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उत्तर प्रदेश विजय के दो चाणक्य

by रामेन्द्र सिन्हा
in गौरवान्वित उत्तर प्रदेश विशेषांक - सितम्बर २०१७, राजनीति
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उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा की शानदार फतह के पीछे केंद्र सरकार की नीतियों की सफलता, अमित शाह की कुशल चुनावी रणनीति और जनता की इच्छा के साथ प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का सिर चढ़ता जादू भी है। इस तरह इन दोनों को उत्तर पद्रेश की जीत के चाणक्य कहा जा सकता है।

मैं उत्तर प्रदेश की जनता को हृदय से धन्यवाद देता हूं यह भाजपा के लिए एक ऐतिहासिक विजय है; विकास और सुशासन के लिए एक जीत, उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव परिणाम पर प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी की यह त्वरित प्रतिक्रिया ट्विटर पर आई थी। सच पूछिए तो इन्हीं दो मुद्दों पर भाजपा की २०१७ की चुनावी विजय गाथा लिखी भी गई। जनता विकास के पक्ष में और अराजकता तथा भ्रष्टाचार के विरूद्ध जाति-धर्म, परिवार, क्षेत्र से ऊपर उठ कर एकजुट हो गई और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष ताकतों का सांप्रदायिकता विरोध का नारा फुस्स हो गया। मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया कि आज की राजनीति के सब से बड़े चाणक्य वही हैं।

प्रधान मंत्री मोदी ही एक बार फिर बने अमित शाह का अजेय रणनीतिक चुनावी चेहरा। प्रदेश के लिए मुख्यमंत्री का कोई चेहरा घोषित किए बिना भाजपा ने चुनाव लड़ा। मोदी को उत्तर प्रदेश के दत्तक पुत्र के रूप में स्वीकार करते हुए मतदाताओं ने भ्रष्टाचार के खिलाफ नोटबंदी के आर्थिक सुधार जैसे क्रांतिकारी कदम और शासन की राजनीतिक स्थिरता के पक्ष में अपनी मुहर लगा दी। जबकि तत्कालीन मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने नोटबंदी का विरोध करते हुए प्रदेश का सबसे बेहतर विकास करने का दावा किया था, और दूसरी ओर प्रदेश में जनाधार खो चुकी कांग्रेस के साथ गठबंधन करते हुए मोदी की नीतियों पर हमला बोला, जो उप्र के मतदाताओं को रास नहीं आया।

अखिलेश सरकार के शासनकाल में हुए मुजफ्फरनगर, शामली और भट्टा-परसौल के दंगे और हिंसा, मथुरा का गुलाब बाग कांड ने तत्कालीन प्रदेश सरकार के खिलाफ आग में घी का काम किया। इससे भी बुरा हुआ बहुजन समाज पार्टी का हश्र। पार्टी सुप्रीमो मायावती के २००७-१२ के शासन काल में जनता के पैसे से अंधाधुंध पार्कों और स्टैच्यू निर्माण की टीस अभी बाकी थी। सपा-बसपा दोनों की जाति और धर्म के नाम पर वोट की राजनीति से भी एक बड़ा तबका उबा हुआ था। उधर कांग्रेस तो सक्षम नेतृत्व के अभाव में हाशिये पर थी ही। इसे चाहे मोदी-करिश्मा कहें या भगवा लहर, गुंडा राज और भ्रष्टाचार से मुक्ति तथा विकास और सुशासन के भाजपाई नारे के आगे अन्य दलों के सारे नारे और वादे धराशायी हो गए।
सन् २०१४ के आम चुनाव के मुकाबले, भाजपा का मतों का प्रतिशत कुछ कम हुआ परंतु उसने ३९.७ प्रतिशत मत प्राप्त कर ८० प्रतिशत से अधिक विधान सभा सीटें जीत लीं। २०१४ में भाजपा को ३१ प्रतिशत मत और करीब ६० प्रतिशत लोकसभा सीटें मिली थीं। उस समय मुद्दा था अच्छे दिन लाने और गुजरात के विकास के मॉडल को पूरे देश में लागू करने का आश्वासन। २०१४ की विजय के दो मुख्य आधार थे-पहला, कार्पोरेट घरानों का समर्थन और दूसरा, आरएसएस के कार्यकर्ता। इन दोनों का समर्थन मोदी को इस बार भी हासिल था और अपने सुसंगठित प्रचार तंत्र के ज़रिए भाजपा और संघ परिवार ने कई अन्य मुद्दों का इस्तेमाल भी वोट बटोरने के लिए किया। वे यह समझाने में सफल रहे कि नोटबंदी से आतंकियों को उनके पास जमा करोड़ों रूपयों के नोट जलाने पड़े। जनधन खातों में कालाधन जमा कराने की होड़ लग गई। मोदी ने शुरूआत में सांप्रदायिक भाषा का इस्तेमाल नहीं किया परंतु बाद में उन्होंने भी घोर सांप्रदायिक जुमले उछालने शुरू कर दिए, जिनमें कब्रिस्तान-श्मशान और दिवाली तथा ईद पर बिजली की आपूर्ति जैसे मुद्दे शामिल थे। नतीजा, भारी संख्या में गैर-यादव ओबीसी व गैर-जाटव दलितों ने भाजपा का साथ दिया। भाजपा वहां भी जीती जहां मुस्लिम बहुल आबादी थी, जबकि एक भी सीट पर किसी मुस्लिम प्रत्याशी को टिकट नहीं दिया।

