ममता की डोर

“जब रिश्तों में स्वार्थ की भावना निहित हो जाती है और अहंकार की तूती बजने लगती है तो रिश्तों की डोर ऐसी टूटती है, कि स्नेह के मोती लाख समेटने पर भी नहीं सिमट पाते।”

‘चार दिन की चांदनी फिर अंधेरी रात’, अपने पति देवेश को सीऑफ करके रागिनी कुछ ऐसा ही महसूस कर रही थी। फिर वही अकेलापन और फिर वही जिम्मेदारियां। उसे कमला बुवा जी की भी बहुत याद आ रही थी।
कमला बुआ जी तथा अपनी जिम्मेदारियों के विषय में सोचते-सोचते रागिनी पुरानी यादों की श्रृंखला में ऐसी डूबी कि समय का कुछ पता ही नहीं चला। बारह साल पूर्व की सारी बातें उसके मस्तिष्क में ऐसी ताजा हो गईं मानो कल की ही घटना हो। अपने बॉस के शब्द उसके कान में गूंज उठे ,
कांग्रेचुलेशन रागिनी। कम्पनी आपको दो महीने की ट्रेनिंग के लिए अमेरिका भेज रही है। और हां, वन मोर गुड न्यूज़। इस ट्रेनिंग के तुरंत बाद ही आपका प्रमोशन हो जाएगा।
अपने बॉस प्रखर भट्ट की बात सुनते ही रागिनी खुशी से झूम उठी थी, पर पल भर में ही उसकी खुशी चिंता में बदल गई थी।
थैंक्स सर, कहकर वह ऑफिस से बाहर आ गई थी। उसके मन में विचारों का घमासान चल रहा था। एक तरफ उसका करियर था, तो दूसरी तरफ़ उसकी नन्ही परी अंशिका थी। दिन भर तो वह उसे डे केयर में छोड़ कर ऑफिस चली जाती थी, पर दो महीने के लिए अपनी तीन वर्षीय प्यारी बेटी को किसके पास छोड़कर जाएगी।
रागिनी ने सोचा कि वह अपने मम्मी, पापा के पास अंशिका को छोड़ देगी, पर दूसरे ही क्षण उनकी बीमारी ने रागिनी को निराश कर दिया था।
रागिनी को उस दिन अपने सास, ससुर की कमी भी बहुत खल रही थी, यदि वे होते तो शायद उसे अंशिका को छोड़ने की कोई फ़िक्र ही न होती। देवेश मरीन इंजीनियर था। वह एक कार्गो शिपिंग कंपनी में कार्यरत था। उसकी ज़िंदगी तो समुद्र की लहरों पर आरूढ़ जलयान में ही निकल रही थी। रागिनी अकेले जिम्मेदारियों के बोझ तले मनोरंजन के लिए तरसती रहती थी। उसका दिन तो ऑफिस में कट जाता था, पर रात का अकेलापन उसे झकझोरकर रख देता था। वह अपने जॉब में आगे बढ़ना चाहती थी।
एक दिन उसने देवेश से़ फोन पर पूछा,
देवेश, मुझे ऑफिस से यू.एस. में ट्रेनिंग का ऑफर मिला है बताओ, अंशिका के लिए मुझे क्या करना चाहिए? क्या तुम भारत आ सकते हो? यह ट्रेनिंग मेरे लिए बहुत जरूरी है।
वह बोला,
अंशिका से बढ़कर तो नहीं, रागिनी। अपने बॉस से कह दो कि तुम नहीं जा सकोगी और हां, मैं तो ऐसे बीच में बिल्कुल भी नहीं आ सकता।
देवेश को तो वैसे भी रागिनी के जॉब करने में कोई रुचि नहीं थी। वह स्वयं आवश्यकता से अधिक कमाता था, पर रागिनी दुनिया में अपनी एक पहचान बनाना चाहती थी। वह मात्र मिसेस देवेश सिरोही बनकर नहीं जीना चाहती थी। वह आकाश की ऊंचाइयों को छूना चाहती थी। पर अंशिका को कहां छोड़े?
