नायक को नायक ही रहने दो – कोई नाम न दो

हाल ही में रिलीज़ हुई रणवीर सिंह और आलिया भट्ट अभिनीत फ़िल्म गलीबॉय, दर्शकों को पहली ही नज़र में भा गई। लीक से थोड़ा हटकर रैपर्स  और रैप सांग्स पर आधारित इस फ़िल्म को युवा वर्ग ने खास तौर पर सराहा। अहम कारण रहा – अंग्रेज़ी का एक शब्द – ‘अंडरडॉग’ , जिसे इस फ़िल्म ने बख़ूबी दर्शाया। इस फ़िल्म की सबसे महत्वपूर्ण बात ये रही कि देश का हर युवा मुराद नाम के इस अंडरडॉग अर्थात मुम्बई की गलियों में पले बढ़े एक युवक की कहानी को खुद की ज़िंदगी से बड़ी ही आसानी से जोड़ रहा है और लगभग सभी कहते सुनाई दे रहे हैं ‘अपना टाइम आएगा’। ज़ोया अख़्तर ने अब तक बॉलीवुड को जितनी भी फिल्में दी हैं उनमें गलिबाय सर्वश्रेष्ठ होने का ख़िताब पा चुकी है। रणवीर सिंह ने भी बतौर अभिनेता 2019 में रिलीज़ हुई अपनी ही फिल्में सिंघम और पद्मावत से अधिक लोकप्रियता इस फ़िल्म से हासिल की है। आलिया भट्ट

और कल्कि कोचलिन का अभिनय भी इस फ़िल्म में सराहनीय रहा। फ़िल्म के अन्य कलाकारों ने भी अच्छा काम किया है ।

रचनात्मकता की दृष्टि से निश्चित ही इस  फ़िल्म की टीम ने एक अच्छा प्रोजेक्ट फ़िल्म इंडस्ट्री में लांच किया। रिलीज़ के अपने पहले ही दिन में 18.70 करोड़ कमाने वाली ये फ़िल्म बॉलीवुड की सबसे बड़ी ओपनर फ़िल्म साबित हुई है। यह फ़िल्म मुंबई के रियल लाइफ रैपर्स डिवाइन और  नैज़ी के जीवन पर आधारित है, हालाँकि बहुत से साक्षात्कारों में डिवाइन ने इस बात से इनकार किया है कि फ़िल्म पूरी तरह से उनके जीवन पे आधारित है, हाँ लेकिन इस बात की पुष्टि की है कि, फ़िल्म के कुछ दृश्य और घटनाएं  उनके संघर्ष के दिनों से प्रेरित ज़रूर हैं। इस फ़िल्म की कहानी दर्शकों को बताती है कि किस प्रकार एक अंडरडॉग अर्थात मुम्बई की गलियों में पला बढ़ा एक युवक मुराद बेहतरीन हुनर होने के बाद भी जब जीवन में सफलता प्राप्त नही कर पाता है, तब वो रात के अंधेरे में कारें चोरी करके अपने परिवार की ज़रूरतों को पूरा करने लगता है। शुरुआत में वो इस तरह के ग़लत कामों के ख़िलाफ़ होता है लेकिन परिवार की ज़रूरत और ज़िन्दगी में कुछ करने की चाहत उसे चोरी करने पर मजबूर कर देती है। परिस्थितियों से लड़कर चोरी से इतर अपना कोई नया रास्ता खोजने के बारे में वो नहीं सोचता। भारी मन से वो अपने एक दोस्त के साथ मिलकर कारें चोरी करने लगता है। और उसका जीवन पटरी पर आने लगता है। इसी बीच उसका दोस्त पुलिस के हत्थे चढ़ जाता है, लेकिन मुराद बच जाता है। और फ़िर अंत में सफ़लता उसके कदमों में आ गिरती है- मुम्बई में हर एक व्यक्ति उसके रैप सांग का दीवाना हो जाता है।

फ़िल्म बिज़नेस और रचनात्मकता की दृष्टि से ही देखी जानी चाहिये ऐसा कई कलाकारों और आलोचकों का मानना है लेकिन क्या वाक़ई फ़िल्मों का मक़सद केवल मनोरंजन है ? या फ़िर इन्हें आर्ट सिनेमा और कमर्शियल सिनेमा का चोला पहनाकर हम समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारियों से बस चुपके से ही बच निकलना चाहते हैं? क्या ये कह देना भर काफी है कि कमर्शियल सिनेमा का काम सिर्फ मनोरंजन है, स्कूली शिक्षा बाँटना नहीं! और यदि येे काफी है तो फिर क्या ऐसा मनोरंजन देकर, विद्यालयों में दी जा रही  शिक्षा को भी अनावश्यक सिद्ध नहीं किया जा रहा ?

                   अपने दौर के महान कलाकार और लेखक रहे स्वर्गीय श्री कादर खान ने भी अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि फिल्में लिखते समय सामाजिक नैतिकता का ख़्याल रखना एक अहम ज़िम्मेदारी होती है। यदि चोरी करके आज के दौर का युवा किसी फ़िल्म का आदर्श नायक बन जाता है तो फ़िर ‘दीवार’ फ़िल्म में अमिताभ बच्चन और ‘मदर इंडिया’ में सुनील दत्त के किरदारों को मिली सफलता और लोकप्रियता स्वतः ही निरर्थक हो जाती है, जहाँ ये दर्शाया गया है कि ग़लत काम का ग़लत ही नतीजा होता है, बेहिसाब सफ़लता नहीं मिलती। ऐसी कहानियां  गढ़कर गरीबी में जी रहे करोड़ों युवाओं की भावनाओं और मजबूरियों  को दर्शाना गलत नहीं, लेकिन हाँ उन्हें कैश करने के लिए प्रसिद्ध नायकों को हथियार बनाकर  युवाओं को गुमराह करना निश्चित ही ग़लत है।

आज के ही नहीं, बल्कि हर दौर में फिल्मों का हमारी सामाजिक संरचना में, विशेष रूप से भारत जैसे राष्ट्र में, एक विशेष महत्व रहा है। इनका जो प्रभाव युवा पीढ़ी पर पड़ता है, फिर भले ही वो किसी नायक या नायिका की तरह साजसज्जा करना हो या उनकी तरह उठना बैठना, वो प्रभाव ही हमारे समाज की दिशा निर्धारित करता है। जिस तरह सही ग़लत के भेदों को नज़रअंदाज़ करते हुए आजकल के लेखकों और फ़िल्म निर्माताओं का ध्यान केवल फ़िल्म के बिज़नेस पर टिका है, वो आने वाली पीढ़ी के लिए घातक साबित हो सकता है। फिलहाल उम्मीद यही की जा सकती है कि बिज़नेस से इतर समाज के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझते हुए फिल्म मेकर्स कुछ बेहतर करने की सोच के साथ आगे बढ़ेंगे।

 

– डॉ मेघा भारती “मेघल”

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