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उद्यमिता की विरासत : उत्तर प्रदेश

by गार्गी सिंह
in गौरवान्वित उत्तर प्रदेश विशेषांक - सितम्बर २०१७, सामाजिक, साहित्य
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उद्यमिता की दृष्टि से उत्तर प्रदेश परम्परागत शिल्प के लिये प्रसिद्ध है। इन शिल्पों का विकास गृह एवं कुटीर उद्योग के रूप में ग्रामीण और छोटे कस्बों में हुआ। मशीनी युग में भी इन शिल्पियों ने अपनी परम्परा, अनूठी विशेषता और गुणवत्ता बनाये रखी है।

उद्यमिता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। कर्म के सिद्धान्त में भरोसा रखने वाले इस देश के प्रमुख राज्य उत्तर प्रदेश में कई ऐसे नगर हैं, जहां के शिल्प दुनिया भर में सराहे जाते हैं। पराम्परागत कुशल कारीगरों द्वारा अनेक ऐसी वस्तुयें तैयार की जाती है, जिनकी मिसाल अन्यत्र नहीं मिलती। अयोध्या, काशी, प्रयाग, मथुरा, नैमिषारण्य, सारनाथ, श्रावस्ती, कौशाम्बी जैसे ऐतिहासिक महत्व के स्थलों के साथ ही साड़ी, कालीन, जूता, ताला, चाकू, चूड़ी, इत्र,चिकन, पेठा, पेड़ा, पीतल के सामान, खेल के सामान बनाने वाले नगरों के राज्य उत्तर प्रदेश की चर्चा प्राचीनकाल से होती आयी है। उद्यमिता की दृष्टि से यह राज्य परम्परागत शिल्प के लिये प्रसिद्ध है। इन शिल्पों का विकास गृह एवं कुटीर उद्योग के रूप में ग्रामीण और छोटे कस्बों में हुआ। मशीनी युग में इन शिल्पियों ने अपनी परम्परा, अनूठी विशेषता और गुणवत्ता बनाये रखी है। यही वह कारण है, जिससे इन उत्पादों को सदैव पसंद किया जाता है।

उत्तर प्रदेश की पहचान बन चुके इन उद्योगों में कई पी़ढियों का योगदान रहा है। आज देश की आर्थिक तरक्की में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इनमें से कुछ प्रमुख शिल्पों की चर्चा हम यहां करेंगे-

बनारस की साड़ी- वाराणसी, बनारस या काशी ‘वरूणा’ और ‘असी’ नदियों के बीच बसा विश्व का प्राचीनतम शहर है। अर्धचंद्राकार रूप में गंगाजी के तट पर बसे इस शहर में माता अन्नपूर्णा और बाबा विश्वनाथ साक्षात विराजमान हैं। यह काशी महात्मा बुद्ध की उपदेशस्थली, कई तीर्थंकरों की जन्मस्थली और निर्गुण -निराकार ब्रह्म के उपासक कबीर की कर्मस्थली रही है। धर्मग्रन्थों में काशी के तीन अन्य नाम- अविमुक्त, आनन्द कानन और महाश्मशान भी मिलते हैं। अनेक आध्यात्मिक विभूतियों, विचारकों- दार्शनिकों, साहित्यकारों, विद्वानों की कर्मस्थली काशी बनारसी सा़डियों और परम्परागत उद्योगों के लिये भी सदियों से जाना जाता रहा है। बनारस के वस्त्रोद्योग का उल्लेख ६०० ई.पू. से मिलता है। यह शहर अपने ‘किमखाब’ यानी रेशमी वस्त्रों की बुनाई और सिल्क के कपड़ों के लिये विश्व विख्यात रहा है। बनारसी साड़ियां सदैव से साम्भ्रान्त और कुलीन परिवार की पहली पसंद बनी हुई हैं। विवाह के शगुन के रूप में ये साड़ियां दुल्हन के लिये शुभ मानी जाती हैं। इन साड़ियों के लिये किसी ‘ब्रान्ड’ या पहचान की जरूरत नहीं हैं। इनकी मांग देश ही नहीं विदेशों में भी ऊंची बनी रहती है।

