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कागज पर हस्ताक्षर

कागज पर हस्ताक्षर

by राजेन्द्र परदेसी
in कहानी, नवम्बर २०१७
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दोनों को देख लोग कुछ कहें इसके पहले ही गौरव बोल पड़ा, ‘आज मैं और साक्षी कोर्ट में जाकर शादी के बंधन में बंध गए। हम पति-पत्नी आप सभी को डिनर पार्टी में आमंत्रित कर रहे हैं। विश्वास है आप सभी हम लोगों को आशीर्वाद देने रीगल होटल में जरूर आएंगे।’
हाथों की मेंहदी अभी छूटने भी नहीं पाई थी कि जिसने अग्नि को साक्षी मान कर उसका हाथ थामा था, उसे राह में भटकने के लिए बीच में छोड़ कर सदा-सदा के लिए दूर चला गया। हादसे से घायल साक्षी को सभी ने धैर्य रखने की सलाह तो दी पर कोई भी उसका हम सफर बनने को सामने नहीं आया।
प्रारंभ में जिन लोगों ने सहानुभूति दिखाई थी समय के साथ उनकी सोच में भी परिवर्तन साफ दिखने लगा। जो धैर्य रखने की सलाह देते थे वही उसके यौवन को लेकर चिंता प्रदर्शित करने लगे थे। सलाह देते इस तरह अकेले उम्र कैसे कटेगी। अभी तो पूरी उम्र ही सामने पड़ी हुई है। लोगों की बातें सुन उसे क्रोध आता पर कर भी क्या सकती थी। ऐसी सोच वालों को बस शालीनता की सीमा में रह कर कहती, ‘भगवान यही चाहता था तो क्या कर सकती हूं।’
अक्षत के जाने के बाद साक्षी अंदर से एकदम टूट गई थी। उस समय सोचने या कुछ निर्णय करने की क्षमता भी शेष नहीं बची थी पर धीरे-धीरे कुछ समय बीत गया तो उसने अपने अधिकारी से कह कर अपना स्थानांतरण लखनऊ से इलाहाबाद करवा लिया।
नए शहर और नई जगह में उसके अतीत और वर्तमान को लेकर पूछने वाले पुराने लोग भी नहीं रहे। जिसके कारण उसे मानसिक शांति की अनुभूति हो रही थी। हां, नई जगह में मकान तलाशने में परेशानी जरूर हुई जिसे उसके ही कार्यालय की महिला सहयोगी ने हल करवा दिया।
स्थान बदलने के साथ-साथ साक्षी के स्वभाव में भी काफी परिवर्तन आ गया। कहां पहले शोख और चंचल दिखने वाली अब एकदम शांत, दूसरों से केवल काम से काम तक का मतलब रखने वाली सहयोगी हो गई। परिणाम हुआ कार्यालय के अन्य सहकर्मियो ने स्वयं ही उससे दूरी बना ली तथा यदा-कदा मजाक में यह जरूर कहते, ‘इस कार्यालय में एक संन्यासनी की कमी थी। वह भी अब पूरी हो गई।’ यह सम्बोधन साक्षी के कानों तक न पहुंचता हो ऐसा तो था नहीं। पर वह कोई प्रतिक्रिया न देती बल्कि मन ही मन लोगों की सोच पर हंसती। ऐसा क्रम चल ही रहा था कि एक दिन उसके अधिकारी ने सीधे उसे ही फाइल के साथ अपने पास चपरासी से बुलवाया।
गौरव उसका अधिकारी था। उसे आफिस में आते-जाते देखती थी। पर उससे कभी सीधे संवाद करने का अवसर नहीं मिला था। इसलिए साक्षी मन ही मन सोचने लगी इन्होंने किस कारण मुझे ही फाइल के साथ बुलाया है। किसी ने मेरी कोई शिकायत तो नहीं की। अधिकांशत: फाइल चपरासी ही उनके पास लाता-जाता फिर आज क्या बात हो गई पर अधिकारी का आदेश तो पालन करना ही था।
फाइल के साथ साक्षी उनके सामने जाकर खड़ी हो गई और बोली, ‘सर, आपने फाइल मंगवाई थी। यह है, सर।’
फाइल को लेकर गौरव कुछ देर तक पढ़ता रहा फिर एक पत्र पर टिप्पणी लिख कर कहा- इस पत्र का जवाब अभी बना कर तुरंत मुख्यालय भिजवा दो। बहुत जरूरी था इसी कारण आपको व्यक्तिगत बुला कर कह रहा हूं। साथ ही संतुष्ट होने के लिए पूछा यह काम तुरंत हो जाएगा न्।’
‘जी सर, बिल्कुल हो जाएगा’ कह कर फाइल उठा कर लौटने लगी कि गौरव बोला- साक्षी जी, आप तो काम के प्रति गंभीर रहती हैं फिर आपके साथ काम करने वाले ऐसा क्यों कहते हैं?
