि अगर अगली बार समीक्षा बैठक में वसूली ठीक करके नहीं आए तो दंडित होने के लिए तैयार रहना। इसी के साथ अन्य अधिकारियों के भी राजस्व वसूली पर हल्के-फुल्के ढंग से चर्चा कर और प्रोग्रेस लाने की सलाह देते हुए बैठक के बाद वह वापस मुख्यालय लौट गए।
युवा अधिकारी शशांक ने बड़े उत्साह से अपने स्तर से हुई प्रगति का विवरण तैयार किया था। वह चीफ साहब से अपनी प्रशंसा सुनने की अपेक्षा रखता था। पर उन्होंने तो बैठक में केवल उसे ही प्रताड़ित कर अक्षम बता दिया। उत्साह की ऊर्जा ही समाप्त हो गई। ऐसा क्या करें कि चीफ साहब को उसके कार्य में प्रगति नजर आए, इन्हीं विचारों में खोया हुआ वह कमरे में कोने में पड़ी एक कुर्सी पर बैठा था कि उसके सहयोगी उज्ज्वल गुप्ता पास आकर पूछने लगे- “क्या बात है शशांक, जो तुम यहां अकेले बैठे हो?”
“क्या बताऊं? इतनी लगन से काम करता हूं… अपने अपर अभियंताओं को भी काम के लिए डांटता रहता हूं.. फिर भी चीफ साहब कहते हैं- तुम्हारे यहां वसूली बिलकुल नहीं हो रही।” खीझकर यह भी कहा- “प्रोग्रेस रिपोर्ट भी नहीं देखते.. और गलत आरोप मढ़ कर चले जाते हैं।”
“चीफ साहब ठीक ही तो कह रहे थे। तुम्हारे यहां से वसूली बिलकुल नहीं हो रही है।”
“देखो, उज्ज्वल मुझ से मजाक मत करो… मेरा मूड वैसा ही ठीक नहीं है।”
“मैं मजाक नहीं कर रहा हूं.. सच कह रहा हूं… तुम कितना भी मेहनत क्यों न करो, चीफ साहब तुम्हें डांटते ही रहेंगे… जब तक…”
उज्ज्वल की बात के बीच में ही शशांक बोल पडा, “क्यों डांटतेे रहेंगे?”
“तुमने सुना नहीं, वे क्या कह रहे थे।” रहस्यमय ढंग से उज्ज्वल ने अर्थ खोला-“कह रहे थे कि तुम्हारे यहां से वसूली बिलकुल नहीं हो रही है।”
“गलत कह रहे थे… यह रिपोर्ट देखो।”
“वे तुम्हारे रिपोर्ट की वसूली के बारे में कहां कुछ कह रहे थे।”
“फिर और कौन-सी राजस्व वसूली की बात कह रहे थे।”
“वे अपनी वसूली की बात कह रहे थे।”
“उनकी वसूली से हमें क्या मतलब?” अफसरशाही की परम्परा से अनभिज्ञ शशांक ने सवाल किया तो उज्ज्वल ने भेद खोला-“चीफ साहब सभी अधिकारियों से हर माह कुछ-न-कुछ लेते हैं।” उसकी कमी की ओर भी इंगित करते हुए बताया, “तुम तो अभी तक एक बार भी उनके घर जाकर उनसे मिले भी नहीं।”
“तो साफ कहते क्यों नहीं कि मुझसे भी उन्हें कुछ चाहिए, हर माह।”
“यहां सब कुछ कहा नहीं जाता”, उज्ज्वल ने अनुभव का पिटारा खोला, “कुछ के लिए इशारा ही काफी होता है.. चीफ साहब भी तुम्हें वही इशारा कर रहे थे… समझे।”
शशांक धीरे-धीरे विभाग की कार्य संस्कृति को समझ रहा था। फिर भी वह चाहता था कि चीफ साहब ईमानदारी का जो मुखौटा लगाए फिरते हैं, वही उसके सामने हटाएं। उनका असली चेहरा देखने के लिए शशांक एक दिन चीफ साहब के बंगले पर सुबह-सुबह पहुंच गया। बाहर लगी घंटी को बजाया तो चपरासी निकला। उसके माध्यम से अपना नाम और आने का संदेश उनके पास भिजवाया। थोड़ी देर बाद चपरासी वापस आकर बोला-“साहब, पूजा कर रहे हैं… तब तक आप ड्राइंग रूम में बैठें।”
शशांक ड्राइंग रुम में रखे टेबुल पर पड़े अखबार को उठा कर पढ़ ही रहा था कि चपरासी ट्रे में चाय और भुना काजू सामने रख कर चला गया। कुछ पल बाद चीफ साहब भी वहां आ गए, उससे पूछा, “कैसे आना हुआ?”
