स्वतंत्रता की दूषित अवधारणा
क्या राष्ट्र के नागरिकों के मध्य अल्पसंख्यक औऱ बहुसंख्यक की शर्मनाक औऱ विभेदकारी अवधारणा को हम अपनी उपलब्धियों के रूप में याद करें। क्या तुष्टीकरण की व्यवस्था के लिये स्वाधीनता की राजनीतिक लड़ाई लड़ी गई थी। समाजवाद के नाम पर हमने किस आर्थिक मॉडल की नींव रखी जो राष्ट्रीय हितों के ही विरुद्ध हो। सवाल बहुत है जो जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े है। क्यों कौटिल्य, गांधी, दीनदयाल की सशक्त और मौलिक वैचारिकी को खूंटी पर टांगकर हमने वाम औऱ पश्चिमी विचारों को आत्मसात कर देश को आगे बढ़ाने के नीतिगत निर्णय लिए? आखिर भारतीय स्वत्व को भुलाकर उधार की वैचारिकी ने इन 74 सालों में हमें क्या दिया?