इस प्रश्न का समाधान उसे नहीं मिल रहा था। उसकी रात की नींद और दिन का चैन गायब था। तभी एक दिन चेन्नई से उसकी बुआ कमलाजी अपने किसी काम से उसके पास दिल्ली आई थीं। उसने कमला जी को सारी समस्या बतायी। कमला जी केंद्रीय विद्यालय में शिक्षिका रह चुकी थीं। वे तीन महीने पहले ही रिटायर हुई थीं। वे जॉब की मजबूरियां समझती थीं। उन्होंने रागिनी से कहा,
रागिनी तुम जाने की तैयारी करो, मैं कुछ समय यहां रुक जाऊंगी और हां, अंशिका की चिंता छोड़ दो। मैं उसे प्यार से रख लूंगी।
रागिनी बोली,
बुआ जी, सोच लीजिए। अभी अंशिका बहुत छोटी है। कहीं उसने तंग किया तो?
जो भी होगा देखा जाएगा। रागिनी बेटी, सफलता के मौके हर समय नहीं आते। जो लोग सफलता की सीढ़ी पर चढ़ने से मुंह मोड़ते हैं, सफलता भी उनसे मुंह मोड़ लेती है।
रागिनी को कमला जी की बात पसंद आ गई। उसने कुछ समय में ही कमला जी को अंशिका के स्कूल, कपड़े, खेल-खिलौने उसकी पसंद नापसंद सबकी जानकारी दे दी।
जब कमला जी मात्र सत्ताईस वर्ष की थीं, तभी उनके पति का निधन हो गया था। पति के संग बिताए चार वर्ष उनके जीवन की मधुरतम यादों से सजे थे। उनकी अपनी कोई संतान नहीं थी। उनकी ममता ज़िंदगी भर से बच्चे के प्यार के लिए तरस रही थी। शायद इसीलिए ईश्वर ने उन्हें यह सुंदर अवसर दिया था। कुछ ही दिनों में अंशिका कमला जी से हिल मिल गई थी। कमला जी को डर था कि अंशिका जब रागिनी को जाते हुए देखेगी तो रोएगी इसलिए वे अंशिका से बड़े प्यार से बोलीं,
चल बेटा अंशिका, हम दोनों अपने कमरे में डोरेमान देखेंगे। डोरेमान देखने के लिए अंशिका कमला जी के साथ उनके कमरे में चली गई और रागिनी चुपचाप अपने दिल पर पत्थर रखकर अमेरिका के लिए निकल गई। जाते समय रागिनी के आंसू थम नहीं रहे थे, अंशिका को छोड़ते समय वह बार-बार सोच रही थी कि वह गलत कर रही है या सही?अंशिका को वह पल भर भी नहीं भूल पा रही थी। उसे चिंता थी कि पता नहीं बुआ जी उसे ठीक से रख पाएंगी या नहीं? कभी वह मम्मी, मम्मी कर रोने लगी तो बुआ जी क्या करेंगी? फ्लाइट में बैठी रागिनी इन्हीं प्रश्नों में खोई रही।
कमला जी जानती थीं कि बिना माता-पिता के किसी की जान से प्यारी बच्ची को रखना कितना कठिन काम है। वे अंशिका को बड़े जतन से रखतीं। पहले तो अंशिका डरी सहमी सी रहती पर धीरे- धीरे कमला जी के प्यार के जादू ने उसका मन मोह लिया।
रागिनी को अंशिका के चोट लगने वाली घटना याद आई तो उसके रोंगटे खड़े हो गए।
एक दिन अंशिका बुआ जी से ज़िद करने लगी थी, नानी जी मुझे पार्क में जाना है।