‘क्या सर?’
‘आपको मालूम है, आपके सहकर्मियों ने आपको संन्यासिनी उपनाम दे रखा है।’
‘मालूम है सर’ साक्षी का उत्तर सुन कर गौरव को आश्चर्य हुआ। पूछा ऐसा क्यों कहते हैं? आप कार्यालय में भी पूजा-पाठ की बात करती हैं क्या?
‘नहीं सर’ साक्षी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया।
‘फिर क्या बात है?’
‘मैं अपने काम से अलग इन लोगों की बातों में सहभागी नहीं हो पाती हूं इसीलिए।’
‘ऐसे उपनाम देने के लिए लोगों को कुछ कहती नहीं क्या?’
‘कुछ गलत तो नहीं कहते हैं, फिर क्या कहूं सर यही कह कर लोगों को खुशी मिलती है तो उसी में खुश रहें। मेरा क्या लेते हैं!’ इतना कह कर फाइल के साथ अपने टेबल पर आकर फिर काम करने लगी।
काम के सिलसिले में सप्ताह में इस तरह गौरव और साक्षी का साक्षात्कार एक दो बार हो जाता। पर सदा बात फाइल के विषय पर केन्द्रित रहती इससे अलग कुछ न होता।
गौरव को इस कार्यालय का भार संभाले अब एक साल होने को था। कार्यालय का प्रमुख होने के कारण अपने अधीनस्थों की कार्यक्षमता, योग्यता और ईमानदारी की पूरी जानकारी प्राप्त ही कर चुका था। इससे भी अंजान नहीं था कि साक्षी एक विधवा और आत्मकेन्द्रित महिला है। जिसके कारण वह अपने मन की पीड़ा को किसी से व्यक्त नहीं करती पर अंदर की पीड़ा दबाने से कोई रास्ता नहीं निकलता बल्कि मानसिक कुंठा का और विकास ही होगा। कहने से करना कठिन होता है। लेकिन इस तरह जीवन की राह सहज नहीं होती। दर्द भले सब में न बांटे पर अपने किसी से बांट कर कुछ तो हल्का महसूस किया जा सकता है। साक्षी को लेकर अचानक गौरव इन्हीं विचारों में खोया था। उसे पता भी न चला कि साक्षी उसके सामने फाइल लेकर कब से खड़ी है। ध्यान तब टूटा जब उसने कहा- ‘सर…’
साक्षी की आवाज से जब गौरव का ध्यान भंग हुआ तो उसकी आंखें उसके चेहरे पर जा अटकीं। आज उसे वह सादे लिबास में अद्वितीय सुंदर लग रही थी। पल भर के लिए वह जैसे बिसर ही गया था कि वह अधिकारी और सामने खड़ी जिसे एकटक निहार रहा है, वह उसकी अधीनस्थ है। उसे अपलक नेत्रों से देखना साक्षी को असहज बना रहा था। इसलिए सवाल किया – ‘सर, ठीक तो हैं न।’
साक्षी का सवाल सुन कर गौरव को अपनी गलती का अहसास हुआ। तुरंत स्थिति को संभालते हुए बोला- ‘हां, सब ठीक है।’
‘फिर क्या सोच रहे थे सर, जो मुझे देख कर भी कुछ नहीं कहा…’
साक्षी कहीं कुछ गलत अर्थ न लगाए इसलिए वास्तविकता को छुपाते हुए बोला। छोटी बहन की याद आ रही थी। उसी के बारे में सोचने लगा। पता भी न चला तुम कब आई…।’ विषयांतर के उद्देश्य से फिर सवाल किया- ‘कैसे आई?’
