स्वतंत्रता की दूषित अवधारणा

क्या राष्ट्र के नागरिकों के मध्य अल्पसंख्यक औऱ बहुसंख्यक की शर्मनाक औऱ विभेदकारी अवधारणा को हम अपनी उपलब्धियों के रूप में याद करें। क्या तुष्टीकरण की व्यवस्था के लिये स्वाधीनता की राजनीतिक लड़ाई लड़ी गई थी। समाजवाद के नाम पर हमने किस आर्थिक मॉडल की नींव रखी जो राष्ट्रीय हितों के ही विरुद्ध हो। सवाल बहुत है जो जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े है। क्यों कौटिल्य, गांधी, दीनदयाल की सशक्त और मौलिक वैचारिकी को खूंटी पर टांगकर हमने वाम औऱ पश्चिमी विचारों को आत्मसात कर देश को आगे बढ़ाने के नीतिगत निर्णय लिए? आखिर भारतीय स्वत्व को भुलाकर उधार की वैचारिकी ने इन 74 सालों में हमें क्या दिया?

स्वतंत्र भारत के 75 वर्ष हमें एक सिंहावलोकन के लिए निमंत्रित करते है।?क्या जिन सपनों औऱ मूल्य स्थापना के लिए औपनिवेशिक सत्ता से हमारे पूर्वजों ने लंबा संघर्ष किया उनकी जमीनी सच्चाई से हम वाकिफ है? क्या वाकई महान सेनानियों के आत्मोसर्ग के प्रति हम अपने सामाजिक दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन कर पाएं है? सवाल बुनियादी रूप से एक ईमानदार आत्मावलोकन का भी है। यूं तो एक राष्ट्र के लिए 75 वर्ष कोई बड़ी कालावधि नही है क्योंकि हम राष्ट्र को पश्चिमी अवधारणा में मान्यता नही देते है।

श्री अरविंद के अनुसार राष्ट्र क्या है? हमारी मातृभूमि क्या है? यह न तो धरती का टुकड़ा है न वाणी का अलंकार, न मस्तिष्क की कल्पना यह एक महान शक्ति है जिसका सृजन शक्तियों की उन करोडों इकाइयों के मेल से हुआ है जो राष्ट्र का निर्माण करती हैं। ठीक वैसे ही जैसे करोड़ों देवताओं की शक्ति को एकत्र कर एक शक्ति पुंज बना जिससे महिषासुरमर्दिनी पैदा हुई। अटल जी ने कमोबेश राष्ट्र की व्याख्या जमीन के टुकड़े औऱ शासन व्यवस्था से ऊपर उठकर एक जीवंत प्रतिमान के साथ की है।  एक राष्ट्र के रूप में भारत 1947 से 2021 की अवधि में उस महान मानवीय सभ्यता और विरासत का अंश भर है जिसे आज के संदर्भ में हम स्वतंत्रता के साथ जोड़कर देखते है। सही मायनों में भारत एक प्रवाहमान सभ्यता है जिसके 75 साला पड़ाव को आज हम विमर्श का केंद्र मानकर चलते है। यह कालखंड हमें वर्तमान से जोड़ता है और स्वतंत्रता के 75 साल होने पर ईमानदारी से नीति नियंताओं के समानांतर नागरिक दायित्व के आत्मावलोकन के लिए भी बुलाता है। सवाल यही है कि गांधी, अरविंद, दीनदयाल और अटल जी की राष्ट्र की अवधारणा के साथ हमारी 75 साला यात्रा कितना न्याय कर पाई है?

