जब सूचना क्रांति ने मासिक पत्रिकाओं को परदे के पीछे ढकेल दिया हो तब ‘हिंदी विवेक’ जैसी वैचारिक पत्रिका के अविरत प्रकाशन के दस वर्ष पूर्ण होना अपने आप में कमाल की घटना है। इस संदर्भ में प्रस्तुत है कुछ अनुभव-आधारित निरीक्षण-
देखते-देखते दस साल गुजर गए। किसी पत्रिका के जीवन में इतनी अविरत अवधि कमाल की होती है। इसलिए भी कि मासिक पत्रिकाओं का जमाना लद चुका है। कितनी मासिक पत्रिकाएँ अब बची हैं? पत्रिकाओं का व्यवसाय घाटे का सौदा है, इसलिए इसमें अब कोई बावला ही उतरेगा। गांठ की कुछ पूंजी झोंक देगा और थकते ही पट बंद कर देगा। इस लाभ-हानि से परे भी पत्रिकाएँ हैं- 1. शैक्षणिक, अनुसंधानात्मक, किसी विषय-विशेष या पेशे को समर्पित पत्रिकाएँ और 2. कर्तव्यभाव से संचालित, सामाजिक सरोकारों से प्रतिबद्ध, वैचारिक पत्रिकाएँ।
‘हिंदी विवेक’ इस दूसरे क्रम में आने वाली पत्रिका है। ‘हिंदी विवेक’ कोई व्यवसाय नहीं है। न धन कमाना है, न पूँजी जोड़ना है। समाज से उतना ही माँगना और स्वीकार करना है, जितने में गाड़ी चले। लाभ और लोभ दोनों से परे है। व्यक्ति इसकी नींव है और राष्ट्र इसका शिखर है। रचनात्मक, सामाजिक और राष्ट्रीय चरित्र का निर्माण लक्ष्य है। कार्यकर्ताओं के समर्पण और समाज के समर्थन से इस तरह की पत्रिकाएँ जिंदा रहती हैं, जिंदा रहेंगी। ‘विवेक परिवार’ की पिछले 70 साल की यात्रा इसका जीवंत उदाहरण है।
प्रकाशन संसार में बेहद स्पर्धा और झीनाझपटी का युग चल पड़ा है। कभी दैनिक अखबारों और मासिक पत्रिकाओं के विषय अलग थे। समाचार और समाचार-कथा के रूप में दोनों के क्षेत्र पृथक थे। इसलिए दोनों की जरूरत थी। पूंजीपति दैनिक अखबारों के व्यवसाय में कूदे और मासिक पत्रिकाओं का दम निकलने लगा। दैनिकों ने मासिकों के विषय छीन लिए। आगे सूचना क्रांति के साथ चैनलों ने दैनिकों के विषयों पर धावा बोल दिया। अब तो सोशल मीडिया ने चैनलों को धत्ता बताना शुरू किया। इस परिदृश्य का जिक्र इसलिए किया कि पता चलें कि इस धमाचौकड़ी में भी ‘हिंदी विवेक’ पिछले दस साल से अपने पैर मजबूत करता चला गया। आखिर क्यों?