“सर। आपका दर्शन करने आया था।”
“खाली दर्शन करने से काम नहीं चलेगा… कुछ काम भी किया करो..” भय भी दिखाया, “तुम्हारे साथ-साथ तुम्हारे अपर अभियंता भी कोई काम नहीं कर रहे हैं.. सभी का वहां से स्थानांतरण करने की सोच रहा हूं..”
“लगता है… आप मुझसे कुछ ज्यादा ही नाराज हैं”, चीफ साहब की बातों का इशारा समझने के लिए शशांक नेे चापलूसी के लहजे में कहा।
“नाराज क्यों नहीं होऊंगा… काम नहीं करोगे, खाली वेतन लोगे तुम लोग।”
“काम क्यों नहीं करेंगे सर। आप आदेश तो करें।” शशांक ने चापलूसी की एक और पर्त चढ़ाई।
चीफ साहब ने ईमानदारी की केचुल को थोड़ा उतारा, “कितने दिन से नौकरी कर रहे हो?”
“सर! दो साल से।”
“अभी तम तुम्हें यह नहीं मालूम कि नौकरी कैसे की जाती है।” शायद उन्हें उसकी अज्ञानता पर तरस आया। विभाग की कार्य संस्कृति का पाठ पढ़ाने के उद्देश्य से एक पृष्ठ खोला, “मैं राजधानी में ऐसे नहीं हूं… यहां रहने के लिए ऊपर वालों को मुझे भी देना पड़ता है… अन्यथा रहने थोड़े देंगे।”
शशांक को विभाग की कार्य संस्कृति की पुस्तक धीरे-धीरे समझ में आने लगी थी, परन्तु वह इतनी जल्दी उनको पूरा समझ जाए, इतना सहज कहां? अपनी कठिनाई चीफ साहब के सामने रखा, “सर! आप तो जानते ही हैं… मैं किसी से कुछ लेता नहीं… फिर आपको कहां से…”
“तुम्हारे पास कितने अपर अभियंता हैं?”
“सर! पांच।”
“तुम उन लोगों से कहते क्यों नहीं… कोई हीला-हवाली करता हो तो मुझे बताओ” चीफ साहब ने कार्य संस्कृति की पुस्तक में आतंक का पाठ खोलते हुए कहा।
“ठीक है सर।”
“फिर कब आ रहे हो?” अपने व्याख्यान के असर जानने के लिए चीफ साहब ने प्रश्न किया।
“जल्दी ही आ आऊंगा सर। जरा अपर अभियंताओं से बात कर लूं।”
“ठीक है, आज बीस तारीख है, तीन दिन बाद तेईस को आकर मिल लेना… और कोई अपर अभियंता तुम्हारी बात न माने तो आकर बता देना।” इसी के साथ टेबुल पर रखे चाय और काजू की ओर इशारा करते हुए कहा-“लो चाय पियो?”
