ड्रैगन से शांति कब तक?

चीन पूरे एशिया पर अपनी धाक बनाए रखने के लिए भारत को दूसरा फौजी सबक सिखाना चाहता है। आए दिन चीन की ओर से किसी न किसी सैनिकी कार्रवाई की खबर सुनाई देती रहती है। डोकलाम पर फिलहाल समझौता हो गया है, लेकिन यह शांति कब तक चलेगी?
चीन भारत-भूटान-चीन के त्रिकोणीय जंक्शन के पास डोकलाम पर यथास्थिति को खतरनाक तरीके से बदलने पर क्यों आमादा था? सैन्य इतिहासकार इस प्रश्न के परिपे्रक्ष्य में द्वितीय भारत चीन युद्ध की आहट पा रहे हैं। इसके तमाम कारण भी हैं।
* चीनी वेस्टर्न थियेटर कमान (‘थिएटर कमान’ फौजी क्षेत्र की अंग्रेजी शब्दावली है, जिसका अर्थ है सेना के तीनों अंगों- जल, थल और वायु- किसी संवेदनशील विशिष्ट क्षेत्र में एक ही कमांडर के मातहत होना, ताकि फौजी कार्रवाई अविलम्ब हो सके। इसे हिन्दी में ‘एकात्मिक फौजी कमान’ भी कहा जाता है। ) की स्थापना १ फरवरी २०१६ को हुई थी। इसके तहत सात सैन्य प्रभागों का पांच सैन्य थियेटर कमानों में पुनर्गठन किया गया। इसके एक अंग के रूप में भूतपूर्व लैंजहोड और चेंगदु सैन्य डिवीजनों को भारत केंद्रित थियेटर कमान में एकीकृत कर दिया गया, जिसमें हिंद महासागर क्षेत्र को शामिल किया गया। जन. झोउ झोंगक्वी को उसका थियेटर कमांडर नियुक्त किया गया। वह चीनी सेना के उन अंतिम अफसरों में एक है जिसे प्रत्यक्ष युद्ध का अनुभव था। वह १९७९ के चीन-वियतनाम युद्ध में प्रत्यक्ष मोर्चे पर कप्तान के रूप में तैनात रह चुका था। वह धाराप्रवाह अरबी बोलता था तथा ज्यादातर समय तिब्बत में तैनात था। वह तिब्बत में २० वर्ष तक (१९८४-२००४) तक तिब्बती सैन्य इलाके का उपप्रमुख तथा बाद में प्रमुख के तौर पर काम कर चुका था। इस तरह वह पहाड़ी इलाके से भलीभांति परिचित था तथा भारत के साथ अचानक मुठभेड़ या प्रदीर्घ युद्ध की स्थिति के बारे में वह अच्छी जानकारी रखता था। भारतीयों का वह बेहद तिरस्कार करता था। चीन की पी.एल.ए. (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) ने १९६२ में भारत को बुरी तरह मात दी थी। उसका मत था कि भारतीयों की शांतिप्रियता और वहां नागरिक शासन हावी होने सेे सुसंगत सामरिक सोच में वे निकम्मे हैं। वे पिछले ३० सालों से पाकिस्तान द्वारा थोपे गए विषम युद्ध को झेल रहे हैं। वे किसी भी प्रकार की जवाबी कार्रवाई में निष्फल रहे हैं। वह सोचता था कि यदि चीन के साथ संघर्ष की बारी आई तो भारतीय नेता पस्त हो जाएंगे। उसने भारत की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति के सम्बंध में दस्तावेज २.० (इसे अंग्रेजी में ‘नान-एलाइंड-२.०’ दस्तावेज कहा जाता है।) पढ़ा और जोरदार ठहाका लगाया, ‘देखिए भारतीय चीनी फौजी ताकत से कितने डरे हुए हैं।’ लेकिन अब भारत में मोदी का राज आया है, ‘कल का छोकरा’ तेजतर्रारी दिखा रहा है, जिसे अब कुचलना ही होगा। भारत अमेरिका, जापान और विएतनाम से हद से ज्यादा रिश्ते बढ़ा कर चीन को चुनौती दे रहा है। माओ ने सच कहा था कि १९६२ के युद्ध से अगले ३० वर्षों तक क्षेत्र में शांति रहेगी। यह अवधि अब बीत चुकी है। उस युद्ध की सीख अब दुबारा देने का समय आ गया है। जनरल झोउ झोंगक्वी कुछ इस प्रकार सोचता था।
* अतः भारत को सबक सिखाने (चीनी भाषा में- ला दंग-दा तंग) के लिए किसी क्षेत्र में अचानक और तेज युद्ध करने की नौबत आ जाए तो किस क्षेत्र में बेहतर परिणाम प्राप्त होंगे? चीन ने इसी इरादे से चीन-सिक्क्मि- भूटान त्रिकोण के मिलन-बिंदु को चुना। क्योंकि, चुम्बी घाटी से भारत के सिलीगुड़ी गलियारे पर सीधे प्रहार हो सकता है। यह गलियारा महज १७ किमी चौड़ा है और उसे अवरुद्ध करने पर भारत संकट में पड़ सकता है।