हिंदी विवेक के विशेषांकों को विमोचन करते हुए महाराष्ट्र के राज्यपाल सी. विद्यासागर राव, उत्तरप्रदेश के राज्यपाल राम नाईक, गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा
इसे समझने के लिए पत्रकारिता के स्वरूप को जानना होगा। हमारी वर्तमान पत्रकारिता पश्चिमी सिद्धांतों की देन है। इस पत्रकारिता का मूल सिद्धांत प्रतिपादित करने के लिए अक्सर कुत्ते और आदमी का उदाहरण दिया जाता है। पश्चिमी पत्रकारिता खबर उसीको मानती है जब आदमी कुत्ते को काट दे। कुत्ते तो आदमी को काटते ही रहते हैं, अतः रोजमर्रे की बात खबर नहीं हो सकती। इस तरह हम नकारात्मकता व उत्तेजना को खबर मानने लगे हैं। जो बात खबर के साथ है, वही बात मासिक पत्रिकाओं के विषयों और लेखों के साथ है। उत्तेजक, नकारात्मक, भड़काऊ, भाषा-बंबालू, पाठकों की उत्कंठा को हद तक तानने वाली सामग्री पत्रिकाओं की पहले नम्बर की सामग्री बन गई। यह हिंस्र सामग्री हो गई। इसके विपरीत भारतीय चिंतन अहिंस्र है। वह मानता है कि नकारात्मकता या उत्तेजना क्षणिक है, जबकि रचनात्मकता या सकारात्मकता मनुष्य के कल्याण की रीढ़ है। हम मानते हैं कि इस उदाहरण के कुत्ता व आदमी दोनों सहचर हैं, दोनों समन्वय करके चल सकते हैं और एक नया निर्माण हो सकता है। यह नया निर्माण ही खबरों या लेखों का विषय है। यह पृष्ठभूमि, संक्षेप में, इसलिए लिखी कि ‘हिंदी विवेक’ के समावेशी वैचारिक भारतीय स्वरूप को समझा जा सके। ‘हिंदी विवेक’ ने पिछले दस सालों में इसी चिंतन का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की है। इसलिए ‘हिंदी विवेक’ पश्चिमी पत्रकारिता के चिंतन की तरह हिंस्र नहीं है, बल्कि भारतीय पत्रकारिता के तत्वज्ञान की तरह अहिंस्र है, जिसका परम लक्ष्य मनुष्य, चराचर और राष्ट्र की स्वयंसेवा है।
मुझे अब भी दस साल पहले का संस्मरण याद है। ‘हिंदी विवेक’ के आरंभ के पूर्व हुई मुलाकात में मेरे एक वरिष्ठ अमोल पेडणेकर ने पूछा था, “हिंदी में कदम रख रहे हैं, नाम क्या रखें?” मेरा जवाब था
, “विवेक की 70 वर्षों की बेदाग व बेलाग परम्परा है। इस नाममुद्रा को हम क्यों छोड़ें?” बात कहकर निकल गया। अस्वस्थता के चलते मुंबई छोड़ना पड़ा, लेकिन पहला ही अंक देखा तो नाम ‘हिंदी विवेक’ था। मन खिल उठा। पहले वर्ष से ही सम्पर्क बना रहा, आदेश के अनुसार जैसा बना लिखता रहा, सम्पादकीय कर्तव्य निभाता रहा। इस दौरान मुख्य कार्यकारी अधिकारी अमोल पेडणेकर ने एक दिन पूछा, “मासिक पत्रिकाओं को स्थैर्य आने में कितने दिन लगते हैं?’ मैंने अनुभव के आधार पर (क्योंकि, मैं कुछेक बंद पड़ी पत्रिकाओं का दुर्भागी सम्पादक भी हूं।) तपाक से कहा, “दस-दस साल!” और आज, यह दिन आया- कितना सौभाग्यशाली हूं मैं!
अब राजनीतिक धरातल पर ‘हिंदी विवेक’ ने किस तरह तथ्यात्मक कसरत झेली वह अपने-आप में एक कहानी है। जब पत्रिका शुरू हुई तब कांग्रेस नीत यूपीए का बोलबाला था और अब भाजपा के नेतृत्व में एनडीए सत्ता में है। इस तरह ‘हिंदी विवेक’ की अब तक की यात्रा को दो हिस्सों में बांट सकते हैं- एक कांग्रेस और वाम प्रभावित विचारधारा का सत्तासीन काल तथा दूसरा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की राष्ट्र प्रथम विचारधारा का सत्तासीन काल। दो परस्पर विरोधी सिरे। हमारी चर्चा में विचार आया था “कांग्रेस सरकार की आलोचना बडे समय समय से कर रहे हैं, अब भाजपा सरकार की आलोचना कैसे करेंगे?” तब एक सोच बनी थी कि हम