क्या एक आधुनिक स्वाधीन राष्ट्र के रूप में हम स्वतंत्र राष्ट्र को भी आकार दे पाए है। क्या स्वाधीनता भारत के स्वत्व को प्रकट करने में सहायक हुई है? औपनिवेशिक कालखंड ने भारत के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, भौगोलिक, जनांकिकीय स्वरूप को दूषित एवं विघटित करने में कोई कमी नही छोड़ी। 1700 ईसवी में भारत का वैश्विक आय में 22 फीसदी हिस्सा था जो 1952 में घटकर 3 फीसदी रह गया। लोकमान्य तिलक भारत को आत्मसंतुष्ट राष्ट्र के रूप में वैदिक काल की भव्यता के साथ पुनर्स्थापित करने के पक्षधर थे। आचार्य कौटिल्य का राष्ट्र एक सशक्त और सम्प्रभु राज्य के सिद्धांतों पर कायम हुआ था। कहने का आशय यह कि भारत एक राजनीतिक इकाई भर कभी नही रहा है यह मौजूदा राज्य अवधारणा से कहीं व्यापक है। सवाल यह कि विमर्शनवीसी के केंद्र में विषयवस्तु क्या होनी चाहिये? क्या 75 साल उस सेक्युलरिज्म और समाजवाद के लिए याद किया जाना चाहिए जो हमारी जीवनशैली और मूल्यों से कोई वास्ता ही नही रखते है। क्या राष्ट्र के नागरिकों के मध्य अल्पसंख्यक औऱ बहुसंख्यक की शर्मनाक औऱ विभेदकारी अवधारणा को हम अपनी उपलब्धियों के रूप में याद करें। क्या तुष्टीकरण की व्यवस्था के लिये स्वाधीनता की राजनीतिक लड़ाई लड़ी गई थी, समाजवाद के नाम पर हमने किस आर्थिक मॉडल की नींव रखी जो राष्ट्रीय हितों के ही विरुद्ध हो, सवाल बहुत है जो जीवन के हर क्षेत्र से जुड़े है। आज उन नीतियों के आलोक में विचार करने की आवश्यकता है जिनका अबलंबन हमने इन 75 वर्षों में किया है।

हम भारत के लोगों का 75 सालों में  गणतंत्रीय नजरिये से  वैशिष्ट्य क्या है?  135 करोड़ भारतीयों के नागरिकबोध पर सवालिया निशान क्यों  खड़ा करते रहे हैं दुनिया के नागरिकशास्त्री। क्या आज इस तथ्य पर ईमानदारी से विमर्श की आवश्यकता नही है।

हमने गणतन्त्रीय,औऱ सम्प्रभु राजव्यवस्था को अपनाया लेकिन इसके लिये मूल संविधान में नागरिक  उत्तरदायित्व के प्रावधान नही किए।1976 में 42वे संवैधानिक संशोधन औऱ सरदार सवर्ण सिंह की अनुशंसाओं को स्वीकार करते हुए भाग 4 में अनुच्छेद 51(क)जोड़कर पहले दस और अब 11 मूल कर्तव्यों का समावेश किया गया।भारत के लोकजीवन में प्रायः प्रतिदिन ही नागरिकों के अधिकारों को लेकर बहस होती रहती है।पिछले कुछ बर्षों में तो अभिव्यक्ति की आजादी और इससे सहसबन्धित अन्य अधिकारों को लेकर एक बड़े वर्ग द्वारा ऐसा वातावरण निर्मित किया जाता रहा है मानों भारतीय राजव्यवस्था ही नागरिक अधिकारों को कुचलने में लगी है।कतिपय बुद्धिजीवियों द्वारा इस मुद्दे के अंतरराष्ट्रीयकरण का प्रयास भी किया जाता है।

