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जनाधार को व्यापकबनाने की चुनौती

जनाधार को व्यापकबनाने की चुनौती

by गंगाधर ढोबले
in मार्च २०१५, राजनीति
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दि ल्ली विधान सभा के चुनाव भाजपा व कांग्रेस दोनों के लिए राजनीतिक सुनामी साबित हुए हैं। दोनों राष्ट्रीय दलों की हालत इतनी पतली होगी कि कांग्रेस का कोई नामलेवा भी नहीं बचेगा और भाजपा को उंगली पर सीटें गिननी पड़ेगी इसकी शायद किसी ने कल्पना नहीं की थी। मतदाताओं ने दोनों को सजा दे दी और आप को अभूतपूर्व बहुमत के साथ सत्ता सौंप दी। यह बात भी पुनः उजागर हो गई कि हम मतदाताओं को अपनी जेब में मानकर नहीं चल सकते।

इसका एक सुंदर किस्सा है। शायद साठ के दशक की बात है। लोकसभा चुनाव थे। उन दिनों पुरानी रियासत के राजा लोग ही कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़कर लोकसभा में पहुंचते थे। गोरखपुर में वहां के राजासाहब भी मैदान में थे। समाजवादियों का उन दिनों उस इलाके में कुछ काम चल रहा था। शबनम बैग कंधे में लटकाए युवक दिखा तो लोग समझ लेते थे समाजवादी है। कुछ लोगों को खुराफात सूझी। उन्होंने एक निठल्ले समाजवादी युवक को उकसाया और नामांकन भरवा दिया। बेरोजगार था, आगे-पीछे कोई नहीं था। लोग खिला-पिला देते थे। राजासाहब को लगा, अच्छा है- कोई तो विरोध में खड़ा है। उससे क्या लड़ना? उसका हारना व मेरा जीतना तय ही है। लेकिन, पांसा उलटा पड़ गया। वह जीत गया। लड़कों ने उसकी हाथी पर सवारी निकाली। आनाकानी करने के बाद भी उसे हाथी चढ़वा दिया। हाथी जैसे ही राजासाहब के भवन के पास आया, राजासाहब नए सांसद का स्वागत करने के लिए हार लेकर द्वार पर खड़े हो गए। राजासाहब को देखते ही वह हाथी से कूद पड़ा और राजासाहब के चरणों पर गिरकर गिड़गिड़ाने लगा। चुनाव लड़ने के लिए माफी मांगने लगा। राजासाहब को भी मुगालते में रहने की कीमत चुकानी पड़ी। कुछ-कुछ ऐसा ही भाजपा के साथ हुआ है ऐसा लगता है। मोदी जी के राजसूय के घोड़े बिनरुके चौतरफा दौड़ रहे थे तो फिर दिल्ली में उसे कोई कैसे रोकेगा, इस मुगालते ने सब चौपट कर दिया। जब इसका भान हुआ तब खेला गया ‘मास्टर स्ट्रोक’ उलटा पड़ गया।

कांग्रेस की चर्चा करना ही बेमानी है। क्योंकि गांधी नाम और मां-बेटे के चक्कर के अलावा वहां कोई किसी की सुध नहीं लेता। पार्टी में कम्युनिस्टों की तरह ‘केवल नेता ही रह गए हैं, कार्यकर्ता बचे ही नहीं हैं।’ आज की घड़ी में वह राष्ट्रीय पार्टी है; लेकिन भविष्य में यही हाल रहे तो क्षेत्रीय पार्टी रहना भी मुश्किल होगा। विचारधारा की शून्यता है।

चुनावों में हार-जीत होती रहती है। लेकिन इस तरह हार होना कि सीटें तीन उंगली में ही गिनी जा सके, भाजपा के लिए गंभीर आत्मपरीक्षण व चिंतन का विषय है। भाजपा की हार के निम्न कारण गिनाए जा सकते हैं-

१. दिल्ली की जनता की नब्ज पकड़ने में विफलता।

२. चुनावी तैयारी में मुगालते में रहना और केवल ‘मोदी लहर’ की उम्मीद पर जीना।

३. पार्टी में आरंभ से ही मतभेदों का सार्वजनिक होना।

४. दिल्ली में पार्टी का कोई सर्वमान्य चेहरा न होना और किरण बेदी को यकायक लाकर मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना देना। इस तरह भाजपा-आप संघर्ष के बजाए चुनाव को बेदी- केजरीवाल संघर्ष बना देना।

५. ‘सब को साथ’ लेकर चलने की भावना का अभाव और हिंदुओं से इतर लोगों में संदेह की भावना उत्पन्न होना।