बनारस साड़ी उद्योग में लगभग २१,००० हथकरघे कारर्यरत हैं, जिनमें करीब ६-७ लाख लोग प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से लगे हैं। आज १,५०० करोड़ रूपये के सालाना कारोबार वाले इस साड़ी उद्योग में बनारस भदोही, जौनपुर, गाजीपुर, चंदौली, मिर्जापुर के सैकड़ों परिवारों के लोग पीढ़ी-दर पीढ़ी जुटे हैं। मशीनी युग में भी हथकरघा के प्रयोग से हाथ द्वारा कढ़ाई करके जो साड़ी तैयार की जाती है उसकी मांग औद्योगिक परिवारों, राजघरानों, फिल्मी हस्तियों, राजनेताओं, व्यवसायियों द्वारा की जाती है। १०,००० से १,००००० रुपये की इन साड़ियों को उत्कृष्ट बुनकरों द्वारा बनाने में एक से तीन महीने तक लगते हैं। इन कारीगरों द्वारा सिल्क, काटन, बूटीदार, जंगला, जामदानी, जामावार, कटवर्क, सिफान, तनहुई, कोरांगजा, मसलिन, नीलांबरी, पीतांबरी, श्वेतांबरी और रक्तांबरी बनाई जाती हैं जो यहां की पहचान हैं। बनारस में ये साड़िया रामनगर, मदनपुरा, बजरडीहा, रेवड़ीतालाब, सोनारपुरा, शिवाला, पीलीकोठी, सरैया, लोहता, बड़ी बाजार के बुनकरों द्वारा पुश्तैनी कारोबार के रूप में तैयार की जाती हैं। इन साड़ियों का व्यापार श्रीलंका, स्वीटजरलैंड, कनाडा, मारीशस, अमेरिका, आस्ट्रेलिया तक फैला है।

भदोही का कालीन- कुछ वर्ष पूर्व भदोही वाराणसी जिले का ही एक हिस्सा था। यहां का कालीन प्राचीन काल से ही आकर्षण का केन्द्र बना रहा है। हस्तनिर्मित कालीन और दरी बनाने की परम्परा भदोही और समीपवर्ती जनपद मिर्जापुर में मुगलकाल से शुरू होकर आज तक चली आ रही है। यहां का हस्तनिर्मित ऊन का कालीन अपनी गुणवत्ता, मजबूती, रंग-बिरंगी छींट(चित्रकारी)के लिये प्रसिद्ध है। भदोही के काजीपुरा, नई बस्ती, इलाकों के अलावा हंडिया, बरौत, गोपीगंज, औराई, खमरियां, दुर्गागंज, ज्ञानपुर, सुरियावां, कछवां इत्यादि में कालीन के कारीगर-बुनकर इसे तैयार करते हैं।

कालीन का यह उद्योग पूरी तरह से हस्तशिल्प के रूप में तैयार किया जाता है। काठ (लकड़ी) पर तैयार टपटेड, परसियन कालीन की मांग ऊंची रहती है।औसत माप का एक कालीन दो बुनकरों के द्वारा डेढ़ से दो महीने में तैयार किया जाता है। लोहे के फ्रेम पर तैयार कालीन बनाने में समय कम लगता है, किन्तु इसकी गुणवत्ता कमतर होती है। लगभग १०,००० करोड़ रुपये सालाना व्यापार का कालीन उद्योग न्यूजीलैण्ड, अमेरिका, अरब देशों पर निर्भर है। इस व्यवसाय में प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से ८-९ लाख लोग जुड़े हैं।

मुरादाबाद की पीतल की वस्तुएं- शाहजहां के बेटे मुराद के नाम पर बसा मुरादाबाद अपनी उच्च परम्परा और सांस्कृतिक धरोहर के कारण अपना अनूठा स्थान रखता है। प्राचीन काल में पांचाल के नाम से विख्यात यह नगर मध्यकाल में ‘चौपाल’ नाम से जाने लगा। आगे चलकर यह ‘रुस्तमाबाद’ कहलाया। रामगंगा नदी के किनारे बसे इस नगर पर हर्षवर्धन का भी आधिपत्य रहा। यह इन्द्रप्रस्थ का भी हिस्सा रहा है। यहां का कांच और पीतल का व्यवसाय सदियों पुराना है।