* झोउ जैसे ही पश्चिमी थियेटर कमान का प्रमुख बना उसने भारत को दुबारा सबक सिखाने के लिए अल्प किंतु तीव्र और अचानक युद्ध की योजना बनानी शुरू कर दी। डोकलाम पठार पर तेजी से आक्रामक रवैया अपनाने का यही कारण था। यह भूटान का इलाका है। क्या भूटान ऐसी स्थिति में चीन का सामना कर सकता है? जिन्होंने २.० की गुटनिरपेक्ष नीति बनाई थी क्या वे तीसरे देश में जाकर चीन का सामना करने की जुर्रत कर सकते थे? झोउ को लगता था कि ऐसा कुछ नहीं होगा।
* ऐसा हमला कब किया जाए? झोउ ने इस पर फौजी और राजनीतिक नेताओं से अनौपचारिक विचार-विमर्श किया। उसकी राय थी कि भारत सरकार इस समय अत्यधिक केंद्रिकृत हो गई है- इतनी कि मंत्रालयों एवं सरकार के अन्य विभागों ने स्वयं पहल करना ही बंद कर दिया है। हर चीज प्रधानमंत्री कार्यालय के नियंत्रण में है। अतः संघर्ष उपस्थित करने का सही समय वही होगा जब भारत के प्रधानमंत्री अपने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के साथ वाशिंगटन में राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प से गुफ्तगू कर रहे हो। भारत का अंशकालीन रक्षा मंत्री है। हर कोई वाशिंगटन की ओर देखेगा अथवा प्रधानमंत्री के लौटने का इंतजार करेगा। इतनी अवधि में डोकलाम में सड़क का कार्य पूरा हो जाएगा और इस तरह अपना मतलब साध लेंगे। केवल अंतिम ३ किमी का बनना रह जाएगा।
* फिर गलती कहां हो गई? भूटान ने आश्चर्यजनक रूप से सख्त रुख अपनाया और उतने ही आश्चर्यजनक ढंग से भारत ने भी अपने सैनिक डोकलाम में भेज दिए ताकि चीन का सड़क निर्माण सीधे रुकवाया जा सके। भारतीय फौज जान गई कि यदि यह सड़क चीन बनाता है तो पूर्वोत्तर भारत से हमारी संचार-व्यवस्था खतरे में पड़ जाएगी। चीनी तत्परता से आगे बढ़े। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के पूरे विश्वास के साथ सेना प्रमुख बिपिन रावत ने निर्णायक तरीके से आगे ब़ढ़ने की ठान ली। भारतीय सैनिकों को अपने भूटानी मित्रों की सहायता के लिए भेजा गया। उन्होंने खुद चीनी फौज का सड़क निर्माण रुकवा दिया और जम्पेरी पर्वत शृंखला को चीनी कब्जे में जाने से बचा लिया। भारत ने गंगटोक से डोकलाम पहुंचने वाले दोनों मार्गों- थेगुशेरतांग-नाथुला-कुपुप और रंगपो-झेलुक-कुपुप का उपयोग कर वहां सेना तैनात कर दी। टुकड़ियों की संख्या भी तिगुनी कर दी गई और पर्वत श्रृंखला के ऊंचाई के स्थानों पर सैनिक काबिज हो गए। थल सैनिकों के साथ तोपखाना और टैंक भी पहुंचा दिए गए।
* भारत की ओर की गई इस अचानक और अनपेक्षित कार्रवाई से जन. झोउ पूरी तरह सकते में आ गए। उनकी अपनी फौज भी युद्धक स्थिति में आने के लिए जूझ रही थी। वहां तो बड़ी अफरातफरी चल रही थी और ऐसा समय किसी बड़े हमले के लिए अनुकूल नहीं हो सकता था।
* सूचना/मनो युद्धः झोउ की तो नाक ही कट गई। भारतीय कार्रवाई से वह भौचक रह गया। दक्षिण चीन सागर में फिलिपीनियों पर दक्षिण थियेटर कमान के प्रमुख जनरल वांग जियोछेंग ने इसी तरह धौंस जमाई थी और बाद में उसे मुंह की खानी पड़ी। इधर, भूटान ने तत्परता से भारत से सहायता मांगी और भारत ने फौरन दी भी। झोउ की सनक अब खत्म हो चुकी थी। उन्होंने राष्ट्रपति शी जिनपिंग को सलाह दी कि सूचनाओं के जरिए मनोयुद्ध आरंभ किया जाए ताकि भारतीयों का मनोबल तोड़ा जा सके। इसके लिए अपने पिट्ठू मीडिया और राजनयिक माध्यमों के जरिए हमले किए गए। सब से पहले नाथु