“आप भी लीजिए सर! विभाग की कार्य संस्कृति को सीखने की झलक दिखाते हुए शशांक बोला।
चाय पीने के बाद वह चलने को उठा तो साहब ने उसे पुन: स्मरण कराया-“तेईस को आकर जरूर मिल लेना।”
“ठीक है सर!” इससे अधिक कहने की स्थिति में वह था भी नहीं।
चीफ साहब से मिलने के बाद शशांक ने अपने कार्यालय के कक्ष में सभी अपर अभियंताओं को बुलवाया और चीफ साहब के साथ हुई अपनी बात को विस्तार से बताया। साथ ही सभी से प्रतिक्रिया भी जानना चाही। सभी अपर अभियंता अनुभवी थे, वह विभाग की कार्य पद्धति से भी अच्छी तरह परिचित थे। सभी ने समवेत स्वर से निर्णय का अधिकार उसी के ऊपर छोड़ दिया। पर शशांक अपनी ईमानदारी और नैतिकता के पाठ के सम्मुख चीफ साहब द्वारा पढ़ाया गया पाठ ठीक से समझ नहीं पाया था। मत व्यक्त किया-“मैं तो उन्हें कुछ देने से रहा।” अपनी पीड़ा भी व्यक्त की-“वैसे भी जब भी यहां आते हैं तो उनकी सेवा सत्कार में वेतन से हजार रुपये खर्च हो ही जाते हैं… ऊपर से यह मांग।”
“क्या करिएगा साहब। नौकरी करनी है तो जैसा वह कह रहे हैं, करिए अन्यथा मन में गांठ बांध लेंगे तो कोई-न-कोई बहाना बना कर कुछ-न-कुछ अहित सभी का कर देंगे… कुछ न मिलेगा तो वार्षिक रिपोर्ट में ही कुछ खराब लिख देंगे… फिर आप क्या करिएगा।”
“उन्हें जो करना हो करें, मैं तो अपने स्तर से उन्हें कुछ देने से रहा।” शशांक ने अपना स्वाभिमान व्यक्त किया।
“साहब! आपके चक्कर में तो हम लोगों का बुरा हो जाएगा, तो हम लोग क्या करेंगे?” एक वरिष्ठ अपर अभियंता ने शंका व्यक्त की।
“आप लोगों का क्या बुरा होगा… उनकी नाराजगी तो मुझ से है।”
“आपसे नाराजगी का प्रभाव तो हम लोगों पर पड़ेगा ही।”
“वह कैसे?”
“आपका कार्य है अपने अधीन अपर अभियंताओं के कार्यों की समीक्षा करना और उनके कार्य में शिथिलता होने के बाद भी आपके स्तर से कोई कार्यवाही न करने का झूठा आरोप भी तो गढ़ा जाएगा… फिर जिम्मेदारी से कार्य न करने के आरोपों से हम लोग कहां मुक्त रह पाएंगे?” विभाग की कार्य संस्कृति का अगला पृष्ठ खोलते हुए वरिष्ठ अपर अभियंता ने बताया।
“फिर मैं क्या करूं… मैं तो किसी से कुछ लेने से रहा।” शशांक ने अपनी असमर्थता व्यक्त की।
“आप केवल इतना करें… साहब को हर महीने क्या देना है, बतायें, हम लोग अपने स्तर से आपस में बांट कर व्यवस्था कर देंगे और आप केवल ले जाकर उन्हें दे दिया करें।”
“यह तो भ्रष्टाचार में सहयोग करना हुआ? शशांक ने कहा तो वरिष्ठ अपर अभियंता बोल पड़ा, “साहब, अपने साथ हम लोगों को भी सुख से रहने देना चाहते हो तो जैसा चीफ साहब चाहते हैं, वैसा करिए अन्यथा मनगढ़ंत आरोप में दंडित होने के लिए सदैव तैयार रहिए।” अपने अधिकारी की ईमानदारी और नैतिकता की बात सुनते-सुनते वरिष्ठ अपर अभियंता खीझ गया था। तभी तो बोला-“आप किस-किस को रोकेंगे? यहां तो ऊपर से नीचे तक सभी उसी राह पर चल रहे हैं..। आप ही से तो चीफ साहब ने कहा था कि उन्हें इस पद पर रहने के लिए क्या करना पड़ता है।” स्थिति को और स्पष्ट किया-“फिर क्या वह अपने वेतन से देते होंगे। हम सब से तो लेकर वह पूरा करेंगे।”
अपने अधीनस्थ अधिकारियों की बात सुन कर शशांक का ईमानदारी से नौकरी करने का भ्रम टूट गया। वह उस दोराहे पर खड़ा था जहां एक रास्ता पारिवारिक मजबूरी में नौकरी पर कोई आंच न आने देने वाला था तो दूसरा विभाग की कार्य संस्कृति का अनुकरण करते हुए चीफ साहब को हर माह ‘जजिया’ देना था।
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