बताते हैं कि शाहजहां के शासनकाल में कुछ परिवार दिल्ली से आकर मुरादाबाद में बस गये और रामगंगा नदी की रेतीली मिट्टी से सांचे बनाकर पीतल का शिल्प विकसित किया। मुगलकाल में पीतल से बने नक्काशीदार ‘आफताबा’ और ‘फूलदान’ की बड़ी मांग थी। यहां का पीतल उद्योग लगभग ३५० वर्ष पुराना है। १८ वीं सदी के अन्त में कश्मीर जयपुर और अन्य शहरों के कारीगरों के आकर बस जाने से मुड़ी हुई धातु पर नक्काशी वाले पीतल तैयार होने लगे। यहां पर हुक्का, बिदरी, लो़टा, गिलास, थाली जैसे परम्परागत बर्तनों के ऊपर देवी देवता, पशु-पक्षी, प्लांटर, वाल प्लेट के साथ ही धार्मिक कथानक के दृश्य बड़ी कुशलता से उकेरे जाते हैं। यहां पीतल के अलावा एल्युमिनियम और शीशे के उत्पाद भी तैयार किये जाते हैं। इसके फलने-फूलने में रामगंगा नदी की रेतीली मिट्टी की बहुत बड़ी भूमिका है। इस उद्योग में लगभग ५० प्रतिशत मुस्लिम और शेष ५० प्रतिशत में पंजाबी तथा वैश्य कारोबारी हैं। पीतल उद्योग में लगभग ५,००००० लोग जुडे हैं। इसका कारोबार लगभग ७,००० करोड़ विदेशी निर्यात का और ३,००० करोड़ रुपये घरेलू है। यहां पीतल की २००० पंजीकृत और ४००० हस्तशिल्प की इकाइयां हैं। लभगभ ४५०० लघु एवं घरेलू इकाइयां कार्यरत हैं। लगभग १५०० निर्यातक इकाइयां पंजीकृत हैं। ब्रास, एल्युमिनियम, आयरन, जर्मन, सिल्वर, ग्लास, लकड़ी, सींग एवं हड्डी से निर्मित वस्तुएं अमेरिका, इंग्लैंड, ताइवान, कोरिया, अरब देशों, फ्रांस, आस्ट्रेलिया को निर्यात की जाती हैं। घरेलू बाजार में दिल्ली, कोलकाता, मुंबई, चेन्नई लखनऊ, बैंगलुर, हैदराबाद, चंडीगढ़ में इसकी अधिक खपत होती है।

मेरठ के खेल के सामान- भारत के इतिहास में मेरठ की अलग पहचान रही है। महाभारत काल का हस्तिनापुर यहीं पर था।यहीं रावण की ससुराल अर्थात मंदोदरी का मायका था। सम्राट अशोक के समय यह बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र रहा। इसने मुहम्मद गोरी और तैमूर लंग का आक्रमण झेला है। स्वतंत्रता संग्राम में मेरठ क्रान्तिवीरों का केंद्र रहा। १८५७ की क्रांति की शुरुआत यहीं से हुई थी। यह ऐतिहासिक शहर आज दुनिया भर में खेल का सामान निर्माण करने वाले शहर के रूप में ख्याति प्राप्त है।

मेरठ में खेल उद्योग की शुरुआत १९१७ में हुई, जब सियालकोट (अब पाकिस्तान में)के दंगे की वजह से हिन्दू कारोबारी मेरठ आकर बस गए। यहां का महाजन परिवार इस उद्योग को स्थापित और विकसित करने में अग्रणी रहा। उनके सहयोग से मेरठ में खेल के सामान बनाने वाली एस जी, बी डी एम, एस एस, नेल्को, स्टेग जैसी बड़ी कम्पनियां स्थापित हुई, जो क्रिकेट, टेबल टेनिस, हाकी, बिलियडर्स, एथलेटिक्स, धनुष-बाण, फिजिकल फिटनेस से जुड़े उत्पाद तैयार करती हैं। क्रिकेट के बल्ले और गेंद तो दुनिया के हर बल्लेबाज-गेंदबाज यहीं का बना प्रयोग करते हैं। आज मेरठ के खेल उद्योग की सालाना आय लगभग ५००० करोड़ रुपये है। यहां का खेल उद्योग नामचीन कम्पनियों के साथ ही घरेलू उद्योग के रूप में भी विकसित है। इनमें लगभग ४-५ लाख लोग जुड़े हैं। यहां बने खेल के सामान दुनिया भर में निर्यात होते हैं।

अलीगढ़ का ताला- पश्चिमी उत्तर प्रदेश का अलीगढ़ शहर जितना अपने विश्वविद्यालय के कारण जाना जाता है, उससे भी अधिक इसकी पहचान अपने तालों की वजह से है। ताला बनाने वाले यहां कई पुश्तों से जुड़े हैं। मजबूती में बेजोड़ इन तालों के विषय में कहा जाता है कि ‘अलीगढ़ का ताला ऐसा कि काला चोर भी न तोड़ पाए।’ शुरू में यहां पीतल के ताले बनाये जाते थे। आगे चलकर इनकी जगह स्टील और लोहे के तालों ने ले ली। अलीगढ़ में ताले बनाने की लगभग ६०० इकाइयां कार्यरत हैं। ताला बनाने की एक ‘ताला नगरी’ ही यहां बस गयी है। अलग अलग शक्ल-सूरत, अलग अलग जरूरत के हिसाब से ढेरों किस्म के ताले यहां बनाये जाते हैं।‘‘तालों में आला, अलीगढ़ का ताला’’ कहावत इसकी मजबूती के कारण ही बनी। आज यहां बसान लाक, रे इन्टरनेशनल, स्पाइडर लाक, ब्रास्टल मैनूफैक्चरिंग और पालन लाक जैसी प्रसिद्ध कम्पनियां हैं। अलीगढ़ के तालों का सालाना व्यापार लगभग ४,००० करोड़ रुपये का हो गया है।‘ कोणार्क लाक’ और ‘नोवा लाक’ जैसी अधिक लीवर वाले ताले बनाने बाली बड़ी कम्पनियां यहीं पर हैं। वर्तमान में यहां मशीनों से ताला बनाया जाने लगा है।