प्रश्न यह है कि क्या कोई भी लोकतांत्रिक व्यवस्था बगैर नागरिकबोध के सफल हो सकती है?क्या सिर्फ राज्य प्रायोजित अनुदान और सुविधाओं के एकपक्षीय उपभोग से कोई राज्य लोककल्याणकारी ध्येय को प्राप्त कर सकता है?1950 से भारतीय लोकजीवन का सिंहावलोकन हमें इस चिंतन की ओर उन्मुख करता है कि क्या भविष्य का भारत अपने नागरिकों की कर्तव्य विमुखता की नींव पर खड़ा होकर उस वैश्विक स्थिति को हांसिल कर पायेगा जिसकी कल्पना संविधान बनाने वाले पूर्वजों ने की है। वस्तुतःलोकचेतना के केंद्र में राष्ट्र का भाव आज वोट बैंक की राजनीति ने तिरोहित कर दिया है।मुफ्तखोरी की चुनावी सियासत ने सत्ता का सर्जन तो एक चिन्हित वर्ग के लिए निरन्तर किया  लेकिन भारत के लोकजीवन से जबाबदेही की अनिवार्य सामूहिकता को इसने समाप्त प्रायः कर दिया।यह तथ्य है कि एक नागरिक समाज के रूप में हम आज दुनियां में सबसे लापरवाह वर्ग का प्रतिनिधित्व करते है। हमारे देश में करोडों लोग पूरा जीवन बगैर नागरिकबोध और सामाजिक योगदान के गुजार देते है। चीन के तानाशाही आवरण में भी राष्ट्रीय तत्व आम जीवन में इस सीमा तक है कि विदेशी नागरिकों को हवाई अड्डे पर ही चीनी भाषा मंदारिन का दुभाषिया किराए पर लेना पड़ता है। ताकि उसके देश की भाषा का सम्मान तो बना ही रहे साथ ही राष्ट्रीय आय में भी बढ़ोतरी हो। इजरायल  के लोगों ने रोमन अत्याचार के असहनीय दौर के बाबजूद अपनी भाषा हिब्रू को सहेज कर रखा और जब नया देश इजरायल बसाया तो 50 साल में  हिब्रू  को तकनीकी, व्यवसाय, शोध और प्रशासन की प्रमुख भाषा बना दिया। लेकिन किसी  भारतीय भाषा के प्रति ऐसा अनुराग हमारे जीवन में नही है। पिछले सरकारी भाषा सर्वेक्षण में महज 24हजार 597 लोगों ने ही मातृभाषा के रूप में संस्कृत को रिकॉर्ड पर दर्ज कराया है। बेशक भारत ने 75 सालों में हर क्षेत्र में प्रगति की है। लेकिन यह भी सच है की उपलब्ध मानव औऱ प्राकृतिक संपदा की तुलना में यह अन्य देशों से काफी कम है।इसका मूल कारण हमारे अवचेतन में राष्ट्रीयता के प्रधानतत्व की कमी भी है। हमारे लोकजीवन में दैनंदिन कार्य आपवादिक रूप से ही राष्ट्रीयता का भाव धारण करते है। हम क्रिकेट टीम की जीत पर जश्न मनाते है और कुछ पल बाद  ही यह विजयोन्माद सड़कों से काफूर हो जाता है।हम अटारी बाघा बार्डर पर जब परेड देखते है तो देशभक्ति के  उन्मादी  ज्वार में डूब जाते है। वहाँ से लौटते है तो ढेर सारा कचरा अपनी सीट के नीचे छोड़ आते है। उसी भारतमाता के सीने पर जिसकी जयकार कुछ मिनिट पहले ही बीएसएफ के साथ कर रहे होते है। ऐसे बीसियों उदाहरण है जिनसे यह प्रमाणित होता है कि  हमारी चेतना में राष्ट्रीय दायित्व बोध आज भी स्थाई भाव नही बना सका है। कल्पना करें हर भारतीय अपने जीवन मे सामाजिक रूप से एक काम एक वर्ष में  करने का संकल्प ले तो  भारत की तस्वीर क्या होगी। नागरिक चेतना का महत्व स्वयं सिद्ध है, आज भारत गंदगी से मुक्ति की ओर मानसिक रूप से उन्मुख हो रहा है शहरी भारत का व्यवहार परिवर्तन इस मोर्चे पर साफ दिख रहा है। इंदौर इसका जीवंत प्रमाण है। शास्त्री जी की अपील पर लोगों ने एक वक्त का उपवास भी किया था। बाबजूद भारतीय गणतंत्र को इजरायल, चीन, जापान, कोरियाई चरित्र में ढलने के लिये अभी लंबी यात्रा करनी होगी क्योंकि राज्य प्रायोजित मुफ्तखोरी और गैर जबाबदेह लोक जीवन हमारे मन मस्तिष्क में गहरे तक समाया गया है। गणतंत्र में तंत्र को हर समस्या लिए आरोपित करने की मनःस्थिति को बदलने की आवश्यकता भी है। आखिर तंत्र भी गण से निकलता है और उसका कोई अलग मानवीय वैशिष्ट्य नही  होता है। इसलिये गणतंत्र को अगर महाजनपदीय गौरव के साथ स्थापित करना है तो अधिकारों के समानान्तर कर्त्तव्य को भी लोकचेतना के केंद्र में लाना होगा।