फाइल को सामने रखते हुए कहा, ‘सर आज ही इस जवाब को मुख्यालय भेजना है। इसी के लिए आपका हस्ताक्षर लेने आई थी।’ कह कर फिर बोली, ‘आपकी बहन ठीक तो है न!’
‘हां।’
‘फिर क्या बात है, कोई संदेश भेजा है क्या?
‘नहीं, सोच रहा हूं, शादी के बाद से उससे मिलने एक बार भी नहीं गया। वह क्या सोचती होगी मेरे बारे में।’
‘सही बात आपको तो शादी के बाद एक बार उससे मिलने जरूर जाना चाहिए, जिससे उसके सुख-दुख को आप भी देख सकें कि वहां कैसी है? अगले शनिवार और रविवार को ऑफिस बंद रहेगा। आप जाकर देख सकते हैं।’
‘यह ठीक रहेगा। यहां से जौनपुर अधिक दूर भी नहीं है।’ कहने के साथ गौरव को अपने कर्तव्य का भी आभास हुआ। फाइल के कागज पर हस्ताक्षर कर बोला- ‘यह लीजिए। आज ही इसे मुख्यालय के लिए फैक्स करवा दें।’
पत्र को भिजवा कर साक्षी जब खाली हुई तो गौरव के व्यवहार को लेकर कुछ विचलित हुई। मंथन करने लगी। क्योंकि इसके पहले उसने कभी ऐसा व्यवहार नहीं दर्शाया था। कहीं इसके मन में कोई गलत विचार तो मेरे लिए नहीं पनप रहा। पर गौरव की शालीनता और हावभाव से ऐसा कुछ भी नहीं प्रतीत हो रहा था। उधर गौरव के हृदय में भी साक्षी को लेकर हलचल हो रही थी। उसके मन में उसके लिए अंकुर पनप् रहा था। पर साक्षी के मन में उसके लिए क्या है यह जाने बिना उससे मन की बात भी नहीं कर सकता।
अचानक एक दिन काम कम होने के कारण गौरव सहज हो साक्षी के संबंध में सोच ही रहा था कि वह स्वंय फाइल लेकर उसके सम्मुख उपस्थित हो गई। एक पल के लिए वह भी अचम्भित हो गया। जिसके बारे में सोच रहा था वही अचानक कैसे सामने आ गई। साक्षी कुछ बोले उससे पहले वह बोल पड़ा- ‘क्या काम है?’
‘सर, यह लेटर देख लें। इसका क्या जवाब भेजना है बता दें तो भेज दूं।’ कहते हुए साक्षी ने फाइल को उसके सामने रख दिया।
फाइल को देखा तो विशेष महत्व का पत्र नहीं था जिसका उत्तर तुरंत भेजना जरूरी हो, इसलिए साक्षी को सामने की कुर्सी पर बैठने का इशारा कर ध्यान बटाने के लिए फाइल के और कागज को देखता रहा और मन ही मन उससे कैसे अपने हृदय की बात बताये यही सोचते सोचते उसके मुख से निकला, ‘साक्षी जी क्या आप काम करते करते कभी बोर नहीं होती।’
‘क्यों सर?’