आगरा का जूता- औद्योगिक क्षेत्र में आगरा की पहचान मजबूत टिकाऊ और आरामदायक जूतों के नगर के रूप में होती है। मुगलकाल में सुबह-सुबह चमड़े की मशक में पानी भरकर सड़क की धुलाई करने वाले भिश्तियों ने मेरठ में जूते गांठने के साथ इस उद्योग की आधारशिला रखी। आज आगरा में ३,००,००० से अधिक जूता बनाने वाले कुशल कारीगर हैं। जूता बेचने वाले छोटे-बड़े दुकानदारों की संख्या ५०,००० से ऊपर है। भारत में जूतों की कुल खपत का ६५ प्रतिशत यहीं से पूरा होता है। आगरा में बने २५ प्रतिशत जूते विदेशों में निर्यात किये जाते हैं।

आगरा में जूता बनाने वाली प्रमुख कम्पनियों में डावर फुटवियर इण्डस्ट्रीज, ओम एक्सपोर्ट, गुप्ता ओवरसीज, सेफ्टी शू मैन्यूफैक्चरर्स, जी.जी.फुटवियर, शीतल फुटवियर एक्सपोर्टस इत्यादि हैं। ये कम्पनियां विदेशी कम्पनियों के टक्कर के जूतों का निर्माण करती हैं। आगरा के जूते अपनी नयी-नयी डिजाइन के कारण बहुत लोकप्रिय हैं।

उत्तर प्रदेश एक ऐसा राज्य है, जिसमें विभिन्न संस्कृतियां अलग अलग कालखण्डों में विकसित हुयी। हिमालय की तलहटी से लेकर विन्ध्याचल तक विस्तृत गंगा यमुना के मैदान में सघन जन संख्या वाला यह राज्य कलाकृति, वस्त्राभूषण, खान-पान, रहन सहन, पूजा-पाठ में अग्रणी रहा है। यहां इन प्रमुख उद्योगों के अलावा लखनऊ के चिकन के कपड़े पूरे देश में प्रसिद्ध हैं। झीने, पारदर्शी सूती कपड़ों पर हाथ से की गयी कढ़ाई सबका मन मोह लेती है। नवाबों की नगरी लखनऊ अपनी शान शौकत के साथ ही इन वस्त्रों के लिए भी प्रसिद्ध है। इसी के समीप कन्नौज शहर बसा है जिसका सुगन्धित इत्र जग जाहिर है। बताते हैं कि मुमताज महल की पसन्द के गुलाब, केवड़ा, चमेली इत्यादि के इत्र यही तैयार किए जाते थे। मुगलकाल में कन्नौज इत्र के लिये सबसे प्रमुख केन्द्र था। आज भी यहां औद्योगिक और घरेलू स्तर पर इत्र बड़ी मात्रा में तैयार किया जाता है। जूतों के साथ ही आगरा के पेठे भी स्वाद और किस्मों के लिये प्रसिद्ध हैं। ‘पंछी पेठा’ आगरे की शान के रुप में जाना जाता है।आगरा से होकर गुजरने वाला हर व्यक्ति पेठा अवश्य साथ ले जाता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का रामपुर शहर रामपुरी चाकू के लिये अधिक विख्यात है। बटनवाली चमचमाती चाकू एक समय में हिन्दी फिल्मों के खलनायकों का सबसे पसन्दीदा हथियार हुआ करता था। मथुरा का पे़ड़ा अपनी शुद्धता, स्वाद और कई दिनों तक खराब न होने के कारण प्रसिद्ध है। आगरा शहर जिस एक और उद्योग के लिये प्रसिद्ध है, वह है डीजल शेड। जनरेटर्स, पम्पसेट, टुल्लू बनाने में यह शहर अग्रणी है। इनका लगभग ५०० करोड़ रुपये का कारोबार है।वर्तमान औद्योगिक शहर नोएडा(न्यू ओखला इण्डस्टियल डेवेलपमेन्ट अथारिटी)और ग्रेटर नोएडा में इलेक्ट्रानिक सामान, ओटोमोबाइल की बड़ी मैन्यूफैक्चरिंग कम्पनियां हैं। ये सब उत्तर प्रदेश की उद्यमिता और कारोबारी तस्वीर को अच्छी तरह से प्रस्तुत करते हैं। इन सभी उद्योग धन्धों को नयी तकनीक से जोड़कर विश्व बाजार के अनुकूल बनाने में राज्य एवं केन्द्र की सरकारों को उचित कदम उठाने की आवश्यकता है।

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