इस विमर्श का दूसरा पक्ष शासन से भी गहराई से संबद्ध है क्योंकि राज्य के नागरिक राजा से अनुप्राणित होकर लोकजीवन को गढ़ते हैं। हमारे स्वाधीन राष्ट्र में राजव्यवस्था नागरिक बोध औऱ राष्ट्र के स्वत्व का गौरवभाव जगाने में विफल रही है। शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य जैसे मुद्दे एक नैराश्य की निर्मिति करते रहे है।स्वत्व को तिरोहित करने का नतीजा ही है कि आज हमारी शिक्षा व्यवस्था बेरोजगारों की फौज खड़ी करती है। कौशल केंद्रित पुरातन शिक्षा व्यवस्था को 75 साल बाद पुनर्स्थापित करने की झलक मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति में नजर आई है।कौशल औऱ जबाबदेही एक मूल्यपरक शिक्षा व्यवस्था से ही आकार लेते है। जबाबदेही राष्ट्र के सशक्त आधार की अनिवार्यता है और यह अपने गौरवशाली अतीत को विस्मृत करके संभव नही है।हमने समाजवाद के नाम पर इतिहास औऱ सँस्कृति के साथ जो अन्याय किया है उसे दुरुस्त करने में बहुत लंबा समय लगेगा।

यह सुखद संकेतक है कि 75 साल बाद ही सही भारत की लोकचेतना में जड़ों के प्रति लौटने का संकल्प दिखाई देने लगा है। बहुसंख्यक समाज अपने गौरवशाली मानबिन्दुओं की तरफ आकृष्ट हो रहा है।शिक्षा और कौशल के परंपरागत प्रतिमान अब राजव्यवस्था से लोकचेतना में विमर्श का केंद्र बन रहे है। आंतरिक सुरक्षा से लेकर सीमाओं तक एक सशक्त राष्ट्र की कौटिल्य नीति को लोग अधिमान्यता दे रहे है। अल्पसंख्यकवाद की आत्मघाती चुनावी राजनीति के दिन लद रहे है। सामाजिक न्याय के फेमिली सिंडीकेट कुछ हद तक कमजोर हो रहे है लेकिन सतर्कता का बिषय यह भी है कि जनांकिकीय नजरिये से आये बदलाव बहुत ही गंभीर चुनौती के रूप में इस दौरान खड़े हो गए है।

एक राष्ट्र जिसकी परिकल्पना अरविंद, शिवाजी, तिलक करते है उसकी जय यात्रा अभी बहुत लंबी है। शत्रु का स्वरूप घरेलू हो तब एक स्वाधीन राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता भी बड़ा संकट बन जाती है। स्वतंत्रता के नाम पर स्वाधीन भारत में अब तक जो होता आया है और जो हो रहा है वह निसंदेह एक खतरनाक चुनौती तो है ही। 75 वी बर्षगाँठ पर भारत स्वतंत्रता की इस कतिपय दूषित मनोवृत्ति से लड़ने का संकल्प लेकर खड़ा हो यही समय की मांग है।

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