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लोकतंत्र की जीत

लोकतंत्र की जीत

by रमेश पतंगे
in मार्च २०१५, राजनीति
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दिल्ली के चुनाव आम आदमी पार्टी ने भारी बहुमत के साथजीते। कुल ७० सीटों में से उन्हें ६७ सीटें मिलीं। इस सफलता को लैंडस्लाइड व्हिक्ट्री अर्थात बेतहाशा सफलता कहा जाता है। चुनावों में जिन्हें सफलता मिलती है वे प्रसन्न होते हैं और जिन्हें अफलता मिलती है वे दुखी होते हैं। भाजपा के समर्थक और नेता आज दुखी हैं। इस चुनाव में भाजपा को इतनी करारी हार का सामना करना पड़ेगा यह उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा। सन २०१४ के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने दिल्ली की सारी सीटें जीती थीं। ६१ विधानसभा क्षेत्रों पर उन्होंने बढ़त हासिल की थी। २०१३ के चुनावों में भाजपा को ३२ सीटें मिली थीं और ‘आप’ को २८ सीटें मिली थीं। २०१५ के चुनावों में भाजपा को केवल ३ सीटें मिलीं और ‘आप’ को ६७ सीटें मिलीं। २०१४ के लोकसभा चुनावों में भाजपा को ४६% मत मिले थे और अब ३२% मिले हैं। ‘आप’ को ५४% मत मिले थे। २०१३ के चुनावों में भाजपा को ३३% मत मिले थे। भाजपा के मतों के प्रतिशत में केवल १% का अंतर हुआ है और सीटों की संख्या ३२ की जगह ३ हो गई।
ऐसा नहीं है कि चुनावों में यह चमत्कार पहली बार हो रहा है। आंध्र प्रदेश में एन.टी. रामाराव ने सन १९८३ में ऐसा चमत्कार किया और तेलगु देसम पार्टी का उदय हुआ। सन २००७ में मायावती ने उत्तर प्रदेश में यह चमत्कार किया और हाल ही में ममता बैनर्जी ने बंगाल में यह चमत्कार किया। इसका राजनैतिक अर्थ देखा जाए तो कहा जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र अब परिपक्व हो रहा है। भारतीय मतदाता हमेशा किसी एक व्यक्ति या पार्टी के पीछे जाने के लिए तैयार नहीं है। उसे बदलाव चाहिए। वह यह समझ गया है कि बदलाव लाने की शक्ति उसके वोट में है। अत: दिल्ली में ‘आप’ की जीत सही अर्थों में लोकतंत्र की जीत है। इस विजय का मन:पूर्वक स्वागत करना चाहिए।
ऐसे चुनावों में जिस दल की हार होती है उसके बारे में विरोधी दल के नेता अपने मत व्यक्त करते हैं। ये मत राजनैतिक होने के कारण और कई मायनों में संकुचित होने के कारण इन पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता नहीं होती। उदाहरण के लिए ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक कहते हैं ‘आप के रूप में भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प खड़ा होगा।‘ ममता बैनर्जी कहती हैं कि (औधत्य ??) और राजनैतिक बदले की भावना का पराजय हुआ है|़’ कांग्रस के नेता कहते हैं कि ‘ हमें इस बात का कोई दुख नहीं है कि हमें एक भी सीट नहीं मिली क्योंकि हम प्रतियोगिता में ही नहीं थे, परंतु भाजपा केवल तीन ही सीटें मिलीं इस बात का हमें आनंद है।’ राजनैतिक विश्लेषण करते समय इन प्रतिक्रियाओं का कोई उपयोग नहीं होता है।
मुख्य मुद्दा यह है कि भाजपा की ऐसी हार क्यों हुई? मेरे हिसाब से इसके पांच कारण हैं। पहला कारण- भाजपा नेताओं को ने यह अंदाजा ही नहीं लगाया कि जनता के मन में क्या है। दूसरा कारण- भाजपा नेता अपने मतदाताओं को अपने पक्ष में मान कर चले थे। उन्होंने यह सोचा कि हमारे लिए संघ कार्यकर्ता कार्य करेंगे। उन्होंने सोचा जैसा महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड, जम्मू-कश्मीर में मतदान हुआ वैसा ही दिल्ली में भी होगा यह उन्होंने खुद ही सोच लिया। जब किसी धारणा की