‘आपको कभी छुट्टी लेकर कहीं जाते नहीं देखा।’
‘छुट्टी लेकर कहां जाऊं सर, मां-पिता बचपन में ही छोड़ कर चले गए। भाई ने उसका फर्ज निभाते हुए मेरी शादी की पर उन्होंने भी साथ छोड़ दिया, फिर किसके पास जाऊं।’ बात करते-करते साक्षी की आंखों से आंसू बह निकले।
स्थिति की गंभीरता को देख गौरव ने बात की दिशा मोड़ी- ‘सॉरी, मुझे आपसे यह नहीं पूछना चाहिए था।’
‘कोई बात नहीं सर, आपने तो मेरी खुशी के लिए सब कहा।’
परिवेश में बदलाव महसूस कर गौरव ने मन की बात जो कई दिनों से उसे बैचैन कर रही थी अप्रत्यक्ष ढंग से प्रकट की- ‘मैं तो कभी कभी इन फाइलों को पढ़ते-पढ़ते इतना बोर हो जाता हूं कि दिल करता है कहीं ऐसी जगह जाकर सुकून से चाय पीया जाए जहां यह सब न हो’
‘विचार तो सुंदर है सर, फिर करते क्यों नहीं?’
‘क्या आप मेरा साथ देंगी?’ गौरव अंजाने और भावुकता में वह बोल गया जो उसे शायद कार्यालय में अपने अधीनस्थ से कभी नहीं करना चाहिए था।
गौरव की बात सुन कर साक्षी अचम्भित हो गई। उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि एक अधिकारी इस तरह का प्रस्ताव अपने महिला अधीनस्थ के सम्मुख रख सकता है। वह समझ नहीं पा रही थी कि गौरव ने क्या सोच कर उससे यह कहा, क्यों कहा, बात का कोई गलत अर्थ निकले इसके पहले ही वह परिहास के लहजे में बोली- ‘सर मुझे साथ लेकर चाय पीने जाएंगे तो आपकी मिसेज को मालूम होगा तो घर में घुसने नहीं देगी।
‘जब होगी तब न ऐसा करेंगी’
‘क्यों सर, कहां गई हैं?’
‘पिता के न रहने के बाद बहन और मां की जिम्मेदारी मेरे ऊपर ही थी। इसलिए अपना घर न बसाया। सोचा कि बहन की शादी हो जाए फिर सोचूंगा।’
गौरव अविवाहित है, यह जान कर साक्षी जो पहले उसकी बातों का कुछ और अर्थ लगा रही थी उसमें क्षण में बदलाव आ गया। उसके अंदर भी गौरव की बातों को लेकर मंथन होने लगा। उसके चेहरे पर कुछ भाव प्रकट हो उसके पहले ही फाइल गौरव के सामने से उठाते हुए बोली- ‘ठीक है मैं फाइल पढ़ कर जवाब तैयार करती हूं, आपकी स्वीकृती के लिए।’
फाइल लेकर साक्षी अपने टेबल पर आकर बैठ गई। बैठे-बैठे गौरव का उसे देखना और चाय पीने का प्रस्ताव करना उसके स्मृति पटल पर याद आने लगा। सभी को स्मरण कर उसका अर्थ तलाशते-तलाशते कब कार्यालय का समय समाप्त हो गया उसे पता ही न चला। उसकी निद्रा तब टूटी जब उसकी सहेली ने कहा- ‘आज घर नहीं जाना क्या?’