कमला जी उसे पार्क में ले गई थीं। अंशिका पार्क में ऊंची फिसलपट्टी पर झूल रही थी। अचानक एक बच्चे ने उसे धक्का दे दिया। फूल सी नाजुक अंशिका नीचे गिर पड़ी थी। उसके सिर में एक पत्थर लग गया था, खून की तेज धार बह निकली थी। सारे कपड़े खून में लथपथ हो गए थे। कमला जी तो उसे देख कर बहुत बुरी तरह घबरा गई थीं। जब तक अंशिका ठीक नहीं हुई वे उसे गोद में लिए ही बैठी रहती थीं। न तो उन्हें भूख लगती, न प्यास। एक अजीब डर उनके मन में बैठ गया था। यदि इसे कुछ हो गया तो मैं क्या मुंह दिखाऊंगी।
दो महीने पूरे होने के बाद रागिनी अपनी ट्रेनिंग करके दिल्ली वापस आ गई थी। रागिनी ने कमला जी से बड़े प्यार से कहा था,
बुआ जी, अब तो आप रिटायर हो चुकी हैं। प्लीज हमारे साथ यहीं दिल्ली में रह जाइए।
कमला जी मन ही मन तो यही चाहती थीं क्योंकि इन दो महीनों में उन्हें अंशिका की आदत सी हो गई थी। फिर भी उन्होंने कहा, बेटियों के घर नहीं रहा जाता है। अब तो मुझे जाना ही चाहिए।
रागिनी ने आग्रह करते हुए कहा था,
बुआ जी, यदि आप यहां रहेंगी, तो मुझे और अंशिका को भी आपका साथ मिल जाएगा। देवेश तो अधिकतर टूर पर ही रहते हैं और आजकल इक्कीसवीं सदी में बेटे, बेटी में आप क्यों अंतर कर रही हैं?
कमला जी को रागिनी के प्रेम और आग्रह के आगे झुकना पड़ा था। सबसे अच्छा तो उन्हें यह लग रहा था कि उन्हें अंशिका के साथ रहने को मिलेगा।
कमला बुआ जी घर के एक सम्माननीय और जिम्मेदार सदस्य की तरह घर की व्यवस्था, भोजन, अंशिका सभी की जिम्मेदारी उठाने लगी थीं। तब रागिनी को घर और अंशिका की कोई चिंता नहीं रहती थी। वह तो बिंदास होकर अपना जॉब करती थी। ऑफिशियल टूर पर भी जाती थी। उसे एक के बाद एक प्रमोशन मिलने लगे थे। वह धीरे-धीरे ऑफिस में व्यस्त होती जा रही थी। शहर में उसकी एक अपनी पहचान बन गई थी।
घर का सारा दायित्व कमला जी के वृद्ध कंधों पर आन पड़ा था। जिसे वे जी-जान से निभा रही थीं। अंशिका के प्रति उनका प्यार बढ़ता जा रहा था। उनकी ऐसी भावना दृढ़ होती जा रही थी कि पिछले जन्म में अंशिका उन्हीं का ही अंश रही होगी। वह अंशिका का होम वर्क करातीं। उसके साथ कभी कोई पज़ल बनातीं, कभी खेलतीं, कभी कहानियों के माध्यम से उसके कोमल हृदय में सुसंस्कारों के बीज लगातीं। अपनी पूजापाठ और अपने व्यक्तिगत काम तो जैसे वे अंशिका, रागिनी और देवेश की खुशी के लिए भूल ही गई थीं। घर के कामों में व्यस्तता के कारण न तो उनकी कमर दुखती और न ही पैर। कमला जी रागिनी की गृहस्थी में पूरी तरह घुलमिल गई थीं। वे हर समय यही सोचतीं,
रागिनी देवेश की गृहस्थी में कुछ खुशियों के फूल पल-पल खिलाती रहूं।
साल-दर-साल समय गुजरता गया। अंशिका का भी कमला जी से प्रेम बढ़ता जा रहा था। वह नानी मां, नानी मां। कहकर उनसे चिपकी रहती। कभी-कभी तो रागिनी को चिंता भी हो जाती कहीं अंशिका मुझसे भी ज्यादा बुआ जी को ही अपनी मां न मानने लगे। वह कमला जी से कह देती,