६. नकारात्मक प्रचार जैसे की कांग्रेस मुक्त दिल्ली और आप के केजरीवाल को उत्पाती कह देना आदि। मुद्दों की अपेक्षा व्यक्तिगत छींटाकशी पर उतर आना।

७. चुनाव के दौरान ही ‘आप’ व कांग्रेस को आय कर विभाग की चन्दे को लेकर नोटिसें आना, जबकि भाजपा को ऐसी कोई नोटिस न आना। इससे इस प्रचार को बल मिलना कि केंद्र की भाजपा सरकार विपक्ष को निशाना बना रही है।

दिल्ली की जनता बिजली, पानी, सड़क, सुरक्षा से ज्यादा चिंतित है। केजरीवाल ने इसी बात पर बल दिया। ‘आप’ के २५-३० साल के युवा कार्यकर्ता चुनाव के पहले से ही घर-घर जाकर लगातार जनसम्पर्क करते रहे। जनसंचार माध्यमों का उन्होंने बखूबी इस्तेमाल किया। समस्याओं का सारा दोष केंद्र सरकार पर मढ़ देते थे; क्योंकि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न मिलने से पुलिस समेत बहुत सी बातें केंद्र पर निर्भर है। भाजपा के भी युवा कार्यकर्ताओं के दल थे, उन्होंने भी खूब प्रचार किया, लेकिन केद्र में सत्ता में हैं इसीलिए दिल्ली में भी सत्ता में भाजपा होनी चाहिए यह बात जनता के गले नहीं उतरी। कांग्रेस के अजय माकन के साथ वही पुराने चेहरे व कार्यकर्ता के रूप में कुछ किराए के टट्टू थे। जनता के सामने चयन का प्रश्न आया तो कांग्रेस सिरे से खारिज हो गई। भाजपा व ‘आप’ के बीच उन्हें ‘आप’ अधिक करीबी लगी इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता।

आंकड़ों से अनुमान लगता है कि मध्यम व गरीब तबका ‘आप’ के साथ हो गया। उसे प्राप्त ५४% वोटों से इसका अंदाजा लग जाता है। इससे कांग्रेस के वोट भी उसकी ओर मुड़ने का संकेत मिलता है। मुस्लिम व दलित वर्ग हमेशा कांग्रेस का वोट बैंंक रहा है। माना जाता है कि कोई ७७% मुस्लिम वोट ‘आप’ के साथ गए, कांग्रेस के साथ २०% व भाजपा को नगन्य २% वोट मिले। दलित वोटों में भी कोई ६८% वोट ‘आप’ को, कांग्रेस को लगभग २५% और नगण्य भाजपा को मिले। कांग्रेस के इस वोट बैंक में ‘आप’ ने सेंध लगाई और भाजपा कुछ नहीं कर सकी। विदेशी अखबारों ने भी इस बात को उजागर किया है। न्यूयार्क टाइम्स और अरबी खलिज टाइम्स दोनों ने इस बात को अपने लेखों-अग्रलेखों में रेखांकित किया है। बानगी के तौर पर खलिज टाइम्स के ११ फरवरी के अग्रलेख में लिखा गया अंश पेश है, ’र्चीीश्रळाी र्ींेींशी श्रिरूशव र लरींरश्रूीीं ीेश्रश ळप ीर्शींीीपळपस अझझ, ुळींह र ींर्हीाळिपस ारक्षेीळींू, री ळीं वळव’पीं से ींहश उेपसीशीी ुरू.’’ एक बात यह भी कही जा रही है कि इमाम के फतवे के कारण मुस्लिम वोट ‘आप’ के पक्ष में गए। इस बात में बहुत तथ्य दिखाई नहीं देता। इमामों के फतवे इसके पहले भी जारी होते रहे हैं; लेकिन इस तरह मुस्लिम वोटों का उछाल कभी नहीं हुआ। शायद सत्ता के प्रति भय ने अल्पसंख्यकों को उस ओर झुकाया हो। इसीलिए सरसंघचालक पू. मोहनजी भागवत ने स्पष्ट कहा था कि धर्म या पूजा पद्धति के कारण किसी के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिए। सभी के प्रति समान न्याय होना चाहिए। लेकिन उनकी यह बात शायद दिल्ली के सम्बंधित तबकों तक पहुंचाने में भाजपा सफल नहीं रही है।