कई विशेषज्ञों का आकलन है कि सामान्य तौर पर भाजपा को अपना समर्थन नहीं देने वाले मुसलमान मतदाता बसपा और सपा गठबंधन के बीच बंट गए। इस कारण भाजपा को ज्यादा सीटें मिलीं। भाजपा ने कुर्मियों और राजभर जैसे छोटे जाति समूहों से गठबंधन किया। दूसरी ओर विपक्ष की सब से बड़ी असफलता रही, उसका एक न हो पाना। यहां तक कि कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने स्वीकार तक किया कि अकेले कांग्रेस नरेंद्र मोदी के चमत्कारी नेतृत्व वाली भाजपा का मुकाबला नहीं कर सकती। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तो हाल ही में यहां तक कह दिया कि २०१९ के आम चुनाव में भी मोदी का कोई विकल्प नहीं है।

दरअसल जब अखिलेश यादव और राहुल गांधी ने सपा-कांग्रेस गठबंधन की घोषणा की तो यह कयास लगाए जाने लगे कि कहीं बिहार के महागठबंधन जैसा कोई नतीजा तो नहीं आएगा। कहा गया कि अखिलेश और नीतीश की छवि एक जैसी विकास पुरूष वाली है। अखिलेश ने राजमार्ग बनवाया, लैपटॉप बांटे, मेट्रो रेल इत्यादि दिए। यह भी कहा गया कि कांग्रेस के साथ गठबंधन से मुस्लिम वोटों का ध्रुवीकरण होगा, राहुल गांधी अगड़ी जातियों के वोट साध लेंगे। लेकिन बिहार के उलट कांग्रेस सपा को भी ले डूबी। यह सब इसलिए हुआ कि एक तो सपा-कांग्रेस के बीच गठबंघन तो हुआ पर वह केवल सीटों के बंटवारे तक ही सीमित रह गया, परस्पर जमीनी स्तर पर दोनों दलों के कार्यकर्ताओं में कोई केमिस्ट्री थी ही नहीं। दूसरे, पारिवारिक कलह से जूझ कर चुनावी मोर्चे पर लड़ रही सपा के जनक मुलायम सिंह यादव तक कांग्रेस से गठबंधन के खिलाफ थे। माना जाता है कि कांग्रेस के वोट सपा को मिले भी नहीं।

सच यही है कि भाजपा के शानदार उत्तर प्रदेश फतह के पीछे केंद्र सरकार की नीतियों की सफलता, अमित शाह की कुशल चुनावी रणनीति और जनता की इच्छा के साथ प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी का सिर चढ़ता जादू भी है। वह जादू जो २०१४ के लोकसभा चुनाव में जनता के सिर चढ़ा था, जब भाजपा और उसके सहयोगी अपना दल ने ८० में से ७३ सीटें जीत ली थीं। विधान सभा चुनाव के दौरान लगभग सभी चुनाव पूर्व और पश्चात सर्वेक्षणों में यह बात साफ हुई थी कि प्रदेश के मतदाताओं में मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ अभी भी उतना ही ऊपर है। एक तरफ भाजपा ने मुख्यमंत्री पद के लिए कोई नाम नहीं घोषित किया, दूसरी ओर अधिकतर सर्वेक्षणों में मुख्यमंत्री पद के लिए सब से लोकप्रिय उम्मीदवार माने जा रहे अखिलेश यादव को मोदी के आगे मुंह की खानी पड़ी। अखिलेश यादव के खिलाफ एंटी-इंकमबैंसी काम कर गई जबकि तब तीन साल पूरा करने करने जा रहे प्रधान मंत्री मोदी का जादू मतदाताओं के सिर चढ़ कर बोलता रहा।

भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी के चुनाव प्रबंधकों ने मोदी की लोकप्रियता को भांपते हुए प्रधान मंत्री की शुरुआती १० रैलियों को लगभग ३० रैलियों में रि-प्लान कर दिया। यहां तक कि मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में उनके तीन दिन के तूफानी प्रवास ने पूर्वी उत्तर प्रदेश में विपक्ष की चूलें हिलाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी।