रात्रि में गौरव बिस्तर पर गया तो आज नींद नहीं आ रही थी। बार-बार उसके सम्मुख साक्षी खड़ी दिखती। बहन साथ थी तो समय का पता ही नहीं चलता था। रात दिन उसके लिए वर तलाशने की चिंता रहती थी पर आज साक्षी के अकेलेपन की सोचते-सोचते खुद का अकेलापन काटने लगा। यही सोचते-सोचते कब नींद आ गई पता भी न चला।
रात की बातें अभी भी गौरव को बेचैन कर रही थी। अचानक उसके मन में आया क्यों न साक्षी को ही अपनी जीवन संगिनी बना लूं। उसका भी अकेलापन छूट जाएगा। तभी मन में विचार उठा, अगर उसने मेरे प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया तो ऑफिस के लोग मेरे बारे में क्या सोचेंगे?
हफ्तों साक्षी को लेकर गौरव के मन में विचार मंथन होता रहा। अचानक उसने अपनी बात साक्षी को बताने के लिए एक योजना बना ही ली। एक दिन ऑफिस पहुंच कर चपरासी से साक्षी को पास बुलाने को कहा। चपरासी की बात सुन साक्षी को आश्चर्य हुआ कि अचानक ऐसी कौन सी बात हो गई कि साहब ने उसे ही सुबह-सुबह बुलाया। मन में अनेक अच्छे बुरे विचार उठते रहे क्योंकि वह इधर अनुभव कर रही थी कि गौरव किसी न किसी बहाने उसे अपने चैम्बर में बात करने के लिए बुलाता और उसकी आंखें मुझे घूरती नजर आतीं। पर था तो उसका अधिकारी इसलिए मना भी नहीं कर सकती थी। यही सब सोचते उसके कमरे में गई। जहां गौरव पहले से ही उसका इंतजार कर रहा था। साक्षी को देख कर वह कुछ बोलता कि उसके पहले ही बोली, ‘सर आपने मुझे बुलाया है?’
‘हां, पहले बैठिए फिर बताता हूं।’ साक्षी शंकित होते हुए बैठ गई तो गौरव ने कहा- आपसे आज एक व्यक्तिगत सहयोग चाहता हूं। गौरव की बात सुन साक्षी असमंजस में आ गई। कहीं कोई अमर्यादित चाह तो इसके मन में नहीं पनप रही है जिसके लिए मुझ से कहना चाहते हैं, बिना सुने या जाने फैसला संभव नहीं था। साहस कर बोली, ‘सर मैं किस लायक हूं जो आप मुझ से व्यक्तिगत सहयोग की चाह रखते हैं?’
‘मुझे पूरा विश्वास है आप अच्छी तरह सहयोग कर सकती है।’
गौरव की बातें साक्षी को भयभीत कर रही थीं तो दूसरी ओर यह भी डर सता रहा था कि उसकी बात न मानी तो नौकरी पर कोई दाग न लगा दे। साहस जुटा कर कहा- ‘कैसे सर?’
‘मैं चाहता हूं आप मेरे साथ मार्केट चलें।
‘किसलिए सर?’