जिस परिवार से जुड़े हैं, उस पर हमें गर्व है। हम तथ्यों के आधार पर बात करेंगे। हम चहुंओर से आने वाले अच्छे विचारों का स्वागत करेंगे, फिर चाहे कोई भी पार्टी हो। वैचारिक धरातल पर जहां जरूरी हो वहां आलोचना करना भी नहीं छोड़ेंगे। लेकिन अपना विवेक कभी नहीं खोएंगे। बहुत विवरण में जाने का यह स्थान नहीं है, लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूं कि दोनों स्थितियों में ‘हिंदी विवेक’ ने अपनी वैचारिक और राष्ट्रीय भूमिका अदा करने में कोई चूक नहीं की है।
एक छोटे से कमरे में ‘हिंदी विवेक’ ने अपनी गृहस्थी शुरू की थी। शुरुआती स्वरूप किसी समाचार-पत्रिका जैसा था। साधनों के अभाव के कारण कई बार समझौते करने पड़ते थे। धीरे-धीरे संसाधन और लोग जुड़ते गए और उसका कलेवर बदलता चला गया। आरंभ के दिनों में लोग कहते थे, सम्पादक विभाग के अधिकांश
सहयोगी मूलतया मराठी भाषी थे। मुंबई इलाके में होने के कारण शुरुआती दौर में कुछेक मराठी लेखक जुड़ गए। उनके लेखों का हिंदी अनुवाद करना होता था। धीरे-धीरे हिंदी समेत विभिन्न भाषा-भाषी लेखक जुड़ते चले गए। आगे हिंदी में ही मौलिक लेखन आने लगा। सभी भाषाएं हमारी ही हैं। हम उनसे अलगाव नहीं रखते थे, पर छपते हिंदी में थे। इस तरह ‘हिंदी विवेक’ भाषा-भारती बन गया। अब तो ‘हिंदी विवेक’ के लेखकों की सूची सैंकड़ों में है। देश के हर कोने से है। उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से पश्चिम तक।
‘हिंदी विवेक’ की एक नई परम्परा उल्लेख करना कहीं छूट न जाए। विभिन्न विषयों पर विशेषज्ञों या शीर्ष व्यक्तियों की भेंट-वार्ताएं मासिक-पत्रिकाओं में छपना कोई नई बात नहीं, नई बात यह है कि ‘एक अंक एक साक्षात्कार’ की प्रचलित धारणा को ‘हिंदी विवेक’ ने तोड़ दिया और ‘अंक भले एक, साक्षात्कार अनेक’ की अवधारणा कायम की। सरसंघचालक मोहनजी भागवत से लेकर सरकार्यवाह भैयाजी जोशी तक अनेक विद्वजनों के प्रदीर्घ साक्षात्कार दीपावली विशेषांकों की खासियत रही है। इनमें से मोहनजी मा. भैय्याजी, मा. मनमोहन वैद्य जी का साक्षात्कार इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी छोटी पुस्तिका निकालनी पड़ी, जिसका बाद में उड़ीया में भी अनुवाद हुआ।
विशेषांकों के विषय भी समकालीन रहे। दीपावली विशेषांकों में पूर्वोत्तर पर अष्टलक्ष्मी विशेषांक से लेकर हाल का फैशन विशेषांक बहुत लोकप्रिय रहे। सामान्य अंकों में भी ‘हर अंक विशेषांक’ संकल्पना साकार हुई। अन्ना हजारे के लोकपाल आंदोलन से लेकर आतंकवाद के खिलाफ म्यांमार में और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में फौजी कार्रवाई तक, और केदारनाथ में बाढ़ प्रकोप से लेकर गंगा सफाई तक, देशभर में सड़कों, जलमार्गों से लेकर बंदरगाहों के विकास तक कई लोकप्रिय विशेषांक ‘हिंदी विवेक’ ने प्रस्तुत किए हैं। उत्तर भारतीयों, उनके योगदान पर विशेषांक से हिंदी भाषियों के साथ ‘हिंदी विवेक’ जुड़ गया। बिहार, कश्मीर, गुजरात, राजस्थान, गोवा जैसे राज्यों पर भी विशेषांक निकले। अटलजी के निधन पर विशेषांक अश्रूपूरित शब्दांजलि था। सिंधी व आर्य समाज पर हाल में विशेषांक जारी किए गए। ये विशेषांक संग्रह व संदर्भ मूल्य रखते हैं, जो उनकी खासियत है। इन विशेष अंकों की इतनी फेहरिस्त है कि, यह अवश्य कह सकते हैं कि ‘हिंदी विवेक’ का ‘हर अंक विशेषांक’ ही होता है।