इसी तरह हिंदी के उपन्यासकार कृष्ण प्रताप सिंह ने १४ फरवरी को न्यूयार्क टाइम्स में लिखे एक लेख में कहा है, ’खपवळरप र्ींेींशीी रीश र्ाीलह श्रशीी षेीसर्ळींळपस ींहरप लशषेीश. ढहळी ुशशज्ञ ींहश इगझ श्रशरीपशव ींहरीं श्रशीीळेप ींहश हरीव ुरू…. खीं’ी ुरीपळपस ींे रश्रश्र.’ कृष्ण प्रताप दिल्ली के हैं और ‘आप’ समर्थक हैं। भले वे यह बात ‘आप’ के पक्ष का समर्थन करने के लिए कह रहे हों, लेकिन बात तो सच है। इस बात को रेखांकित किया जाना चाहिए कि लोग (दिल्ली के भी) अब ज्यादा जागरूक हो गए हैं। हाथ में मोबाइल, कंधे पर लैपटाप और जेब में टैब के साथ सोशल मीडिया व अन्य मीडिया से लोग अब ज्यादा परिचित हैं। इसलिए नेताओं की कोरी बकवास का अब कोई असर नहीं होता। चुनाव महज भाषणबाजी से नहीं जीते जाते। पार्टी में एकता व एकात्मता होना ही जरूरी नहीं; वह सार्वजनिक तौर पर दिखाई भी देनी चाहिए। किरण बेदी का ‘मास्टर स्ट्रोक’ खेलते समय यह चूक हो गई। यह साफ झलकता था कि नेतृत्व का यह निर्णय कार्यकर्ताओं को रास नहीं आ रहा है। यह पार्टी के बजाए व्यक्ति की लड़ाई हो गई। भाजपा खुश थी कि ‘आप’ से जुड़ी एक कद्दावर को ‘आप’ संस्थापक केजरीवाल से खिलाफ खड़ा किया है। इससे ‘आप’ के वोटों का बंटवारा होगा और भाजपा को जीत हासिल होगी। लेकिन किरण बेदी तक जीत नहीं पाई तो पार्टी को किस तरह जितवाती। यह पार्टी की अपेक्षा उनकी ‘व्यक्तिगत हार’ मानी जानी चाहिए। उनके आने से पार्टी के वोटों में कोई इजाफा नहीं हुआ है। वह अपने पूर्व स्तर ३४% के आसपास बना है। केवल लगभग आधा प्रतिशत की कमी हुई है, जो नगण्य है। इसलिए भाजपा का जनाधार घटा है, ऐसा नहीं है। लेकिन रणांगण के गणित और सामरिक रणनीति में वह मात खा गई। जनाधार कायम रहना पार्टी के लिए जमा का बिंदु है और ‘राजधर्म’ का पालन करते हुए जनाधार को व्यापक बनाने की चुनौती उसके समक्ष है।

यह प्रश्न अक्सर उठाया जाता है कि इसके क्या प्रभाव होंगे? चूंकि जनाधार नहीं घटा है इसलिए निराश होने की जरूरत नहीं है, न इसके देश के अन्य भागों में विशेष विपरीत प्रभाव होंगे। भाजपा की चिंता बिहार में होने वाले चुनाव व महाराष्ट्र में शिवसेना की बैसाखी पर खड़ी सरकार हो सकती है। बिहार की स्थिति पर आज कोई भाष्य करना जल्दबाजी होगी; लेकिन वर्तमान मुख्यमंत्री मांझी ने अपने ही नेता नीतिश कुमार को जो चुनौती दी है उससे उनकी पार्टी का संकट बढ़ गया है। मांझी महादलित वर्ग के हैं। बिहार में जातिगत समीकरण बहुत चलते रहे हैं, वैसे वे चुनाव के दौरान भी चलें तो नीतिश कुमार कहीं के नहीं रहेंगे ऐसी वर्तमान स्थिति है। नीतिश कुमार की लालू की पार्टी राजद व मुलायम सिंह की पार्टी सपा के साथ विलय की बातचीत ठप हो गई है। लालू तो वहां अब अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं और सपा को वहां बहुत लेना-देना नहीं है। इसलिए दिल्ली के नतीजों का वहां कोई विशेष प्रभाव फिलहाल दिखाई नहीं देता। महाराष्ट्र में भी लगभग वही स्थिति है। सत्ता में मिठास चखना शिवसेना की मजबूरी है। जब तक कोई भीषण राजनीतिक उठापटख न हो तब तक वहां भी कुछ होना नहीं है। शरद पवार आंख गड़ाए बैठे हैं और चुनाव किसी को नहीं चाहिए। बीच-बीच में दोनों पार्टियों के बीच ‘मैत्रीपूर्ण नोंकझोंक’ चलती रहेगी।

मो. ००९७१ ५६३ ६६२ ४२९

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