‘वहां मेरी मदद करें।’
‘किस प्रकार की मदद सर?’, शंका दूर करने के लिए साक्षी ने सवाल किया तो गौरव बोला, ‘कल मैं अपनी छोटी बहन के पास जाने की सोच रहा हूं। चाहता हूं उसके लिए कपड़े भी लेता जाऊं।’ साथ ले जाने का कारण भी स्पष्ट किया -‘मैंने आज तक ऐसे कपड़े खरीदे नहीं हैं। इसलिए मेरा खरीदा उसे पसंद आए कि न आए। आपकी पसंद को वह जरूर पसंद करेगी।’
गौरव की बातों में बच्चों की तरह सच्चाई देख उसके विरुद्ध उसके मन में जो गलत विचार आ रहे थे वह समाप्त हो गए। पर साथ जाने से ऑफिस के लोग क्या सोचेंगे? वह तो सच्चाई को समझेंगे नहीं, उल्टा बात का बतंगड़ बनाकर चर्चा करने लगेंगे। इन्ही विचारों में उलझी वह निर्णय नहीं कर पा रही थी कि क्या करें कि गौरव पुन: बोला- ‘आपको असुविधा हो रही हो तो रहने दें, मैं स्वयं जाकर जो अच्छा लगेगा खरीद लूंगा।’
गौरव की भोलेपन से कही बातें साक्षी के मन को छू गईं। उसने किसी अज्ञात प्रेरणा से प्रेरित होकर कहा- ‘नहीं सर मैं चलती हूं आपके साथ। आलमिरा बंद कर आती हूं।’
गौरव और साक्षी को एक साथ गाड़ी पर बैठ कर जाते देख कार्यालय के सभी लोगों को आश्चर्य हो रहा था। लोगों के अंदर अनेक सवाल उठने लगे। कुछ के मुख से यह निकला कि, ‘आखिर साहब साक्षी के सौंदर्य से मोहित हो ही गए। बेचारे कुंवारे हैं। अकेलापन दूर करने के लिए किसी न किसी का साथ चाहिए ही। साक्षी से अच्छी और कौन मिलती!’ कार्यालय में दिन भर काम छोड़ कर यही चर्चा होती रही।
कपड़े की दुकान में पहुंच कर गौरव ने साड़ी दिखाने को कहा। वह दिखाने लगा तो सभी को साक्षी के सामने बढ़ाता हुआ बोला, ‘लीजिए आप इनमें से एक पसंद कर दें।’
साक्षी दुकानदार से अलग अलग रंग और डिजाइन की फरमाईश करती जाती, वह दिखाता रहता अंत में दो साड़ियां पसंद कर गौरव से कहा, ‘इन दोनों में से जो आपको पसंद है एक ले लें। मुझे ये दोनों अच्छी लगीं।’
साक्षी की सलाह पर गौरव ने एक साड़ी पैक करने को कहा तो दुकानदार ने दूसरी साड़ी के बारे में सलाह दी- ‘साहब यह भी ले लीजिए। मेम साहब के ऊपर बहुत अच्छी लगेगी।’
साक्षी को स्वयं के लिए मेम साहब संबोधन कुछ असहज लगा बोली- ‘नहीं साहब ने एक कहा है तो एक ही पैक करें।’
दुकानदार दूसरी साड़ी हटाने लगा तो गौरव ने कहा- ‘आप इसे भी अलग पैक कर दें।’
साड़ी का बिल पेमेंट कर साक्षी और गौरव फिर ऑफिस लौटने लगे। रास्ते में काफी की इच्छा हुई तो गौरव बोला- ‘साक्षी जी, क्यों न एक एक काफी हो जाए!’ इतना कह कर गाड़ी रोक कर काफी हाउस चला गया। दोनों का किसी अकेले स्थान पर एक साथ बैठने का पहला अवसर था। कई दिनों से साक्षी को लेकर गौरव के मन में जो उथल-पुथल चल रही थी उसे प्रकट करने का सुनहरा मौका देख वह बोला- ‘साक्षी, आप फिर से शादी कर गृहस्थी क्यों नहीं बसा लेती?’
गौरव के मुख से अचानक बिना किसी संदर्भ के ऐसा सवाल करना साक्षी को चकित कर गया। उसने तो कभी इस पर विचार भी नहीं किया फिर क्या उत्तर देती। मौन रही।
साक्षी के मौन ने गौरव के सपने पर चोट पहुंचाई फिर भी हताश नहीं हुआ। कहा, ‘मेरी बात का बुरा मान गई आप शायद।’
साक्षी ने कभी ऐसी कल्पना की न थी कि गौरव जैसा सुंदर सुशील युवक उससे ऐसा सवाल करेगा। पर उसके सवाल ने उसके अंदर भी हलचल पैदा कर दी। आखिर वह भी तो इंसान है। उसके अंदर भी दिल है। क्या उसकी कुछ इच्छाएं नहीं होती? इन्हीं विचारों के उद्वेग से उसके मुख से निकला, ‘नहीं सर, बुरा किस बात का?’