ये विशेषांक इतने सामयिक व सटीक रहे कि इसका एक संस्मरण याद आ रहा है। प्रसंग था चुनावों से सम्बंधित विशेषांक का लोकार्पण। विशेष अतिथि के रूप में सुब्रह्मण्यम स्वामी आए थे। 2014 के चु
नाव के कुछ ही दिनों पूर्व की बात थी। स्वामी ने सीना तान कर कहा था कि, “देखिए, भाजपा को 300 से अधिक सीटें मिलेंगी और उसकी सरकार आएगी।” ‘हिंदी विवेक’ ने यह कोई भविष्यवाणी अपने लेखों में नहीं की थी, लेकिन इतना अवश्य कहा था कि बदलाव की प्रक्रिया बहुत तेज है। श्रोता कुछ शंकित थे, लेकिन परिणामों ने स्वामी के वक्तव्य की सच्चाई साबित कर दी। इस तरह ‘हिंदी विवेक’ के ऐसे समारोह समकालीन परिदृश्य के प्रातिनिधिक रूप बन गए। देश के वरिष्ठ और श्रेष्ठ नेताओं, समाज सेवकों को सुनने के लिए सभागृह हमेशा ठसाठस भरे रहते थे।
जब जब भी कोई विशेषांक जारी होता था, उसका लोकार्पण समारोह अवश्य हुआ करता था। ऐसे समारोह मुंबई समेत दिल्ली, गोवा, लखनऊ में भी हो चुके हैं। दिल्ली में सड़क व जहाजरानी मंत्री नीतिन गड़करी ने राजमार्गों, जलमार्गों, बंदरगाहों व पूर्वोत्तर में विकास पर विशेषांक का लोकार्पण किया था। लखनऊ में गंगा विशेषांक का राज्यपाल राम नाईक ने लोकार्पण किया। तत्कालीन रक्षा मंत्री मनोहर पर्रीकर, स्मृति इराणी, महाराष्ट्र के राज्यपाल सी. विद्यासागर राव, गोवा की राज्यपाल श्रीमती मृदुला सिन्हा, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस, सुप्रसिद्ध अधिवक्ता उज्वल निकम जैसे अनेक विशिष्ट व शीर्ष व्यक्ति इन कार्यक्रमों में उपस्थित रह चुके हैं। इन विशेषांकों व उनके लोकार्पण कार्यक्रमों की सूची लम्बी है। ऊपर के कुछ उल्लेख बानगी के रूप में किए हैं।
एक और बात कहना चाहता हूं। साहित्य अखबारी दुनिया या मासिक पत्रिकाओं से नदारद हो गया है। लोग अब इसकी जरूरत महसूस नहीं करते। लेकिन ‘हिंदी विवेक’ साहित्य को समाज मंथन का अंग मानता है। इसलिए देश के श्रेष्ठ कहानीकारों, कवियों, व्यंग्यकारों के साथ नई प्रतिभाओं को भी ‘हिंदी विवेक’ स्थान देता रहा। बच्चों, महिलाओं, खेल आदि पर भी प्रसंगानुरूप सामग्री देते रहे हैं। मूल मौलिक सामग्री देने की भरसक कोशिश हुई है। इससे लोगों की यह आरंभिक धारणा निर्मूल साबित हुई कि ‘हिंदी विवेक’ मराठी ‘साप्ताहिक विवेक’ का हिंदी अनुवाद होगा। ‘हिंदी विवेक’ ने विषय, भाषा, भाष्य से साबित कर दिया कि हिंदी क्षेत्र में उसका स्वतंत्र वजूद है, और कायम रहेगा।
एक बात और। पाठकों के हाथ में अंक जाते ही उसकी पहली दृष्टि मुखपृष्ठ पर ही जाएगी। ये बहुरंगी कवर इतने आकर्षक और लक्षित रहे कि पहली नजर में पाठक ‘वाह!’ अवश्य कह देता है। एक मिसाल पिछले वर्ष के फैशन दीपावली विशेषांक की- उत्तर भारत की एक महिला पाठक ने लिखा, ‘हिंदी विवेक और फैशन! अजूबा ही था। मुखपृष्ठ बेहद आकर्षक था। बाद में यूं ही पढ़ने लगीं तो पढ़ती ही चली गई। फैशन की भारतीय परम्परा का यह नायाब विशेषांक था।”
पिछले दस वर्षों में ‘हिंदी विवेक’ से किसी न किसी रूप में अवश्य जुड़ा रहा। इसलिए यह अपनी ही कहानी लगती है। कभी कुछ कहने लगा तो भय होता है, कहीं ‘अपने मियां मिट्ठू तो नहीं बन रहा हूं।’ कहने को बहुत कुछ है, करने को भी बहुत कुछ है। यह आलेख ‘हिंदी विवेक’ का रिपोर्ट कार्ड नहीं है। महज कुछ निरीक्षण हैं, जिन्हें प्रस्तुत करना ठीक लगा।
अति सुन्दर। हिन्दी विवेक की गौरव शाली साहित्यिक परम्परा मे वर्तमान को मुखरित एवं सार्थक भविष्य के प्रति आशावादी लेखन की पत्रिका की प्रगति यात्रा का सटीक विश्लेषण।