बुआ जी, आपके लाड़ के कारण अंशिका बिगड़ती जा रही है। कमला जी, कभी दुखी हो जातीं और कभी मुस्करा कर बात टाल देतीं।
धीरे-धीरे बारह साल बीत गए। उम्र एवं बीमारी के कारण कमला जी की कार्यक्षमता कम होने लगी थी। फिर भी वह बीमारी छुपाकर काम में ही लगी रहती थीं। उनकी खांसी बढ़ती जा रही थी। रागिनी उन्हें डॉक्टर के पास ले जाती थी।
एक बार देवेश आया हुआ था। रात भर कमला जी का खांस -खांस कर बुरा हाल था। रागिनी देवेश की बाहों में सिमटी हुई थी, तभी कमला जी की खांसी की आवाज सुनकर रागिनी बोली, प्लीज, जरा रुको न, मैं बुआ जी को दवाई देकर आती हूं।
रागिनी उठी और चली गई। देवेश अकेला कसमसा कर सो गया। यह एक दिन की बात नहीं रह गई थी। आए दिन खांसी की आवाज देवेश और रागिनी के प्रेम के रंग को भंग करने लगी थी। रागिनी बार-बार उठ कर कमला जी के पास जाती। उन्हें दवाई देती। देवेश को अब कमला जी बोझ लगने लगी थीं। वह मन ही मन कमला जी से परेशान रहने लगा था।
एक रात कमला जी उठकर किचिन में पानी पीने जा रही थीं। तभी रागिनी और देवेश की बात सुनकर वे रुक गईं। देवेश कह रहा था,
बुआ जी को चेन्नई क्यों नहीं भेज देती हो? आखिर कब तक हम उनका भार सहते रहेंगे। कब तक तुम उनकी सेवा करती रहोगी? रात दिन खो-खो करती रहती हैं।
रागिनी ने समझाते हुए कहा, ऐसी बीमारी की हालत में उन्हें मैं कहां भेज दूं? उन्हीं के कारण ही तो मैं इतनी निश्चिंतता से जॉब कर सकी हूं। अंशिका को तो बुआ जी ने ही पाला है। कितने साल से वे हमारी सहायता कर रही हैं।
देवेश चिल्लाया,
ऐसी सहायता गई भाड़ में, जो उसका इतना मोल चुकाना पड़ रहा है। इससे तो अच्छा होता, उस समय तुम कोई नौकरानी रख लेतीं। यह मेरा घर है, धर्मशाला नहीं है।
रागिनी को देवेश के बोल चुभ रहे थे, रागिनी रोते हुए बोली, आप बुआ जी की चिंता न करें। मैं कर लूंगी उनकी सेवा और हां यह घर मेरा भी है। देवेश प्लीज, उनके प्यार को समझने की कोशिश करो।
मुझे कुछ नहीं समझना। देवेश चिल्लाया।
साक्षात प्रेम की मूर्ति बुआ जी का अपमान रागिनी बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। उसकी आंखों से आंसू बहने लगे। वह सिसक- सिसक कर रोने लगी।
रागिनी की सिसकियां सुनकर कमला जी भी द्रवित हो उठी थीं। वे देवेश की बात सुनकर आहत हो गई थीं। वे भलीभांति समझ गई थीं कि इस स्वार्थी दुनिया में तभी तक कद्र होती है, जब तक कोई किसी के लिए उपयोगी होता है। बिना फल और छाया के ठूंठे वृक्ष को कौन पूछता है? अपनी जिंदगी के पंद्रह साल वह रागिनी, देवेश और अंशिका को पूरी तरह दे चुकी थीं। अपने जीवन के अनुभवों से वह भलीभांति समझ गई थीं। जब रिश्तों में स्वार्थ की भावना निहित हो जाती है और अहंकार की तूती बजने लगती है तो रिश्तों की डोर ऐसी टूटती है, कि स्नेह के मोती लाख समेटने पर भी नहीं सिमट पाते। रिश्ते टूटने पर दोनों ही पक्षों को घनीभूत पीड़ा से गुजरना पड़ता है।