‘फिर मेरे प्रश्न का उत्तर क्यों नहीं दिया?’
‘क्या उत्तर दूं! एक विधवा को कौन जीवन संगिनी बनाना चाहेगा?’
‘अगर कोई चाहे तोे क्या आप स्वीकार करोगी?’
गौरव की बात सुनते ही साक्षी के अंदर एक तूफान आ गया। उसे विश्वास नहीं हो रहा था अपने कानोें पर। ‘गौरव मुझे प्यार करते हैं और आभास भी नहीं होने दिया।’ उसे अभी भी विश्वास नहीं हो रहा था कि गौरव ने उससे ऐसा कहा। बोली, ‘अभी तक तो किसी ने ऐसा प्रस्ताव किया नहीं। हां, आगे कभी आया तो सोचूंगी।’
‘अगर मैं यह प्रस्ताव करूं तो क्या स्वीकार करोगी?’ अवसर का लाभ उठाते हुए गौरव ने अपने दिल की बात को प्रकट कर दिया…
‘आपको तो एक से एक सुंदर लड़कियां शादी के लिए मिल जाएंगी फिर विधवा के साथ क्यों गृहस्थी बसाना चाहते हैं?’ साक्षी ने गौरव की चाहत की गहराई को परखने के लिए सवाल किया।
‘साक्षी मैंने केवल तुम से जवाब मांगा है, सलाह नहीं।’ साक्षी ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि गौरव जैसा युवक उसके जीवन में फिर से आकर एक नई दुनिया में ले जाने की चाह रखेगा। उसे स्वयं पर विश्वास नहीं हो रहा था। कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे। उलझन में बोली, ‘मुझे एक दिन का समय दें सोचने और फैसला करने के लिए। तब तक आप भी पुन: विचार कर लें, अपने फैसले पर।’
साक्षी मैंने बहुत दिनों पहले ही फैसला ले लिया था पर मौका नहीं मिल रहा था कि तुमसे कहूं। आज इसी प्रयोजन से बहन के बहाने यहां लाया जिससे अपने दिल की बात तुम्हें बता सकूं।’
साक्षी मन ही मन गौरव की सहजता और चालाकी की कायल हो गई थी। उसके अंदर भी किसी कोने में गौरव की बातों को लेकर प्रेम अंकुरित हो गया था। पर निर्णय के लिए कुछ समय चाहती थी। जीवन में एक बड़ा फैसला जो लेना था। तभी बोली, ‘ठीक है बहन के पास जा ही रहे हैं तो उसे भी बता दें कि मैं एक विधवा के साथ घर बसाना चाहता हूं। उसकी भी राय जान लें। वापस आएंगे तब तक मैं भी कुछ निर्णय कर चुकी होउंगी।
‘बहन से क्या सलाह लेना जब मैंने पहले ही फैसला कर लिया है। ठीक है तुम भी सोच समझ कर अपना फैसला बताना।’ इतना कहने के बाद साड़ी का दूसरा पैकेट साक्षी की ओर बढ़ाते हुए कहा, ‘यह साड़ी तुम लेती जाओ। तुम पर खूब फबेगी। तुम्हारा निर्णय मेरे पक्ष में हो तो सोमवार को ऑफिस आना तो यही पहन कर आना। वहीं से हम लोग कोर्ट चलेंगे और शादी की सारी औपचारिकता पूरी करेंगे। अगर निर्णय मेरे विरुद्ध हो तो यह पैकेट वापस कर देना। मैं समझ जाऊंगा कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं।’
काफी समाप्त करने के साथ वार्ता का भी अंत हो गया। दोनों लोग वहां से सीधे कार्यालय वापस आ गए। गौरव बिना किसी से बोले अपने कमरे में चला गया, पर साक्षी सभी के मध्य अपने टेबल पर बैठी तो सहयोगियों की निगाहें उसके चेहेरे को देख रही थी। जहां किसी अज्ञात खुशी की लालिमा स्पष्ट झलक रही थी….. उसकी प्रिय सहयोगी और दोस्त लीला से रहा नहीं गया। बोली, ‘बॉस के साथ आज खूब एंज्वाय किया…’
‘नहीं रे, उन्हें अपनी बहन के लिए साड़ी लेनी थी। उसी को मुझ से पसंद करवाने के लिए मार्केट ले गए थे।
‘और तुम्हारे लिए कुछ नहीं लिया?’