ला के जरिए होने वाली मानसरोवर यात्रा रोकी गई। बाद में ग्लोबल टाइम्स एवं अन्य पत्रों के जरिए भारत को भारी फौजी परिणामों की चेतावनियां दी गईं। इसके बाद मीडिया को तिब्बत में हुए युद्धाभ्यास की एक माह पुरानी क्लिपिंग मुहैया कराई गई। पेईचिंग में प्रेस सम्मेलन कर तिब्बत में चीनी हल्के टैंकों के प्रयोग के बारे में जानबूझकर सवाल करवाए गए। अन्य मीडिया खबरों में दो ब्रिगेडों के उत्तरी तिब्बत में युद्धाभ्यास और वहां हजारों टन गोलाबारुद जमा किए जाने की जानकारी प्रसारित की गई। इससे पाकिस्तान के साथ नियंत्रण रेखा पर होने वाले छिटपुट झगड़ों या आपरेशन पराक्रम की याद ताजा हो गई। शायद पाकिस्तान ने चीन से कहा होगा कि जम्मू-कश्मीर में नियंत्रण रेखा पर भारत ने जिस तरह दबाव बना रखा है उसे रोकने के लिए चीन डोकलाम में फौजी दबाव बढ़ा दें।
* हवाबाजीः भारतीय फौज ने जान लिया कि यह महज हवाबाजी है। वास्तव में इस सेक्टर में चीनी फौज की प्रत्यक्ष कोई हलचल नहीं है। लेकिन भारतीय फौज ने कोई कोताही नहीं बरती। इस सेक्टर में बड़े पैमाने पर फौजी दस्तों का आनाजाना शुरू हो गया। अपनी रक्षापंक्ति मजबूत की गई और ये भी खबरें हैं कि भारतीय फौज ने वहां जमीन में बारुदी सुरंगें बिछा दीं। यह सेक्टर बहुत संवेदनशील है और पीछे हटने का प्रश्न ही नहीं था। कार्यवाहक रक्षा मंत्री ने तब सीना तान कर कहा था कि १९६२ और २०१७ में बहुत अंतर है। लगता है, इससे चीनियों के होश ठिकाने आ गए। तब तक प्रधानमंत्री स्वदेश लौट चुके थे। विदेश मंत्रालय में बड़ी दौड़धूप चल रही थी। उसे संकट से निपटने का जिम्मा सौंपा गया था। विदेश मंत्रालय चीन को दोषी करार देने की अपेक्षा उन्हें प्रतिष्ठा के साथ लौटने का मौका देना चाहता था। चूंकि अभी हम रक्षा क्षेत्र में आधुनिकीकरण के दौर से गुजर रहे हैं इसलिए इस समय यही (दृढ़ किंतु सतर्क) बेहतर नीति थी। इससे कहीं ऐसा लगता था कि हम शायद कुछ अधिक ही संकोची या क्षमाशील हो गए हैं। लिहाजा, सारे एशिया की इस पर बारीकी से नजर थी और भारत को इतना संकोची होने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अतः पेईचिंग में होने वाले ब्रिक्स शिखर सम्मेलन और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की बैठकों पर उम्मीदें टिकी थीं। आरंभ में ऐसा लगा कि चीन कुछ नर्म पड़ रहे हैं लेकिन बाद में वे पुनः कड़ाई पर उतर आए।
* युद्ध की ओरः आखिर सीमा पर युद्ध की स्थिति क्यों पैदा हो गई? इसके कई कारण हैं। एक कारण तो यह है कि इस वर्ष नवम्बर में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का ५०वां खुला अधिवेशन हो रहा है। इसके पूर्व, राष्ट्रपति शी जिनपिंग सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत बनाना चाहते हैं। उन्होंने पार्टी के दो उपाध्यक्षों- जनरल शू काईहाउ और जनरल बोसियांग को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त कर दिया है। उन्होंने अपने संभावित प्रतिद्वंद्वी सून शेंगकाई को गिरफ्तार करवाया है। इससे पार्टी और फौज दोनों के भीतर अंदरुनी रोष पनप रहा है।
चीनियों में यह तीव्र भावना है कि भारत हद से ज्यादा बढ़ रहा है और पूरे एशिया पर अपनी धाक बनाए रखने के लिए भारत को दूसरा फौजी सबक सिखाना ही पड़ेगा। क्या भारत-चीन सीमा पर शांति बनी रहेगी या जल्द ही पुनः भारत चीन आमने-सामने होंगे? चीन पर कितना भरोसा किया जा सकता है? चीन भी भारत की बढ़ती ताकत को कमतर क्यों आंकेगा?

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