उन्होंने मन ही मन जाने का निर्णय कर लिया था।
ममता की डोर से बंधी कमला जी अंशिका के कमरे में गईं। आंसू भरी धुंधली आंखों से वे अंशिका को देखती रही थीं। फिर उसकी बगल में जा कर लेट गईं और उसे निहारती रही थीं और उसके बालों को प्यार से सहलाती रही थीं। उनकी आंखों से गंगा यमुना बहती रहीं।
सुबह उन्होंने रागिनी से कहा था, रागिनी, अब मैं अपने अंतिम समय में सीनियर सिटीजन होम में रहना चाहती हूं। मेरे रहने का इंतजाम कर दो।
देवेश ने ऊपर से तो न-नुकुर की, परंतु मन ही मन वह बहुत खुश था। वह सोच रहा था, बिना दूध देने वाली बीमार गाय को आखिर कब तक झेला जाए।
कमला बुआ जी के निर्णय से रागिनी और अंशिका का दिल टूट गया था। उन्होंने बुआ जी को बहुत रोकने का प्रयास किया, पर उनका निर्णय अटल था। बुआ जी के अडिग फैसले के आगे रागिनी ने दिल्ली में ही एक सीनियर सिटीजन होम में उनके रहने की व्यवस्था कर दी थी।
कमला बुआ जी के बार-बार कहने पर दूसरे दिन रागिनी और अंशिका भारी मन से उन्हें सीनियर सिटीजन होम में छोड़ आई थीं। अंशिका की आंखें तो रो रो कर सूज गई थीं। कमला बुआ जी के जाने के बाद सब कुछ सूना सूना और अव्यवस्थित हो गया था।
दो दिन बाद देवेश कमला जी के खाली कमरे में गया। वहां उसने अलमारी में उपहार की तरह सजी हुई एक फ़ाइल देखी। उसने फ़ाइल में रखे पेपर्स पढ़े, तो वह दंग रह गया। कमला जी ने अपनी सम्पत्ति का बड़ा अंश अंशिका के नाम कर दिया था। उन्होंने अपनी ममता का मोल चुका दिया था। कमला बुआ जी की ममता को समझकर देवेश को अपराध बोध हो गया था। रिश्तों की गरिमा को न समझने से दुखी देवेश सिर पकड़ कर बैठ गया। वह समझ गया था कि उसके स्वार्थ और संवेदन शून्यता से बुआ जी को बहुत कष्ट हुआ होगा। उस दिन उसे भी बुआ जी की बहुत याद आई थी। पर रिश्तों की माला के स्नेह के मोती टूट कर बिखर चुके थे…।
यादों की श्रृंखला तब टूटी, जब अचानक उसने देवेश की आवाज़ सुनी, देखो कौन आया है? अचानक बुआ जी और देवेश को सामने देखकर रागिनी तो स्तब्ध ही रह गई। देवेश अपनी फ्लाइट छोड़कर बुआ जी को घर वापस ले आया था। रागिनी के लिए खुशी के वो पल अनमोल थे। देवेश को भी अंशिका, रागिनी और बुआ जी की खुशी में अपनी खुशी मिल गई थी।

This Post Has 3 Comments

  1. sonali jadhav

    प्रेरणादायी कहानी…..बहुत कुछ सिखाती है ये कहानी

  2. Mukesh Gupta

    bahut khub

  3. Anonymous

    behtrin lekh…lekh likhne wale ko sadar naman…

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