‘मेरे लिए क्यों? मैं उनकी कौन लगती हूं
‘तुम जानो, क्या लगती हो!’ व्यंग्य और परिहास के लहजे में लीला ने जवाब दिया।
लीला की बातों से साक्षी के मन में गुदगुदी उठ रही थी। पर उसे प्रकट नहीं करना चाहती थी। इसलिए प्यार से झिड़कते हुए बोली, ‘अच्छा बकवास बंद कर और मुझे काम करने दे।’
कार्यालय बंद होने पर अन्य दिनों की तरह सभी अपने घर चले गए। तय कार्यक्रम के अनुसार गौरव भी अपनी बहन से मिलने चला गया। साक्षी अकेले घर में कभी गौरव की भेंट की साड़ी निकाल कर अपने बदन पर रख दर्पण में झांकती तो कभी अलग कर खुद को दर्पण में देखती। ऐसे ही दिन बीत गया तो बिस्तर पर भी सुनहरे सपने को लेकर करवटें बदलती रही। कब सो गई पता नहीं चला। सुबह नींद टूटी तो दर्पण के सम्मुख जाकर खड़ी हो गई। देखा, कल तक मुरझाया चेहरा लाल गुलाब की तरह दिख रहा है। शरमा कर मुख हाथों से ढंक लिया और फैसला कर लिया कि सोमवार को क्या करना है?
सोमवार को ऑफिस जाने के लिए तैयार होने लगी तो साक्षी एक पल गौरव की दी साड़ी को लेकर कुछ सोचती रही। फिर उसे पहन कर दुल्हन की तरह श्रृंगार कर ऑफिस पहुंच गई। साक्षी को नए रूप में देख कर सभी की आंखें खुली की खुली रह गईं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि यह परिवर्तन कैसे हो गया? क्या यह वही साक्षी है जिसे रोज देखते थे या कोई और।
गौरव को भी शायद पूरा विश्वास था कि साक्षी अवश्य उसकी जीवन संगिनी बनेगी। इसी विश्वास से भर कर वह नए सूट में दूल्हे की तरह सजधज कर कार्यालय पहुंचा। ऑफिस के सभी लोग अचम्भित थे कि इन दोनों में आज यह परिवर्तन कैसे आ गया। लोग कुछ भी अनुमान नहीं लगा पा रहे थे इस परिवर्तन का तभी गौरव साक्षी के पास गया और बोला, ‘आओ चलें।’
साक्षी गौरव के साथ कोर्ट चली गई। वहां पहुंच कर पहले से तैयार कागज पर हस्ताक्षर कर दोनों ने शादी की औपचारिकता पूरी कर ली। प्रमाण पत्र लेकर दोनों पुन: कार्यालय आए। इस बार साक्षी के गले में एक नया आभूषण और मंगलसूत्र था।
दोनों को देख लोग कुछ कहें इसके पहले ही गौरव बोल पड़ा, ‘आज मैं और साक्षी कोर्ट में जाकर शादी के बंधन में बंध गए। हम पति-पत्नी आप सभी को डिनर पार्टी में आमंत्रित कर रहे हैं। विश्वास है आप सभी हम लोगों को आशीर्वाद देने रीगल होटल में जरूर आएंगे।’
क्यों नहीं, क्यों नहीं की हंसी-खुशी की आवाज कार्यालय में गूंज उठी।

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