आदत लग जाती है तो अहंकार निर्माण होता है। नेता सोचने लगते हैं कहां जाएंगे? हमें ही मतदान करेंगे, हमारे लिए ही काम करेंगे। चौथा कारण- जब ऐसा लगने लगता है तो यह भावना निर्माण होती है कि हम जो करेंगे वही सही है। कार्यकर्ता और जनता को हमारी सुननी होगी। पांचवां कारण- ऐसी भावना निर्माण होने के कारण जमीन से जुड़े कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर निर्णय लिए जाते हैं। किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करना ऐसा ही एक निर्णय था। भाजपा को खड़ा करने में जिन्होंने अपने उम्र गुजार दी उन्हें दूर कर दिया गया और जो लोग ‘आप’ और कांग्रेस को छोडकर आए थे उन्हें टिकिट दिया गया। इस तरह का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और अपने ही घर के लोगों के साथ तुच्छता से बर्ताव करने की मनोवृत्ति तभी जागृत होती है जब सफलता सिर चढ़कर बोलती है।
भाजपा का पराभव होने के ये पांच कारण हैं। इसके अलावा रणनीतिक गलतियां भी भाजपा की हार का कारण बनी हैं। चुनाव एक प्रकार का युद्ध होता है। कुशल सेनापति उस रणक्षेत्र में युद्ध करता है जहां उसकी सुविधा हो। वह अपने विरोधी दलों को एकजुट नहीं होने देता। उनके आने के सारे रास्ते बंद कर देते हैं। दिल्ली के चुनावों में सबकुछ उल्टा हो गया। हरियाणा और कश्मीर के चुनावों के बाद अगर तुरंत चुनाव हुए होते तो परिणाम कुछ अलग होता। चुनावों के लिए नेता की आवश्यकता होती है। इस नेता का अपनी ही पार्टी का होना आवश्यक है। किसी अन्य पार्टी का नेता होने से काम नहीं चलता। भाजपा जैसी कार्यकर्ता आधारित पार्टी का नेता संघ की विचारधारा का होना आवश्यक है। संघ स्वयंसेवकों को वह मान्य होता है। बाहर के नेताओं पर संघ स्वयंसेवक कतई विश्वास नहीं करते। क्योंकि बाहर से आए नेता कब मौके का फायदा उठा लेंगे, कब दलबदल कर लेंगे इसका भरोसा नहीं होता। वैचारिक निष्ठा, पार्टी से निष्ठा इत्यादि से उनका कोई लेना-देना नहीं होता। स्वयं का स्वार्थ साधना ही उनका लक्ष्य होता है। केवल ‘स्व’ का विचार करनेवाला कोई भी व्यक्ति कितना भी बड़ा क्यों न हो वह संघ की विचारधारा में नहीं आता।
कांग्रेस और अन्य दल हर प्रकार के दांवपेंच करके भाजपा को हराने का प्रयत्न करेंगे, इसका आकलन भाजपा नेताओं को होना आवश्यक था। कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली यह आनंद का विषय नहीं है। कांग्रेस के सभी वोट ‘आप’ को मिले। वे कैसे मिले, कैसे जाने दिए गए, यह गंभीर रूप से चर्चा करने का विषय है। दिल्ली चुनावों में कांग्रेस को जीवित रखना रणनीति की दृष्टि से अत्यंत आवश्यक था। दिल्ली में १२% मुसलमान मतदाता हैं। उनमें से ७७% ने आप को मतदान किया। दलितों के ६८% वोट आप को मिले और ओबीसी के ६०% वोट भी ‘आप’ को ही मिले। इसका अर्थ यह हुआ कि समाज के दुर्बल घटकों ने भाजपा की ओर से अपना रुख मोडकर ‘आप’ की ओर कर लिया।
समाज के दुर्बल घटकों की अपेक्षाएं क्या हैं? क्या भाजपा कभी समझ पाएगी? समाज के गरीब और दुर्बल घटकों को बुलेट ट्रेन नहीं चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर का हवाईअड्डा नहीं चाहिए। केन्द्र सरकार का शाही समारोह नहीं चाहिए, महंगा सूट पहना प्रधान मंत्री नहीं चाहिए। उसे रहने के लिए छोटा सा घर चाहिए, आराम से सफर कर सके ऐसी बस सेवा चाहिए, पीने के लिए साफ पानी चाहिए। बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा चाहिए, उचित दर पर मिलने वाली स्वास्थ्य सेवाएं चाहिए। राजनेता जिस भारत की बात कर रहे हैं वह धनाढ्यों का भारत है। यह धनाढ्यों का भारत हवाई अड्डे पर एक कप कॉफी के लिए १२० रुपये देता है और झोपड़पट्टी में रहनेवाला, मजदूरी करनेवाला सामान्य आदमी ६ रुपए की कटिंग चाय पीने के लिए भी दस बार सोचता है।