उधर, केंद्र सरकार के नोटबंदी के फैसले को जहां प्रधान मंत्री मोदी और भाजपा ने चुनावी ट्रंप कार्ड की तरह इस्तेमाल किया; वहीं विपक्ष इसे अर्थव्यवस्था, आम आदमी और व्यवसायियों के खिलाफ बता कर प्रलाप करता रहा। विपक्ष के लिए नोटबंदी रूपी राक्षस ने मोदी और भाजपा को निगलने की बजाय उन्हीं को निगल लिया। कृषि बहुल जनसंख्या वाले देश के सब से बड़े प्रदेश में जहां से काफी संख्या में मजदूर अन्य राज्यों में काम के लिए जाते हैं, जिनके बारे में चर्चा थी कि नोटबंदी में वे बहुत प्रभावित हुए और चुनाव में भाजपा को सबक सिखाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। पाकिस्तान में भारतीय सेना द्वारा किए गए सर्जिकल स्ट्राइक को भी भुनाने में भाजपा सफल रही, उसने केंद्र सरकार के तेवरों का खूब बखान किया जबकि विपक्ष का क्या-क्यों वाला रवैया देशभक्ति के आगे आम जनता के गले के नीचे नहीं उतरा।

मोदी मैजिक के साथ ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग की अचूक चुनावी रणनीति का ही परिणाम था कि भाजपा प्रदेश में व्यापक जातिगत ध्रुवीकरण में सफल हुई। एक तरफ केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाया तो दूसरी ओर बसपा से आए स्वामी प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करने से भी बचे। शाह ने बड़ी चतुराई से उत्तर प्रदेश के चुनाव को सपा के मुस्लिम-यादव गठजोड़ और बसपा के जाटव बनाम अन्य जातियों में तब्दील कर दिया, जो भाजपा समर्थक समझे जाते थे। भाजपा ने इसी रणनीति से लगभग १५० सीटों पर गैर-यादव पिछड़ी जातियों को चुनावी मैदान में उतार दिया। यही नहीं अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी जैसे छोटे क्षेत्रीय दलों से गठबंधन कर पटेल, कुर्मी और राजभर जैसी गैर-यादव पिछड़ी जातियों को भी रिझा लिया। उधर, सपा और बसपा दोनों अपने जातिगत वोटर आधार के साथ मुस्लिम वोटरों के एकतरफा झुकाव की कोशिश करते रहे। मायवती ने तो मुस्लिम वोट बैंक को रिझाने की कोशिश में लगभग १०० टिकट उन्हें दे दिए थे। लेकिन भाजपा ने तीन तलाक के मुद्दे पर इस वोट बैंक में भी सेंध लगा दी। नतीजतन, मुस्लिम महिलाओं ने जम कर कमल का बटन दबाया। उत्तर प्रदेश की पिछली विधान सभा में मुसलमान विधायकों की संख्या ८६ थी। अब यह घटकर २४ रह गई है। भाजपा ने केवल जीतने वाले प्रत्याशियों पर फोकस किया। इसलिए अन्य दलों से ‘आयाराम’ से परहेज नहीं किया। पार्टी भाजपाई दावेदारों की अपेक्षा दूसरे दल से आए लगभग १०० उन नेताओं को टिकट देने से नहीं हिचकी जिनके जीतने की प्रबल संभवनाएं थीं।

दरअसल भाजपा ने बिहार विधान सभा चुनाव से सबक लेकर फूंक-फूंक कर कदम उठाया। बिहार की तरह मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया जबकि केशव प्रसाद मौर्या, मनोज सिन्हा, योगी आदित्यनाथ समेत कई नाम जबरदस्त चर्चा में थे। इस तरह पूरी लड़ाई अखिलेश यादव बनाम मोदी में तब्दील हो गई। लेकिन भाजपा ने चुनाव प्रचार में इनका इस्तेमाल अन्य स्टार प्रचारकों के साथ सातों चरणों का ध्यान रख कर किया। सपा-कांग्रेस की ओर से अखिलेश मुख्य चुनाव प्रचारक थे। राहुल गांधी और अखिलेश की पत्नी डिंपल यादव सहायक प्रचारक की भूमिका में थे। प्रियंका गांधी जो स्टार प्रचारक हो सकती थीं, केवल कुछ रैलियों तक ही सीमित रहीं।

चार सौ से ज्यादा विधान सभा सीटों और १४ करोड़ से ज्यादा मतदाताओं वाले उत्तर प्रदेश में तीन चौथाई सीटें जीतना किसी के लिए भी एक असाधारण राजनीतिक उपलब्धि है। उत्तर प्रदेश में आखिरी बार ऐसा चार दशक पहले हुआ था। तब आपातकाल के बाद जनता गठबंधन की सुनामी इंदिरा गांधी की अभिमानी सरकार को बहा ले गई थी। इसलिए, जब नरेंद्र मोदी ने प्रधान मंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल के मध्य में भारतीय जनता पार्टी को यूपी में वैसी ही जीत दिलाई, तब लोगों को यह किसी चमत्कार से कम नहीं लगा। इसने साबित कर दिया कि इस समय भारतीय राजनीति में मोदी जैसा कोई और नहीं है। अगर कुछ अप्रत्याशित नहीं घटा, तो २०१९ के आम चुनावों के लिए मोदी एक बार फिर भाजपा का परचम लहराएंगे इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।

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