अरविंद केजरीवाल और ‘आप’ ने समाज के इसी वर्ग की नस को पकड़ा है। कम से कम दिल्ली में तो यही हुआ है। रिक्षावाले, टपरीवाले, ठेलेवाले, रास्तों पर सामान बेचनेवाले फेरीवाले, दूधवाले, सफाई कर्मचारी इत्यादी को ‘आप’ अपना सा लगा। यह बुरा मानने वाली बात नहीं है। समाज के दुर्बल घटकों को अपनी सी लगनेवाली कोई पार्टी दिल्ली में उभरी है, यह अच्छी घटना है। सभी राजनैतिक पार्टियों को इससे सबक लेना चाहिए। दिल्ली में मतदाताओं ने धनाढ्यों और मध्यम वर्गीयों की राजनीति को नकार दिया है।

अब, क्या इसका असर पूरे देश पर होगा? क्या ‘आप’ अखिल भारतीय पार्टी बनेगी? इन प्रश्नों के उत्तर में कई किंतु परंतु हैं। जिन्हें चुनावों में सफलता मिलती है, उन पर जनता की अपेक्षाओं का बोझ होता है। केन्द्र में नरेंद्र मोदी के सिर पर यह बोझ है और अब दिल्ली में अरविंद केजरीवाल के सिर पर यह बोझ आ गया है। चुनावी दौर में मनचाहे आश्वासन दिए जा सकते हैं। चुनाव जीतने के बाद उन्हें पूरा करना पड़ता है। देश के संविधान, प्रशासन के नियम-कानून की चौखट में उन आश्वासनों को बिठाना पड़ता है। मनचाहे तरीके से कामकाज नहीं चलाया जा सकता। उसे कानून के अनुसार ही चलाना पड़ता है। अगर केजरीवाल यह कर पाए तो अखिल भारतीय स्तर पर उनकी प्रतिमा तैयार हो जाएगी। हर राज्य की राजनीति अलग होती है और जनमत भी अलग होता है। एक ही फार्मूला हर जगह नहीं चलता। महाराष्ट्र से सटे हुए गुजरात और मध्यप्रदेश में कई सालों से भाजपा का शासन है। उन राज्यों का फार्मूला महाराष्ट्र में लागू नहीं होगा। यह हमारा राजनैतिक स्वभाव है। अत: अरविंद केजरीवाल की सफलता का अत्यंत सूक्ष्म अर्थ निकालना खतरनाक हो सकता है।
दिल्ली की हार भाजपा के लिए सबक लेनेवाली होनी चाहिए। सफलता मद निर्माण करती है और अफलता आत्मचिंतन के लिए प्रेरित करती है। अनुभव के आधार पर भाजपा के ध्यान में आना आवश्यक था कि केजरीवाल के संबंध में नकारात्मक प्रचार महंगा पड़ सकता है। सन २०१४ में मोदी के विरोध में भी ऐसा ही प्रचार हुआ था। भारतीय मतदाता यह पसंद नहीं करते। भारतीय मतदाताओं को नम्र राजनेता पसंद हैं, घमंडी राजनेता नहीं। उसे अनुशासन पसंद है परंतु लादा हुआ अनुशासन नहीं। अनुशासन का पालन स्वयं करना होता है परंतु अनुशासन नियमों की चौखट में अमल में लाया जाता है। नियमों का गुलाम बनना भारत का स्वभाव नहीं है। नियम होने के कारण कोई व्रत नहीं करता। व्रत का पालन व्यक्ति स्वयं करता है। उपवास करने के दिन वह याद रखता है और स्वयं ही अपने खाने पर नियंत्रण रखता है, उस पर कोई बाहरी बंधन नहीं होता। भारतीय जनता को अनुशासन सिखाना चाहिए। उसे अनुशासन के बंधनों में बांधने का प्रयत्न नहीं करना चाहिए। अपनी भारतीय जनता के सालों से चले आ रहे मनोव्यापार का कवल भाजपा ही नहीं हर राजनैतिक पार्टी को मनन-चिंतन करना चाहिए। हस्तीदंती झरोखे में न बैठे। दिल्ली की जीत लोकतंत्र की जीत है। दुबारा यह बात कहते समय यह आशा करना गलत नहीं होगा कि यह जीत सभी राजनैतिक पार्टियों को आत्मचिंतन करने की ओर प्रवृत्त करेगी।
मो. : ९८६९२०६१०१
Tags: hindi vivekhindi vivek magazinepolitics as usualpolitics dailypolitics lifepolitics nationpolitics newspolitics nowpolitics today

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